Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ १६ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का और आत्मानुभूति सिंह जैसी पर्याय में भी उत्पन्न हो सकती हैं और उत्पन्न होती भी हैं। अतः मृगराज ! तुझे इन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न चाहिए। मृगराज ! तू पर्याय की पामरता का विचार मत कर, स्वभाव के सामर्थ्य की ओर देख तू भी सिद्ध के समान अनन्तज्ञानादि गुणों का पिण्ड है। ध्रुवस्वभाव के अवलम्बन से ही पर्याय में सामर्थ्य प्रगट होती है । इतना ज्ञान तेरी वर्तमान पर्याय में भी प्रगट है कि जिससे तू चैतन्यतत्त्व का अनुभव कर सके । जिसप्रकार सिंह - शावक अपनी माँ सिंहनी को हजारों के बीच पहिचान लेता है । भले ही वह अपनी माँ को किसी नाम या गाँव से न जानता हो, पर उसे जानता अवश्य है; उसीप्रकार तू भले ही तत्त्वों के नाम न जान पावे, तो भी 'पर' से भिन्न आत्मा को पहिचान सकता है। इस समय तेरे परिणामों में भी विशुद्धि है। तू अन्तरोन्मुखी होकर आत्मा के अनुभव का अपूर्व पुरुषार्थ कर, तुझे अवश्य ही आत्मानुभूति प्राप्त होगी। तेरी काललब्धि आ चुकी है, तेरी भली होनहार हमें स्पष्ट दिखाई दे रही है, तुझमें सर्वप्रकार पात्रता प्रगट हुई प्रतीत हो रही है। तू एक बार रंग-राग और भेद से भिन्न आत्मा का अनुभव करने का अपूर्व पुरुषार्थ कर... कर... कर...!" पण्डित टोडरमलजी ने भी यह विचार नहीं किया कि किसी की समझ में आयेगा या नहीं ? उन्होंने तो मुलतानवाले भाइयों के प्रति यही भावना भायी कि तुम्हारे चिदानन्दघन के अनुभव से सहजानन्द की वृद्धि चाहिए । इसप्रकार हम देखते हैं कि इस रहस्यपूर्णचिट्ठी का एक-एक वाक्य ऐसा है; जो मोक्षमार्ग की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर प्रकाश डालने में समर्थ है। यही कारण है कि यह चिट्ठी शास्त्र बन गई है। इसलिए हमें इस चिट्ठी को पत्र के रूप में नहीं, शास्त्र के रूप में पढ़ना चाहिए, इसका गहराई से अध्ययन करना चाहिए, इसका स्वाध्याय करना चाहिए । • १. तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ३२-३३ दूसरा प्रवचन संतप्त मानस शांत हों, जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में ।। पण्डितों के पण्डित आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी कृत रहस्यपूर्णचिट्ठी पर चर्चा चल रही है। पण्डितजी ने जिन भाइयों के नाम यह पत्र लिखा था, उनके लिए उन्होंने अध्यात्मरसरोचक विशेषण से संबोधित किया है। उनके पत्र में प्रश्न पूछे गये थे, उनके आधार पर पण्डितजी इस बात को समझ गये थे कि वे लोग अध्यात्म के रसिक हैं, अध्यात्म के अध्ययन से रुचि रखनेवाले हैं। अध्यात्म की रुचि रखनेवालों के प्रति उनके हृदय में कितना और कैसा वात्सल्यभाव था; यह उनके निम्नांकित कथन में उपलब्ध होता है ह्र "सो भाईजी, ऐसे प्रश्न तुम सरीखे ही लिखें। इस वर्तमान में अध्यात्मरस के रसिक बहुत थोड़े हैं। धन्य हैं जो स्वात्मानुभव की बात भी करते हैं।" अध्यात्मसंबंधी चर्चा करनेवालों की दुर्लभता पण्डित टोडरमलजी के समय में भी थी और आज भी है। यहाँ कोई कह सकता है कि आज तो आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के प्रताप से अध्यात्मरस की चर्चा करनेवालों की कोई कमी नहीं है, आज तो गाँव-गाँव में अध्यात्मप्रेमी प्राप्त होते हैं, घर-घर में अध्यात्म की चर्चा चलती है। अरे, भाई ! ऐसे तो टोडरमलजी के जमाने में भी जयपुर में अध्यात्मप्रेमियों की कमी नहीं थी और गाँव-गाँव में शास्त्रसभायें भी चलती थीं। मुलतान से प्राप्त पत्र से ही यह सबकुछ स्पष्ट है; तथापि पूरे भारत वर्ष के अनुपात में तो अत्यल्प ही हैं। पण्डितजी का वात्सल्यभाव तो देखो, वे आत्मानुभव की बात करनेवालों को भी धन्य मानते हैं, धन्यवाद देते हैं।

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