Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 49
________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का सततरूप से रहता है। वह सम्यक्त्व स्व-उपयोग के समय प्रत्यक्ष व परउपयोग के समय परोक्ष ह्न ऐसा भेद नहीं है अथवा वह सम्यक्त्व स्वानुभव के वक्त उपयोगरूप व परलक्ष के वक्त लब्धिरूप ह ऐसा भेद भी सम्यक्त्व में नहीं है। सम्यक्त्व में तो औपशमिकादि प्रकार हैं और वे तीनों ही प्रकार सविकल्पदशा के समय में भी होते हैं। सम्यग्दर्शन होने से जितनी शुद्ध परिणति हुई, वह तो शुभ-अशुभ के काल में भी धर्मी को चल ही रही है। सम्यग्दर्शन हुआ, तब से वह जीव सदैव निर्विकल्प-अनुभूति में ही रहा करे ऐसा नहीं है। उसको शुद्धात्मप्रतीति सदैव रहती है, परंतु अनुभूति तो कभी किसी समय होती है। मुनि को भी निर्विकल्प अनुभूति सतत नहीं रहती; यदि सतत दो घड़ी तक निर्विकल्प रहें तो केवलज्ञान हो जाये।" पूर्व प्रकरण की समाप्ति पर पण्डितजी ने एक बात की ओर विशेष ध्यान आकर्षित किया था कि अनुभव के काल में ज्ञान की विशेष वृद्धि नहीं होती। जिन लोगों के चित्त में यह बात पहले से ही खचित है कि कुछ विशेष जानने से विशेष आनन्द होता है; उन्हें ऐसा प्रश्न होना स्वाभाविक ही है कि जब सविकल्पदशा से निर्विकल्पदशा में विशेष ज्ञान नहीं होता तो आनन्द भी विशेष कैसे होगा ? उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए पण्डितजी सविकल्पज्ञान से निर्विकल्पज्ञान में होनेवाली दो विशेषताओं का विशेष उल्लेख करते हैं ह्र १. सविकल्पदशा में ज्ञान अनेक ज्ञेयों को जानता रहता है, पर निर्विकल्पदशा में मुख्यरूप से एकमात्र आत्मा का ही जानना होता है। २. सविकल्पदशा में परिणाम अनेक विकल्पों में उलझे रहते हैं और निर्विकल्पदशा में मात्र आत्मस्वरूप में ही तादात्म्यरूप से परिणमित होते हैं। उक्त विशेषताओं के कारण निर्विकल्प अनुभूति के काल में विषय सेवन के सुख से एकदम भिन्न जाति का विशेष अतीन्द्रिय आनंद आता है। सातवाँ प्रवचन संतप्त मानस शांत हों, जिनके गुणों के गान में। वे वर्द्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में ।। पण्डित टोडरमलजी कृत रहस्यपूर्णचिट्ठी पर चर्चा चल रही है। विगत प्रवचन के अन्त में यह स्पष्ट किया गया था कि सविकल्पदशा से निर्विकल्पदशा में, आत्मानुभूति के काल में विशेष ज्ञान तो नहीं होता, तथापि आनन्द में तो विशेषता होती ही है। अगला प्रश्न और उसका उत्तर प्रस्तुत करते हुए पण्डितजी लिखते हैंह "यहाँ फिर प्रश्न ह्न अनुभव में भी आत्मा परोक्ष ही है, तो ग्रन्थों में अनुभव को प्रत्यक्ष कैसे कहते हैं ? ऊपर की गाथा में ही कहा है 'पच्चखो अणुहवो जम्हा' सो कैसे है ? उसका समाधान हू अनुभव में आत्मा तो परोक्ष ही है, कुछ आत्मा के प्रदेश आकार तो भासित होते नहीं हैं; परन्तु स्वरूप में परिणाम मग्न होने से जो स्वानुभव हुआ, वह स्वानुभवप्रत्यक्ष है। स्वानुभव का स्वाद कुछ आगम-अनुमानादिक परोक्ष प्रमाण द्वारा नहीं जानता है, आप ही अनुभव के रसस्वाद को वेदता है। जैसे कोई अंधपुरुष मिश्री को आस्वादता है; वहाँ मिश्री के आकारादि तो परोक्ष हैं, जो जिह्वा से स्वाद लिया है, वह स्वाद प्रत्यक्ष है ह वैसे स्वानुभव में आत्मा परोक्ष है, जो परिणाम से स्वाद आया, वह स्वाद प्रत्यक्ष है ह ऐसा जानना। अथवा जो प्रत्यक्ष की ही भाँति हो उसे भी प्रत्यक्ष कहते हैं। जैसे लोक में कहते हैं कि 'हमने स्वप्न में अथवा ध्यान में अमुक पुरुष को प्रत्यक्ष देखा', वहाँ कुछ प्रत्यक्ष देखा नहीं है, परन्तु प्रत्यक्ष की ही भाँति प्रत्यक्षवत् यथार्थ देखा, इसलिए उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। उसीप्रकार अनुभव में आत्मा प्रत्यक्ष की भाँति यथार्थ प्रतिभासित होता है; इसलिए इस न्याय से आत्मा का भी प्रत्यक्ष जानना होता है ह्र ऐसा कहें तो दोष नहीं है। १. अध्यात्मसंदेश, पृष्ठ ९०-९१

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