Book Title: Sahitya Darpan kosha Author(s): Ramankumar Sharma Publisher: Vidyanidhi Prakashan View full book textPage 9
________________ अङ्कमुखम् अतद्गुणः अङ्कमुखम्-अर्थोपक्षेपक का एक भेद। जहाँ एक ही अङ्क में सब अङ्कों की निखिल सूचना दी जाये तथा जो बीजभूत अर्थ का ख्यापक हो, उसे अङ्कमुख कहते हैं। यथा मा.मा. के प्रथमाङ्क के प्रारम्भ में ही कामन्दकी और अवलोकिता ने अगली सब घटनाओं की सूचना दे दी। धनिक ने अङ्कास्य का लक्षण अन्य प्रकार से किया है। उनके अनुसार अङ्क के अन्त में प्रविष्ट पात्रों के द्वारा विगत अङ्क से अगली कथा का सूचन इसके द्वारा होता है। यथा म. च. के द्वितीय अङ्क के अन्त में सुमन्त्र नामक पात्र ने प्रवेश करके शतानन्द जनक की कथा को विच्छिन्न करके आगामी अङ्क के आरम्भ की सूचना दी है। कुछ आचार्य इसे अर्थोपक्षेपक का स्वतन्त्र भेद नहीं मानते प्रत्युत उसे अङ्कावतार में ही गतार्थ मान लेते हैं। (6/41, 42) अलावतारः-अर्थोपक्षेपक का एक भेद। पूर्व अङ्क के अन्त में उसी के पात्रों के द्वारा ही जब अगले अङ्क की सूचना दे दी जाती है तो यह अङ्कावतार कहा जाता है। इसमें पूर्व अङ्क की कथा का विच्छेद किये विना ही आगामी अंङ्क की कथा प्रवृत्त होती है। इसका उदाहरण अ.शा. के पञ्चमाङ्क में पात्रों के द्वारा सूचित तथा उससे अविभक्त रूप से अवतीर्ण षष्ठाङ्क है। (6/40) अङ्कास्यम्-देखें अङ्कमुखम्। अङ्गस्यातिविस्तृति:-एक काव्यदोष। अप्रधान वस्तु के अत्यन्त विस्तार में अङ्गस्यातिविस्तृति नामक काव्यदोष होता है, यथा कि० में अप्सराओं के विलास का वर्णन। यह रसदोष है। (7/6) ___ अङ्गी-अननुसन्धानम्-एक काव्यदोष। प्रधान का विस्मरण हो जाना, यथा र.ना. के चतुर्थ अङ्क में वाभ्रव्य के आ जाने पर उदयन को सागरिका की विस्मृति हो जाती है। यह रसदोष है। (776) ___ अतद्गुणः-एक अर्थालङ्कार। कारण के होने पर भी दूसरी वस्तु के गुणों को ग्रहण न करने पर अतद्गुण अलङ्कार होता है-तद्रूपाननुहारस्तु हेतौ सत्यप्यतद्गुणः। यथा, हन्त सान्द्रेण रागेण भृतेऽपि हृदये मम। गुण गौरनिषण्णोऽपि कथं नाम न रज्यसि।। इस पद्य में हृदय के राग से युक्त होने पर भी उसमें स्थित नायक रक्त नहीं हो रहा, अतः अतद्गुण अलङ्कार है।Page Navigation
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