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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का सम्यग्दृष्टि जीवों को तो जहाँ वे खड़े हैं, वहाँ से मोक्ष तक का पूरा मार्ग अत्यन्त स्पष्टरूप से दिखाई देता है; पर अनादिकालीन मिथ्यादृष्टियों को तो सबकुछ घने अंधकार में है। इसलिए उन्हें तो पग-पग पर मार्गदर्शन की आवश्यकता है।
विकल्पात्मक ज्ञान में एक बार सही निर्णय हो जाने और त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा में अपनापन आ जाने के बाद होनेवाली उग्रतम आत्मरुचि में विशेष प्रकार की योग्यता का परिपाक ही प्रायोग्यलब्धि है।
जब यह सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि जीव उक्त विकल्पात्मक प्रक्रिया से पार होकर निर्विकल्पदशा को प्राप्त करता हुआ करणलब्धि में प्रवेश करता है, तब सम्यग्दर्शन प्राप्त करके ही रहता है।
जिसप्रकार प्लेन में बैठ जाने और उसके रवाना होने के बाद लौटना संभव नहीं होता; उसीप्रकार करणलब्धि में पहुँचने के बाद लौटना संभव नहीं रहता; फिर सम्यग्दर्शन होता ही होता है।
जबतक हम किनारे पर पहुँच कर नाव में से उतर नहीं जाते, तबतक नदी में ही हैं; एक पैर भी नाव में है, तब भी नदी में ही है। उसीप्रकार जबतक जीव करणलब्धि में है, तबतक सम्यक्त्व के सन्मुख ही है, सम्यग्दृष्टि नहीं।
जब नाव पूरी तरह छोड़ दें, तभी पार हुए कहे जावेंगे। उसीप्रकार करणलब्धि का काल पूरा होने पर ही सम्यग्दृष्टि होते हैं।
सम्यग्दृष्टि होने के बाद तो मोक्ष तक का सम्पूर्ण मार्ग एकदम स्पष्ट हो ही जाता है, सबकुछ साफ-साफ दिखाई देता है। अतः अब गुरु की उतनी आवश्यकता नहीं रहती, जितनी पहले थी।
देव-शास्त्र-गुरु का सहयोग तो मुख्यरूप से देशनालब्धि में ही है। यदि हम देशनालब्धि संबंधी प्रक्रिया की उपेक्षा करेंगे, उसे अप्रमाण कहेंगे, उसकी प्रामाणिकता पर संदेह करेंगे, उसे हेय दृष्टि से देखेंगे तो मार्ग से भटक जाने की पूरी-पूरी संभावना है; क्योंकि संदेह के साथ किये गये प्रयास में वह सामर्थ्य नहीं होती कि वह कार्यसिद्धि में सफलता दिला सके।
जबतक सात फेरे नहीं पड़े, तबतक जमाई के स्वागत-सत्कार की,
पाँचवाँ प्रवचन संभाल की अधिक आवश्यकता है। उसीप्रकार देशनालब्धि के काल में देव-शास्त्र-गुरु के प्रति आस्था-भक्ति की अधिक आवश्यकता है।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रगट होते ही तो यह आत्मा द्रुतगति से मुक्ति के मार्ग में बढ़ने लगता है; प्रतिसमय शुद्धि की वृद्धिरूप निर्जरा आरंभ हो जाती है। वह शुद्धि की वृद्धि सोते, खाते-पीते, उठते-बैठते चलती रहती है; मोक्षमार्ग में गमन निरन्तर होता ही रहता है।
इसलिए मैं कहता हूँ कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र होने के बाद तो स्वयंचालित प्रक्रिया चल निकलती है; अत: सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति के लिए जो कुछ पुरुषार्थ करना है, वह तो सम्यग्दर्शन होने के पहले ही करना है। कम से कम जहाँ यह अज्ञानी जीव खड़ा है, वहाँ तो देशनालब्धि पूर्वक सम्यक् तत्त्व निर्णय करने का ही पुरुषार्थ करना है।
कलश टीका में तो लिखा है कि "शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है; इसलिए शुद्धात्मानुभूति के होने पर शास्त्र पढ़ने की कुछ अटक नहीं है।" ___तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट होने के बाद शास्त्रों का अध्ययन और गुरुवचनों का श्रवण करने की अनिवार्यता नहीं है; क्योंकि जिस कार्य में इनकी आवश्यकता थी, वह कार्य तो हो चुका है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा जीव शास्त्राध्ययन नहीं करते, गुरु मुख से तत्त्व श्रवण नहीं करते; करते हैं, अवश्य करते हैंपर कुछ समझने के लिए नहीं, अपितु अपनी रुचि के पोषण के लिए करते हैं।
यह बात तो सर्वविदित ही है कि भगवान महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम को भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरने के पूर्व ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गयी थी, वे द्वादशांग के पाठी हो गये थे, उन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया था; तथापि वे प्रतिदिन ७ घंटा और १२ मिनिट तक भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में उपस्थित रहते थे, रुचिपूर्वक श्रवण करते थे।
यद्यपि कलश टीका का उक्त कथन सुनकर स्वाध्याय से विरक्त होने १. समयसार कलश १३ की राजमलीय कलश टीका