Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 3 Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur View full book textPage 6
________________ प्रस्तावना राजस्थान प्राचीन काल से ही साहित्य का केन्द्र रहा है। इस प्रदेश के शासकों से लेकर साधारण जनों तक इस दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया है। कितने ही राजा महाराजा स्वयं साहित्यिक थे तथा साहित्य निर्माण में रस लेते थे। उन्होंने अपने राज्यों में होने वाले कवियों एवं विद्वानों को आश्रय दिया तथा बड़ी बड़ी पदवियां देकर सम्मानित किया। अपनी अपनी राजधानियों में हस्तलिखित प्रथ संग्रहालय स्थापित किये तथा उनकी सुरक्षा करके प्राचीन साहित्य की महत्त्वपूर्ण निधि को नष्ट होने से बचाया। यही कारण है कि आज भी राजस्थान में कितने ही स्थानों पर विशेषतः जयपुर, अलवर, बीकानेर आदि स्थानों पर राज्य के पोथीखाने मिलते हैं जिनमें संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा का महत्वपूर्ण साहित्य संग्रहीत किया हुआ है। यह सब कार्य राज्य-स्तर पर किया गया । किन्तु इसके विपरीत राजस्थान के निवासियों ने भी पूरी लगन के साथ साहित्य एवं साहित्यिकों की उल्लेखनीय सेवायें की हैं और इस दिशा में ब्राह्मण परिवारों की सेवाओं से भी अधिक जैन यतियों एवं गृहस्थों की सेवा अधिक प्रशंसनीय रही है। उन्होंने विद्वानों एवं साधुओं से अनुरोध करके नवीन साहित्य का निर्माण करवाया। पूर्व निर्मित साहित्य के प्रचार के लिये ग्रंथों की प्रतिलिपियां करवायी गयी तथा उनको स्वाध्याय के लिये शास्त्र भरडारों में विराजमान की गयी। जन साधारण के लिये नये नये ग्रंथों की उपलब्धि की गयी, प्राचीन एवं अनुपलब्ध साहित्य का संग्रह किया गया तथा जीर्ण एवं शीर्ण प्रथों का जीर्णोद्धार करवा कर उन्हें नष्ट होने से बचाया। उधर साहित्यिकों ने भी अपना जीवन साहित्य सेवा में होम दिया। दिन रात वे इसी कार्य में जुटे रहे। उनको अपने खान-पान एवं रहन-सहन की कुछ भी चिन्ता न थी । महापंडित टोडरमलजी के सम्बन्ध में तो यह किम्वदन्ती है कि साहित्य - निर्माण में व्यस्त रहने के कारण ६ मास तक उनके भोजन में नमक नहीं डाला गया किन्तु इसका उनको पता भी न लगा । ऐसे विद्वानों के कारण ही त्रिशाल साहित्य का निर्माण हो सका जो हमारे लिये आज अमूल्य निधि है । इसके अतिरिक्त कुछ साहित्यसेवी जो अधिक विद्वान् नहीं थे वे प्राचीन ग्रंथों की प्रतिलिपियां करके ही साहित्य सेवा का महान पुण्य उपार्जन करते थे | राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में ऐसे साहित्य सेवियों के हजारों शास्त्र संग्रहीत है। विज्ञान के इस स्वर्णयुग में भी हम प्रकाशित ग्रंथों को शास्त्र भण्डारों में इसलिये संग्रह करना नहीं चाहते कि उनका स्वाध्याय करने वाला कोई नहीं है किन्तु हमारे पूर्वजों ने इन शास्त्र भरडारों में शास्त्रों का संग्रह केवल एक मात्र साहित्य सेवा के आधार पर किया था न कि स्वाध्याय करने वालों की संख्या को देख कर। क्योंकि यदि ऐसा होता तो आज इन शास्त्र भण्डारों में इतने वर्षों के पश्चात भी हमें हजारों की संख्या में हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहीत किये हुये नहीं मिलते। 1Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 413