Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 57
________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का जिनवाणी के स्वाध्याय से समझे गये एवं गुरु या साधर्मी द्वारा समझाये गये वस्तुस्वरूप को इसीप्रकार कसौटी पर कसकर स्वीकार करने का आदेश आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में दिया है। ११२ अतः यह मात्र औपचारिकता नहीं है, अपितु मार्ग ही ऐसा है । अत्यन्त उपयोगी उत्तर लिखने के उपरान्त भी उन्हें संतोष न था । यही कारण है कि वे लिखते हैं कि विशेष कहाँ तक लिखें; जो बात जानते हैं, वह लिखने में नहीं आती। उन्हें भरोसा था कि मिलने पर कुछ विशेष समझाया जा सकता है, पर मिलना उस जमाने में अत्यन्त कठिन था । इसलिए उनकी स्पष्ट सलाह थी कि आत्मा के अनुभव के प्रयास में निरन्तर उद्यमी रहना ही श्रेयस्कर है। पत्र के अन्त में वे अध्यात्म की गहराई में जाने के लिए समयसार की आत्मख्याति टीका और सैद्धान्तिक प्रश्नों के समाधान के लिए गोम्मटसार आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय करने की सलाह देते हैं। अपनी सलाह को दुहराते हुए वे लिखते हैं कि आध्यात्मिक और आगम ग्रन्थों का स्वाध्याय करना एवं स्वरूपानन्द में मग्न रहना । उनकी दृष्टि में एकमात्र करने योग्य कार्य स्वाध्याय और ध्यान ही हैं। सर्वान्त में वे यह भी लिखना नहीं भूलते कि तुम्हारे देखने में कोई विशेष ग्रंथ आये हों तो मुझे अवश्य बताना, जिससे मैं भी उन ग्रन्थों के स्वाध्याय का लाभ उठा सकूँ । साधर्मी जीवों के तो परस्पर चर्चा ही चाहिए। पण्डितजी का अत्यन्त मार्मिक यह कथन सभी आत्मार्थी भाई बहिनों के लिए अत्यन्त उपयोगी है; क्योंकि धर्म का नाता तो मूलतः तत्त्वज्ञान से ही है; अतः साधर्मी जन परस्पर तात्त्विक चर्चा के अतिरिक्त और क्या करेंगे ? इसप्रकार हम देखते हैं कि यह रहस्यपूर्णचिट्ठी; चिट्ठी नहीं, जिनागम और जिन - अध्यात्म का मर्म खोलनेवाला अनुपम ग्रन्थ है। सभी आत्मार्थीजन इसका गहराई से स्वाध्याय कर आत्मकल्याण के मार्ग में रत रहें ह्न इसी मंगल भावना के साथ विराम लेता हूँ । ९. समयसार, गाथा ५

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