Book Title: Samadhimaran
Author(s): Rajjan Kumar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 209
________________ १९६ समाधिमरण उल्लेख नहीं मिलता है जहाँ पत्नी पति के शव के साथ जली हो या जिन्दा जला दी गयी हो। यद्यपि निशीथचूणिर १ में एक ऐसा उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार सोपारक के पांच सौ व्यापारियों को कर नहीं देने के कारण राजा ने उन्हें जला देने का आदेश दे दिया था और उल्लेख के अनुसार उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी उनकी चिताओं में जल गई थीं। लेकिन जैनाचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं, पुन: इस अपवादित उल्लेख के अतिरिक्त जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख नहीं मिलते हैं। महानिशीथर में इससे भिन्न यह उल्लेख मिलता है कि किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी, किन्तु उसके पितृकुल में यह प्रचलन नहीं था, अत: उसने अपना विचार त्याग दिया। इससे लगता है कि जैनाचार्यों ने पति की मृत्योपरान्त स्वेच्छा से भी अपने देहत्याग को अनुचित ही माना है और इस प्रकार के मरण को बालमरण या मूर्खता ही कहा है। सती प्रथा का धार्मिक समर्थन जैन आगम साहित्य और उसकी व्याख्याओं में हमें कहीं नहीं मिलता है। यद्यपि आगमिक व्याख्याओं में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता आदि के कुछ ऐसे उल्लेख अवश्य हैं जिनमें ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त देहत्याग किया गया है।१३ किन्तु यह अवधारणा सती प्रथा की अवधारणा से भिन्न है। जैनधर्म और दर्शन यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् जीवित चिता में जल मरने से पुन: स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत जैनधर्म अपने कर्म-सिद्धान्त के प्रति आस्था के कारण यह मानता है कि पति-पत्नी अपने-अपने कर्मों और भावों के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। यद्यपि परवर्ती जैन कथासाहित्य में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ एक भव के पति-पत्नी आगामी अनेक भवों में जीवनसाथी बने, किन्तु इसके विरुद्ध भी उदाहरणों की जैन कथा-साहित्य में कमी नहीं है।१४ अत: यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार पर जैनधर्म सती प्रथा का समर्थन नहीं करता। यद्यपि जैनधर्म में सती प्रथा का समर्थन न होने के कुछ सामाजिक कारण भी है। व्याख्या साहित्य में ऐसी अनेक कथायें वर्णित हैं जिनके अनुसार पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी न केवल पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करती थी, अपितु पति के व्यवसाय का संचालन भी करती थी। शालिभद्र की माता भद्रा को राजगृह का एक महत्त्वपूर्ण श्रेष्ठी और व्यापारी निरूपित किया गया जिसके वैभव को देखने के लिए श्रेणिक भी उसके घर आया करते थे।१५ आगमों और आगमिक व्याख्याओं में ऐसे अनेक उल्लेख भी हैं जहाँ कि स्त्री पति की मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर भिक्षुणी बन जाती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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