Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 26
________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का कारण मिथ्यात्वादि ४१ प्रकृतियों के बंध के अभावरूप संवर व यथायोग्य निर्जरा भी निरंतर होती रहती है। सविकल्प अवस्था में या शुभाशुभभावों के काल में जो संवर-निर्जरा होते हैं, वे शुभाशुभभावों या शुभाशुभक्रिया से नहीं; अपितु उक्त शुद्धपरिणतिरूप अनुभव के कारण होते हैं; क्योंकि शुभाशुभभाव तो बंध के ही कारण हैं और शुभाशुभरूप शरीर की क्रिया, जड़ की क्रिया होने से न बंध का कारण है और न संवर-निर्जरा का ही कारण है। इसप्रकार हम देखते हैं कि अनुभव दो प्रकार का है। एक शुद्धोपयोगरूप या आत्मानुभूतिरूप अनुभव और दूसरा लब्धिज्ञान और शुद्धपरिणतिरूप अनुभव। दो प्रकार के अनुभव की चर्चा पहले प्रवचन में विस्तार से की जा चुकी है। अत: उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। ___ निचली अवस्था में आत्मानुभूतिरूप अनुभव तो निरंतर नहीं रहता, भूमिकानुसार कभी-कभी ही होता है; पर शुद्धपरिणतिरूप लब्धिरूप अनुभव तो सदा विद्यमान रहता ही है। भले ही ज्ञान के उपयोग में आत्मा कभी-कभी ज्ञेय बनता हो; तथापि लब्धिज्ञान में तो वह ज्ञानियों के सदा रहता ही है। इसप्रकार श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र में आत्मा ज्ञानी जीवों को सदा प्रगट ही रहता है। लब्धिज्ञान और शुद्धपरिणति भी प्रगट पर्यायरूप ही हैं, शक्तिरूप नहीं। हमारे जीवन में एक बार यह निर्णय हो गया कि ये मेरे पिताजी हैं; ये मेरी माँ है, ये मेरे भाई हैं तो फिर रोजाना इस बात को रटना नहीं पड़ता, सोचना नहीं पड़ता; यह सब बातें सदा ज्ञान-श्रद्धान में कायम ही रहती हैं; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा भी एक बार अनुभूतिपूर्वक ज्ञानश्रद्धान में आ जाता है तो फिर सोचे बिना ही वह श्रद्धा-ज्ञान में निरंतर रहता ही है। एक बार अनुभव में आ जाने की तो बात ही क्या करना; देवशास्त्र-गुरु के कथनानुसार भी जब एक बार निर्णय हो जाता है; तब भी तो यह बात हमारे घोलन का विषय बन जाती है। इसी के आधार पर चौथा प्रवचन प्रायोग्यलब्धि में विशेष आत्मरस का परिपाक होता है, इसी के बल पर करणलब्धि में प्रवेश होता है और अन्त में इसी के आधार पर आत्मानुभूति होती है, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति होती है। ___ अभी-अभी जो दो प्रकार के अनुभव की बात की थी; वह सम्यग्दृष्टि जीव की बात थी। अब जो बात कह रहे हैं; वह सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि की बात है। दिव्यध्वनि सुनकर, उसके मर्म को उद्घाटित करनेवाले शास्त्रों को पढ़कर, ज्ञानी गुरुओं के माध्यम से जानकर जो तत्त्वज्ञान होता है, आत्मज्ञान होता है; देशनालब्धि के आधार पर जो तत्त्वज्ञान-आत्मज्ञान होता है; उसमें भी तो भव्यजीवों की अटूट आस्था होती है, होनी चाहिए; अन्यथा उसके आधार पर आगे कैसे बढ़ा जायेगा ? ___ मैं भारिल्ल हूँ, आप कासलीवाल हैं, पाटनी हैं, गोधा हैं, गोदीका हैं; यह सब भी तो हमने अपने पूर्वजों से जाना है। उनके कथन में हमें पूरा विश्वास है और उसी के आधार पर हमारा सम्पूर्ण लौकिक व्यवहार चलता है। जिसप्रकार लौकिक प्रकरणों में हमारे पारिवारिक पूर्वजों की बात प्रामाणिक मानी जाती है; उसीप्रकार धार्मिक प्रकरण में हमारे धर्म पूर्वज प्रामाणिक हैं; देव-शास्त्र-गुरु प्रामाणिक हैं। तात्पर्य यह है कि देवशास्त्र-गुरु के माध्यम से सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्याटष्टि ने जो आत्मा का स्वरूप समझा है, वह भी प्रामाणिक है, सही है। बस बात मात्र इतनी ही है कि सम्यग्दर्शन होने के बाद के ज्ञान-श्रद्धान में जो बात है, वह इसमें नहीं है। सत्य होने पर जैसा सम्यक्पना उसमें है, वैसा इसमें नहीं है। अरे, भाई ! राजमार्ग तो यही है; अत: इसमें से तो गुजरना ही होगा। बहुत से लोग जिनवाणी के कथनों में शंका-आशंका व्यक्त करते हैं, उसके कथनों की उपेक्षा करते हैं; इसकारण उसके अध्ययन से होनेवाले लाभ से वंचित रहते हैं। अरे, भाई ! इस पंचमकाल में तो मुख्यरूप से जिनवाणी ही एक मात्र शरण है। उसकी उपेक्षा, उस पर आशंका हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी।

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