Book Title: Sahitya Darpan kosha
Author(s): Ramankumar Sharma
Publisher: Vidyanidhi Prakashan

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Page 8
________________ अङ्कः 2 अङ्कः भेद प्रदर्शित करने के लिए कुछ आचार्य इसकी पृथक् संज्ञा करते है। अन्य आचार्यों का कथन है कि इसमें सृष्टि (जीवन) उत्क्रान्त अर्थात् विपरीत रहती है, अतः इसकी संज्ञा उत्सृष्टिकाङ्क है- उत्क्रान्ता विलोमरूपा सृष्टिर्यत्रेत्युत्सृष्टिकाङ्कः । इसमें कवि अपनी बुद्धि से किसी प्रख्यात घटना का प्रपञ्च एक अङ्क में करता है । सन्धि, वृत्ति और अङ्कयोजना भाण के समान होती है। वाक्कलह और निर्वेद के वचनों का प्रयोग होता है तथा अन्त में जय और पराजय का भी वर्णन होता है। इसके नायक सामान्य मनुष्य होते हैं तथा स्त्रीपात्रों का विलाप प्रदर्शित किया जाता है, अतः करुणरस स्थायी रूप से वर्णित होता है। इसका उदाहरण शर्मिष्ठाययातिः नामक रचना है। (6/261) अङ्कः-रूपक का एक खण्ड । एक दिन में निर्वर्त्य कथा को प्रायोजित करने वाला रूपक का अंश अङ्क कहा जाता है। यह अनेक प्रकार के संविधानकों से युक्त होता है। इसमें अवान्तर कार्य तो पूर्ण हो जाते हैं परन्तु बिन्दु संलग्न रहता है। कार्यों का बहुत अधिक विस्तार नहीं होता परन्तु आवश्यक सन्ध्यावन्दनादि कार्यों का प्रदर्शन भी अवश्य किया जाता है। बीज का उपसंहार नहीं होता । एक अङ्क में बहुत अधिक पद्यों का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए। गूढ़ार्थक शब्दों का प्रयोग नहीं होता। छोटे-छोटे अल्पसमासयुक्त गद्यवाक्य (संवाद के रूप में) प्रयुक्त होते हैं। रस और भाव स्पष्ट रूप से उद्दीप्त होते हैं। नायक का चरित्र प्रत्यक्ष होता है तथा उसके साथ तीन चार अन्य पात्र भी रङ्गमञ्च पर दृष्टिगोचर होते है, वे सभी अङ्क की समाप्ति पर निकल जाते हैं। अङ्क की शिल्प सम्बन्धी इन स्थापनाओं के साथ आचार्य विश्वनाथ ने मञ्च पर परिहरणीय विषयों का भी उल्लेख किया है। दूर से आह्वान, वध, युद्ध, राज्य में विप्लव, विवाह, भोजन, शाप, मलत्याग, मृत्यु, सम्भोग, दन्तक्षत, नखक्षत, अन्य लज्जास्पद कार्य, शयन, अधरपान, नगरादि का अवरोध, स्नान, चन्दनादि का लेप रङ्गमञ्च पर प्रदर्शित नहीं किये जाने चाहिएँ । देवी, परिजन, अमात्य, वणिक् आदि के चरितों के वर्णन तथा रसों और भावों की उत्पत्ति दिखायी जानी चाहिए परन्तु वर्णनों का बहुत अधिक विस्तार इष्ट नहीं है। (6/7)

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