Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka Author(s): Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 7
________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का अनुभव से सहजानन्द की वृद्धि चाहिए के ठीक पहले यह भी लिखा है कि यहाँ यथासंभव आनन्द है। यह आनन्द भी चिदानन्दघन के अनुभव से ही उत्पन्न हुआ आनन्द है। यथासंभव का अर्थ है भूमिकानुसार । तात्पर्य यह है कि पंडितजी परोक्षरूप से यह कह रहे हैं कि मैं भी यहाँ अपनी भूमिकानुसार चिदानंदघन के अनुभव से उत्पन्न आनंद से आनंदित हूँ। ___पण्डित टोडरमलजी पत्र में आगे लिखते हैं कि तुम्हारा पत्र भाईश्री रामसिंहजी भुवानीदासजी पर आया, उसके समाचार जहानाबाद से मुझको अन्य साधर्मियों ने लिखे थे। उक्त कथन से यह सिद्ध होता है कि यह पत्र पण्डितजी को नहीं लिखा गया था। यह तो जहानाबाद के लोगों को लिखा गया था। जब उन्हें इन प्रश्नों का उत्तर नहीं आया तो उन्होंने उस पत्र को टोडरमलजी के पास जयपुर भेज दिया। तात्पर्य यह है कि न तो टोडरमलजी मुल्तानवालों को जानते थे और न मुल्तानवाले ही टोडरमलजी को जानते थे: पर जहानाबाद के लोग टोडरमलजी की विद्वत्ता से भलीभाँति परिचित थे। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि जिनसे पण्डितजी परिचित नहीं थे और जिनके द्वारा भेजे गये सभी प्रश्न भी इसप्रकार के नहीं थे कि जिसमें उनका ज्ञानीपन झलकता हो; फिर भी वे उन्हें अज्ञानीजनों जैसा संबोधित नहीं करते, उनके लिए सहजानन्द की वृद्धि की कामना करते हैं, जिसमें अप्रत्यक्षरूप से ज्ञानीपन झलकता है। आज की स्थिति तो यह है कि बड़े से बड़े विद्वान के लिये भी हम ऐसे शब्दों के प्रयोग से बचने का प्रयास करते हैं कि जिससे प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से उन्हें ज्ञानी न समझ लिया जाय । कुछ लोग तो प्रवचन और वाचन में भी भेद करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रवचन तो मात्र ज्ञानियों के ही होते हैं और अज्ञानीजनों का शास्त्रव्याख्यान करना उनकी दृष्टि में वाचन है। उनके द्वारा इस भेदव्यवहार का आधार क्या है? समझ में नहीं आता। इसप्रकार की प्रवृत्ति गुजरातियों में अधिक पाई जाती है। जबकि पहला प्रवचन गुजरात में तो नेताओं के राजनैतिक भाषणों को भी प्रवचन कहा जाता है। जो भी हो...। आप अपने मन में किसी को कुछ भी क्यों न समझें, पर साधर्मियों को परस्पर ऐसे वचन व्यवहार से अवश्य बचना चाहिए, जिनमें इसप्रकार का भेदभाव अभिव्यक्त होता हो। भाग्य की बात है कि आज हमारे पास पण्डित टोडरमलजी की रहस्यपूर्णचिट्ठी तो है; पर वह पत्र उपलब्ध नहीं है, जिसके उत्तर में यह चिट्ठी लिखी गई थी। __ यद्यपि हम यह नहीं जान सकते कि उसमें किसप्रकार के संबोधन थे; तथापि पण्डितजी के उत्तरों के आधार पर उन प्रश्नों का अनुमान तो कर ही सकते हैं, जिनके उत्तर इस रहस्यपूर्णचिट्ठी में हैं। ___हमारा कहना तो यह है कि पूर्णत: अपरिचित व्यक्तियों का; उनके पत्र के आधार पर, उनकी रुचि, योग्यता, जिज्ञासा और उनके ज्ञान का स्तर जानकर जिसप्रकार का पत्र लिखा गया है। उसके आधार पर हम वचनव्यवहार संबंधी मार्गदर्शन तो प्राप्त कर ही सकते हैं। पूज्य गुरुदेवश्री आध्यात्मिकसत्परुष कानजी स्वामी जीवन भर आत्मा के गीत गाते रहे, ४५ वर्ष तक लगातार एक आत्मा का स्वरूप ही समझाते रहे। हमने अनेक बार देखा है कि कुछ भी क्यों न हो, पर उन्होंने अपने प्रवचन के विषय को नहीं बदला। चैन्नई में पंचकल्याणक के अवसर पर गुरुदेवश्री का प्रवचन चल रहा था। सामने तमिलनाडु की जनता बैठी थी। उनमें से अधिकांश भाईबहिन हिन्दी-गुजराती से भी अपरिचित थे, जैनधर्म के सामान्यज्ञान से भी वंचित थे; पर गुरुदेवश्री बिना किसी विकल्प के दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का स्वरूप ही समझा रहे थे। एक बार तो हमें ऐसा लगा कि ये क्या कर रहे हैं ? इस सभा में तो सामान्य सदाचार की चर्चा करना चाहिए, सद्व्यवहार की प्रेरणा दी जानी चाहिए, णमोकार महामंत्र सुनाना चाहिए, उसका भाव समझाना चाहिए। क्या गुरुदेवश्री को....... । पर क्या करें, वे तो इसप्रकार की औपचारिकता से दूर ही रहें। चौबीस वर्ष की उम्र में स्थानकवासी सम्प्रदायPage Navigation
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