Book Title: Sahitya Darpan kosha
Author(s): Ramankumar Sharma
Publisher: Vidyanidhi Prakashan

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Page 11
________________ अधिकम् 5 अधिबलम् उद्दीपन, उसकी महिमावर्णनरूप अनुभाव तथा हर्षादि व्यभिचारीभावों के द्वारा पुष्ट हुआ है। (3/231) अधिकम् - एक अर्थालङ्कार । आश्रय तथा आश्रयी में से एक के अधिक होने पर यह अलङ्कार होता है- आश्रयाश्रयिणोरेकस्याधिक्येऽधिकमुच्यते । इन दोनों रूपों के उदाहरण क्रमश: इस प्रकार हैं- ( 1 ) किमधिकमस्य ब्रूमो महिमानं वारिधेर्हरिर्यत्र। अज्ञात एव शेते कुक्षौ निक्षिप्य भुवनानि ।। तथा (2) युगान्तकालप्रतिसंहतात्मनो जगन्ति यस्यां सविकासमासत । तनौ ममुस्तत्र न कैटभद्विषस्तपोधनाभ्यागमसम्भवा मुदः । । इनमें से प्रथम पद्य में आश्रयभूत समुद्र का अधिक्य प्रदर्शित है जहाँ भगवान् विष्णु भी सारे संसार को अपनी कुक्षि में समेटकर शयन करते है तथा द्वितीय पद्य में आश्रयी नारदमुनि के आगमन से प्राप्त होने वाले आनन्द का आधिक्य वर्णित है जो भगवान् कृष्ण की देह में समा नहीं पा रहा । ( 10/94) अधिकपदता - एक काव्यदोष । यदि अनावश्यक रूप से अधिक शब्द प्रयुक्त हों तो अधिकपदता दोष होता है । यथा-पल्लवाकृतिरक्तोष्ठी । यहाँ 'आकृति' पद अधिक प्रयुक्त है। यथा च-वाचमुवाच कौत्सः। यहाँ ' वाचम्' पद अधिक है। उवाच कौत्सः, इतने मात्र से ही अभिप्राय गृहीत हो जाता है। कहीं कहीं विशेषण देने के लिए अधिक पद का प्रयोग आवश्यक हो जाता है। यथा, 'उवाच मधुरां वाचम्' यहाँ ' वाचम्' के विना 'मधुरम् ' विशेषण का प्रयोग नहीं हो सकता, परन्तु विशेषण का प्रयोग यदि क्रिया-विशेषण के रूप में किया जाना शक्य हो तो भी अधिक पद का प्रयोग नहीं करना चाहिए, यथा-उवाच मधुरम् । यही अधिकपदत्व कभी-2 गुणरूप भी हो जाता है, यथा - आचरति दुर्जनो यत्सहसा मनसोऽप्यगोचरानर्थान् । तन्न न जाने स्पृशति मनः किन्तु नैव निष्ठुरताम् ! यहाँ 'तन्न न जाने' इस स्थल पर अधिकपदत्व भी विशिष्ट शोभा उत्पन्न कर रहा है । (7/4) अधिबलम् - गर्भसन्धि का एक अङ्ग । छल से किसी का अनुसन्धान करना अधिबल कहलाता है - अधिबलमभिसन्धिश्छलेन यः । यथा, र.ना. में काञ्चनमाला के " भट्टिनि ! इयं सा चित्रशालिका । वसन्तकस्य संज्ञां करोमि । " इस छल से राजा और विदूषक पकड़े जाते हैं। (6/106)

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