Book Title: Sahitya Darpan kosha
Author(s): Ramankumar Sharma
Publisher: Vidyanidhi Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ अनुरागेङ्गितानि 10 अनुरागेङ्गितानि को अनुमान कहते हैं-अनुमानं तु विच्छित्त्या ज्ञानं साध्यस्य साधनात्। यथा-जानीमहेऽस्या हृदि सारसाक्ष्या विराजतेऽन्तः प्रियवक्त्रचन्द्रः। उत्कान्तिजालैः प्रसृतैस्तदङ्गेष्वापाण्डुता कुड्मलताक्षिपद्ये।। इस पद्य में चमत्कार वक्त्रचन्द्रः तथा अक्षिपद्म के रूपक के कारण निष्पन्न हुआ है। उत्प्रेक्षा में साध्य का यह ज्ञान अनिश्चित होता है जबकि अनुमान में निश्चित। (10/82) ____ अनुरागेङ्गितानि-नायिका की अनुरागचेष्टायें। हृदय में मदन-विकार के अवतीर्ण हो जाने पर शरीर के विभिन्न अङ्गों की चेष्टायें, जो उनके हृद्गत भावों को अभिव्यक्त करती हैं, अनुरागेङ्गित कही जाती हैं। इन्हीं चेष्टाओं को देखकर विदग्ध पुरुष उनके मनोभावों को समझते हैं तथा प्रणयव्यापार को आगे बढ़ाते हैं। यथा-मुग्धा नायिकायें और कन्यायें नायक को देखकर लज्जा प्रकट करती है। वे नायक को सामने नहीं देखतीं बल्कि उसे घूमते हुए अथवा जाते हुए को छुपकर देखती हैं। बहुत बार पूछने पर मुख नीचा करके धीरे-2 गद्गद स्वर से प्रिय के साथ बात करती हैं। दूसरों के द्वारा उसकी चर्चा होने पर वे मुँह नीचा करके, दूसरी तरफ देखते हुए परन्तु सावधान होकर सुनती हैं। सभी प्रकार की नायिका प्रिय के पास देर तक ठहरने की इच्छा करती हैं। विना अलङ्कार धारण किये उसके सामने नहीं जातीं। कोई-कोई तो केश और वस्त्रादि को संयमित करने के व्याज से अपने स्तन, बाहुमूल और नाभि को साफ-2 दिखा देती हैं। अपनी वाणी से प्रिय के सेवकों को प्रसन्न रखती हैं। उसके मित्रों पर विश्वास करती हैं तथा उनका आदर करती हैं। सखियों में प्रिय के गुणों का कथन करती हैं और अपना धन भी देती हैं। उसके सोने पर सोती हैं, उसके दुःख में दुःखी होती हैं तथा सुख में सुखी होती हैं। प्रिय के दूर से देखते होने पर उसके दृष्टिपथ में रहती हैं। अपनी सखियों के सामने कामविकारों का कथन करती हैं। कुछ भी देखकर यों ही हँस पड़ती हैं। अपने कान खुजाती हैं। चोटी को खोलती और बाँधती हैं। अँभाई लेती हैं, अंगड़ाई लेती हैं। बालक का अलिङ्गन करके उसे चूमती हैं। अपनी सखी के मस्तक पर तिलक लगाती हैं। पैर के अंगूठे से जमीन पर लिखती हैं। तिरछी नज़र से देखती

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 233