Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 30
________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का स्वामी के आठ हजार घंटों से अधिक के ऑडियो और सैंकड़ों वीडियो उपलब्ध हैं। आज भगवान महावीर के ऑडियो व वीडियो उपलब्ध होते तो उनके अनुयायियों में इतने मतभेद नहीं होते, इतने सम्प्रदाय नहीं होते। आत्मकल्याण के लिए, आत्मा का अनुभव करने के लिए, जितने ज्ञान की आवश्यकता है; उतना ज्ञान हमें आज उपलब्ध है। ज्ञान का क्षयोपशम भी है और देशना भी उपलब्ध है। शास्त्र हैं, उनके विशेषज्ञ ज्ञानी प्रवक्ता भी हैं। सभीप्रकार की अनुकूलता है। अतः अब हमें वस्तुस्वरूप को समझने का अपूर्व पुरुषार्थ करना चाहिए। इसप्रकार अत्यन्त उत्साह से आत्मस्वभाव के निरूपक शास्त्रों का अध्ययन करके और ज्ञानी गुरुओं से मार्गदर्शन प्राप्त करके त्रिकालीधुव भगवान के सही स्वरूप को समझना चाहिए। इसप्रकार विकल्पात्मक ज्ञान में भगवान आत्मा का सही स्वरूप स्पष्ट हो जाने पर, उसके प्रति अपनेपन का भाव आने पर जब अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ होता है; तब निर्विकल्प आत्मानुभूति का मार्ग प्रशस्त होता है। निर्विकल्प अनुभूति में जाने के पहले भगवान आत्मा का एकदम सही स्वरूप विकल्पात्मक ज्ञान में आना अत्यन्त आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना निर्विकल्प अनुभूति में प्रवेश संभव नहीं है। एक गेगरिन नाम की बीमारी होती है। वह बहुत तेजी से फैलती है। अत: डॉक्टर कहता है कि आपकी अंगुलि में गेगरिन है, उसे काटना होगा। आप मुझे अंगुली काटने की सहमति दीजिए। उसकी बात सुनकर जब रोगी कहता है कि मुझे सोचने दो; क्योंकि यह अंगुली तो बहुत काम आती है। डॉक्टर कहता है ह्न सोचने का समय नहीं है, यदि हाँ कहने में देर करोगे तो फिर हाथ काटना पड़ेगा। बात करते-करते कुछ देर हो जाती है और उसका हाथ काट दिया जाता है। ___ हाथ काटने में बहुत कुछ वह अंश भी कट जाता है; जिसमें कोई खराबी नहीं थी, क्योंकि यदि उसमें बीमारी का जरा-सा भी अंश रह जाता तो वह संपूर्ण शरीर में फैल सकती थी। अत: डॉक्टर को यह सुविधा प्राप्त है कि वह नीरोग अंग को भी काट दे; पर धर्म के डॉक्टर चौथा प्रवचन को यह सुविधा प्राप्त नहीं है; क्योंकि स्व-पर भेदविज्ञान में यह कहा गया है कि रंचमात्र भी अपना अंश पर में या पर का अंश अपने में नहीं मिलाना। यदि रंचमात्र भी परपदार्थ को अपना मान लिया या निज को पररूप जान लिया तो विकल्पात्मक ज्ञान भी सच्चा नहीं होगा। यदि विकल्पात्मक ज्ञान सच्चा नहीं हुआ तो निर्विकल्पक आत्मानुभूति होना संभव नहीं है। __सम्यग्दृष्टि और सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि के विकल्पात्मक आत्मज्ञान में मात्र इतना ही अन्तर होता है कि सम्यग्दृष्टि ने स्वयं प्रत्यक्ष देखकर जाना है और सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि ने प्रत्यक्ष देखनेवाले से सुनकर जाना है, उसके द्वारा लिखित पढ़कर जाना है। प्रश्न : क्या सभी पदार्थों का ऐसा ज्ञान करना होगा ? उत्तर : नहीं, सभी का नहीं; मात्र अपने आत्मा का। एक ओर अपना भगवान आत्मा और दूसरी ओर सारा जगत। इन दोनों के बीच ही भेदज्ञान करना है। समस्त परपदार्थों से भिन्न अपने आत्मा को जानना है। आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष के भाव भी पर हैं। उनसे भी भिन्न अपने आत्मा को जानना है। वर्णादि और रागादि भावों से भिन्न निज भगवान आत्मा को जानना है। कहा भी है कि ह्र वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावा: सर्व एवास्य पुंसः ।। यह भगवान आत्मा वर्णादि भावों और रागादि विकारों से भिन्न ही है। वर्णादि में सभी संयोग (परपदार्थ) आ जाते हैं और रागादि में संयोगी भाव अर्थात् आत्मा में उत्पन्न होनेवाले सभी विकारी भाव आ जाते हैं। सद्गुरु के सदुपदेश से तत्त्वार्थ का, विशेषकर आत्मतत्त्व का आगमानुसार स्वरूप स्पष्ट हो जाने पर सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि या सम्यक्त्वी जीव सविकल्पदशा से निर्विकल्पदशा को किसप्रकार प्राप्त करते हैं ह्र इसका स्वरूप समझाते हुए पण्डितजी लिखते हैं ह्र __"वही सम्यक्त्वी कदाचित् स्वरूप ध्यान करने को उद्यमी होता है, वहाँ प्रथम भेदविज्ञान स्व-पर का करे; नोकर्म-द्रव्यकर्म-भावकर्म रहित केवल चैतन्य-चमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने; पश्चात् पर १. समयसार, कलश ३७

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