Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का जब्त कर लिया गया था। उस सामान की लिस्ट हमें प्राप्त हुई है। उस लिस्ट में जो-जो सामान लिखे गये हैं, उन्हें देखने से लगता है कि वे एक सम्पन्न गृहस्थ थे। उनके मकान में नौकर के सपरिवार रहने की व्यवस्था भी थी। नौकर के घर में प्राप्त सामान की भी लिस्ट बनाई गई थी, उस लिस्ट को देखने से लगता है कि वह लिस्ट भी ऐसी नहीं थी कि जिसे देखने पर ऐसा लगे कि वह साधन हीन था। ध्यान रहे, नौकर का सामान उसे वापिस दे दिया गया था। उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि समाज द्वारा की गयी व्यवस्था साधारण नहीं थी, अपितु पण्डितजी की गरिमा के अनुरूप थी। यह सब उचित ही था; क्योंकि गृहत्यागी ब्रह्मचारियों की व्यवस्था भी तो समाज करता ही है। उसमें तो समाज इस बात का भी ध्यान नहीं रखता कि उन त्यागी ब्रह्मचारियों के द्वारा धर्म व समाज की कुछ सेवा हो रही है या नहीं। जयपुर आने के बाद पण्डित टोडरमलजी ने आत्मानुशासन की टीका लिखी और मोक्षमार्गप्रकाशक आरंभ किया।जब मोक्षमार्गप्रकाशक का सातवाँ अधिकार लिखा जा रहा था, तभी बीच में पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की टीका भी आरंभ कर दी। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की टीका के मंगलाचरण में मोक्षमार्गप्रकाशक के सातवें अधिकार की छाया स्पष्टरूप से देखी जा सकती है। उनके असमय में निधन से मोक्षमार्गप्रकाशक और पुरुषार्थसिद्ध्युपाय टीका ह्न ये दोनों ही ग्रंथ अधूरे रह गये हैं। यह समाज का दुर्भाग्य ही समझो कि जब वे पूर्ण निश्चिन्त होकर जिनवाणी की सेवा में सम्पूर्णत: समर्पित हुए तो सामाजिक राजनीति के शिकार हो गये। ___ यदि वे अधिक काल तक हमारे बीच रह पाते तो उनके द्वारा जो काम होता, उसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है। पर जो काम वे कर गये हैं, वह भी कम नहीं है। यदि हम चाहें तो प्राप्त मोक्षमार्गप्रकाशक से सन्मार्ग प्राप्त कर सकते हैं। दूसरा प्रवचन पण्डितजी ने यह रहस्यपूर्णचिट्ठी विक्रम संवत् १८११ में लिखी थी। तब उनकी उम्र ३३-३४ वर्ष की रही होगी। यह तो स्पष्ट ही है कि उस समय वे इतनी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। तब भी उन्हें स्वानुभव की चर्चा करनेवालों की जयपुर में कमी लगती थी। ऐसी स्थिति में सिंघाणां में उन्हें इसप्रकार की चर्चा करनेवाला कौन मिला होगा? ___ तात्पर्य यह है कि उन्हें सिंघाणा जाने का विचार मात्र आजीविका के लिए आया होगा। गृहस्थ विद्वानों की यह मजबूरी है कि वे अपने रहने का स्थान और काम अपनी रुचि से नहीं चुन सकते। अत: उनके स्थान और काम को उनकी रुचि का द्योतक नहीं माना जा सकता। जिन लोगों ने आत्मकल्याण की भावना से ब्रह्मचर्य व्रत लिया है और बाप-दादों की सम्पत्ति से जीवन-यापन करने योग्य आर्थिक व्यवस्था, जिन्हें सहज ही उपलब्ध है; उन सौभाग्यशाली लोगों को तो ऐसा स्थान और ऐसा काम चुनना चाहिए कि जहाँ और जिसमें जिनवाणी के अध्ययन-अध्यापन की सुविधा हो। यदि जिनागम और परमागम का गहरा अध्ययन नहीं है तो ऐसा स्थान चुनना चाहिए, जहाँ उन्हें पढ़ानेवाले उपलब्ध हों; और काम भी ऐसा ही चुनना चाहिए कि जो जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में सहयोगी हो । ___ यदि वे स्वयं इतने योग्य हैं कि उन्हें किसी अन्य से पढ़ने की आवश्यकता नहीं है, वे स्वयं सबसे ऊपर हैं तो उन्हें ज्ञानदान (पढ़नेपढ़ाने) के काम में लगना चाहिए और ऐसे स्थान पर रहना चाहिए कि जहाँ उन्हें उनसे कुछ सीखने के सत्पात्र लोग उपलब्ध हों। यदि जिनवाणी की सेवा करने की पात्रता हो तो वह करना चाहिए। ___यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो समझना चाहिए कि उन्हें आत्मकल्याण की सच्ची रुचि नहीं है तथा जैन तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार में भी रस नहीं है। जिन कामों में कषायभाव की वृद्धि होती हो और जिन कामों में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह संग्रह ह्न पाँचों पापों की प्रवृत्ति सामान्य गृहस्थों के समान ही होती हो; उसमें ही उत्साहपूर्वक उलझे रहते हों तो फिर उनके ब्रह्मचर्य व्रत लेने का क्या लाभ है ?

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