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स्वभाव में लगना। जितना हम अपने को अकेला अनुभव करेंगे, उतना ही धर्ममार्ग में हमारा कदम बढ़ता रहेगा और जितना पर को अपना सर्वस्व समझेंगे, उतनी ही आकुलता बढ़ेगी। हम सभी को एक ही काम करना है, पर को छोड़ना और स्व को ग्रहण करना। सभी लोग अपने बारे में कुछ-कुछ सोचते तो रहते हैं कि मैं अमुक चन्द हूँ, अमुक लाल हूँ, व्यापारी हूँ या अन्य-अन्य कुछ हूँ। यहाँ यह धर्म पद्धति कह रही है कि बजाय इन सबके सोचने के यह सोचें कि मैं तो ज्ञानमात्र हूँ। देखो, इतनी बात पकड़ सके तो धर्म मिल गया, जीवन सफल हो गया, मुक्ति का मार्ग पा लिया। जहाँ सैकड़ों काम कर रहे हो, तो जरा एक यह काम भी करके देख लो। मैं क्या हूँ? मैं ज्ञान मात्र हूँ। मग्न होते जाइये, अन्दर आते जाइये। सीधी-सी बात है - जो मेरा है वह मेरे से छूट नहीं सकता और जो मेरा नहीं है, वह मेरा साथ कभी निभा नहीं सकता। ज्ञानस्वरूप मेरा है, इसलिये उसका अनुभव करने पर अनाकुलता होती है और स्त्री, पुत्र, राग-द्वेष आदि मेरे नहीं हैं, इसलिये उनका आश्रय लेने से आकलता होती है। अज्ञान के कारण यह जीव शरीर की उत्पत्ति को अपनी उत्पत्ति व शरीर के नाश को अपना नाश मानता है। तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान। रागादि प्रगट ये दुःख दैन, तिनही को सेवत गिनत चैन।।
छहढाला।। इस छन्द में जीव की दो भूलें दिखाईं हैं - एक तो देह में आत्मबुद्धि और दूसरी रागादि में सुख मानने रूप बुद्धि । वास्तव में यह आत्मा चैतन्य स्वरूपी अजर-अमर तत्त्व है। उसका न जन्म है, न मरण है। ऐसा अपने को न पहचानकर अज्ञानी जीव शरीर की उत्पत्ति होने से अपनी ही उत्पत्ति मानता है और शरीर का नाश होने पर अपना ही नाश मानता है, इस प्रकार अपने को देहरूप ही मानता है।
आत्मा का स्वभाव तो शांत, निराकुल, ज्ञानस्वरूप है और रागादि भाव प्रगट रूप से दुःखदायक हैं, आकुलतारूप हैं; तो भी जीव उसको सुखरूप
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