Book Title: Ratnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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ठक्कुर फेरूकृत रत्नपरीक्षाका परिचय
लेखक - डॉ. मोतीचन्द्र, एम्. ए., पीएच्. डी. (क्युरेटर, प्रिन्स ऑफ वेल्स मुजिअम, बंबई)
अमरकोश (२।१।३-४ ) में पृथ्वी के अड़तीस नामों में वसुधा, वसुमती और रत्नगर्भा नाम आए हैं जिनसे इस देश के रत्नों के व्यापार की ओर ध्यान जाता है । प्लिनी ने ( नेचुरल हिस्ट्री ३७७६ ) भी भारत के इस व्यापार की ओर इशारा किया है । इसमें जरा भी संदेह नहीं कि १८ वीं सदी पर्यंत जब तक कि, ब्राजिल की रत्नों की खानें नहीं खुलीं थीं, भारत- संसार भर के रत्नों का एक प्रधान बाजार था । रत्नों की खरीद विक्री के बहुत दिनों के अनुभव से भारतीय जौहरियोंने रत्नपरीक्षा शास्त्र का सृजन किया। जिसमें रत्नों के खरीद, बेच, नाम, जाति, आकार, घनत्व, रंग, गुण, दोष, कीमत तथा उत्पत्तिस्थानों का सांगोपांग विवेचन किया गया। बाद में जब नकली रत्न बनने लगे तब उन्हें असली रत्नों से विलग करने के तरीके भी बतलाए गए । अंत में रत्नों और नक्षत्रों के सम्बन्ध और उनके शुभ और अशुभ प्रभावों की ओर भी पाठकों का ध्यान दिलाया गया।
रत्नपरीक्षा का शायद सबसे पहला उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र (२।१०।२६) में हुआ है । इस प्रकरणमें अनेक तरह के रत्न, उनके प्राप्तिस्थान तथा गुण और दोष की.विवेचना है । कामसूत्र की चौंसठ कलाओं की तालिका में (कामसूत्र, १।३।१६) रूप्य-रत्न-परीक्षा और मणिरागाकर ज्ञान विशेष कलाएँ मानी गई हैं। जयमंगला टीका के अनुसार रूप्य-रत्न-परीक्षा के अन्तर्गत सिक्कों तथा रत्न, हीरा, मोती इत्यादि के गुण दोषों की पहचान व्यापार के लिए होती थी । मणिरागाकर ज्ञान की कला में गहनों के जड़ने के लिए स्फटिक रंगने और रत्नों के आकरों का ज्ञान आ जाता था। दिव्यावदान (पृ० ३) में भी इस बात का उल्लेख है कि व्यापारी को आठ परीक्षाओं में, जिनमें रत्नपरीक्षा भी एक है, निष्णात होना आवश्यक था । पर इस रत्नपरीक्षा ने किस युग में एक शास्त्र का रूप ग्रहण किया इसका ठीक ठीक पता , नहीं चलता। कौटिल्य के कोश-प्रवेश्य रत्नपरीक्षा प्रकरण से तो ऐसा मालूम पड़ता है कि मौर्य युग में भी किसी न किसी रूप में रत्नपरीक्षा शास्त्र का वैज्ञानिक रूप स्थिर हो चुका था । रोम और भारत के बीच में ईसा की आरंभिक सदियों में जो व्यापार बलता था उसमें रत्नों का भी एक विशेष स्थान था । इसलिए यह अनुमान करना शायद गलत न होगा कि भारतीय व्यापारियों को, रत्नों का अच्छा ज्ञान रहा होगा
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