Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का समाधान ह्र जैसे कोई गुमाश्ता सेठ के कार्य में प्रवर्त्तता है, उस कार्य को अपना भी कहता है, हर्ष-विषाद को भी प्राप्त होता है, उस कार्य में प्रवर्त्तते हुए अपनी और सेठ की जुदाई का विचार नहीं करता; परन्तु अंतरंग श्रद्धान ऐसा है कि यह मेरा कार्य नहीं है। ऐसा कार्य करता गुमाश्ता साहूकार है। यदि वह सेठ के धन को चुराकर अपना माने तो गुमाश्ता चोर होय। उसीप्रकार कर्मोदयजनित शुभाशभरूप कार्य को करता हआ तद्रुप परिणमित हो; तथापि अंतरंग में ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा नहीं है। यदि शरीराश्रित व्रत-संयम को भी अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होय । सो ऐसे सविकल्प परिणाम होते हैं।" सविकल्प परिणामों के संदर्भ में पण्डितजी का कहना है कि शुभाशुभ भावों में प्रवृत्ति ही सविकल्प परिणाम है और शुद्धोपयोगरूपदशा ही निर्विकल्प परिणाम हैं। पण्डितजी के उक्त कथन में अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है कि जो परिणाम विषय-कषायादिरूप हों या पूजा, दान, शास्त्राभ्यासरूप हों; वे सभी परिणाम सविकल्प परिणाम हैं। सम्यग्दृष्टि जीवों के चौथे गुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थान तक ये सविकल्प परिणाम पाये जाते हैं। इन सविकल्प परिणामों अर्थात् शुभाशुभभावों के काल में सम्यग्दर्शन का अस्तित्व कैसे रहता है ह्र इस बात को स्पष्ट करने के लिए पण्डितजी मुनीम का उदाहरण देते हैं। मुनीम का अर्थ यहाँ मात्र हिसाब-किताब लिखनेवाला क्लर्क नहीं है, अपितु मैनेजर है; क्योंकि उस जमाने में सेठ लोग अनेक गाँवों में अपनी दुकानें या व्यापारिक कार्यालय खोल देते थे। एक व्यक्ति को उसका सम्पूर्ण भार संभला देते थे। वह एकप्रकार से वर्किंग पार्टनर होता था और दैनंदिन कार्य संबंधी सभी निर्णय लेने का अधिकार उसे रहता था। उसके आधीन अनेक कर्मचारी रहते थे। उसका सम्पूर्ण व्यवहार सेठ जैसा ही रहता था। जिस गुमाश्ता (मुनीम) का उदाहरण पण्डितजी ने दिया है; उसका १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४२ तीसरा प्रवचन स्वरूप उन्होंने स्वयं ही स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं कि जो सेठ की ओर से सेठ का कार्य करता हुआ, उस कार्य को अपना कार्य कहता है, लाभहानि होने पर हर्ष-विषाद को भी प्राप्त होता है, उस कार्य को करते समय स्वयं और सेठ के बीच की भिन्नता का विचार भी नहीं करता, पूरे अधिकार से बात करता है; पर उसके अंतरंग में श्रद्धा के स्तर पर ऐसा ज्ञान वर्तता रहता है कि यह सबकुछ मेरा नहीं है। पण्डितजी कहते हैं कि ऐसी परिणतिवाला गुमाश्ता साहूकार है। यहाँ गुमाश्ता साहूकार का अर्थ मुनीम और सेठ नहीं है, अपितु साहूकार गुमाश्ता अर्थात् ईमानदार विश्वसनीय मुनीम है। पण्डितजी कहते हैं कि यदि वह जैसा बोल रहा है; उसीप्रकार सचमुच मान ले तो वह साहूकार नहीं, चोर है। तात्पर्य यह है कि वह गुमाश्ता साहूकार नहीं है अर्थात् ईमानदार मुनीम नहीं है। इसीप्रकार विषय-कषाय और शुभभावों में वर्तता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव उस समय उन भावोंरूप ही परिणमित होता है और तदनुसार भूमिकानुसार पाप-पुण्य का बंध भी करता है; तथापि उसकी श्रद्धा निरंतर ऐसी ही बनी रहती है कि यह मेरा कार्य नहीं है; क्योंकि यदि वह शरीराश्रित उपवासादि और उपदेशादि को भी अपना कार्य माने तो सम्यग्दर्शन कायम नहीं रह सकता। इसप्रकार सम्यग्दृष्टि जीवों के शुभाशुभभावों के काल में भी सम्यग्दर्शन कायम रहता है। 'सविकल्प अवस्था में, विशेष कर युद्ध और भोग के काल में सम्यग्दर्शन कैसे कायम रहता है ?' ह्न ऐसा प्रश्न खड़ा ही क्यों हो रहा है ? अरे, भाई ! बात यह है कि जगतजनों को सम्यग्दष्टि भी विषयभोगों में और युद्धादि में मिथ्यादृष्टियों के समान ही उलझे दिखाई देते हैं। उसने शास्त्रों में जो सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों के चरित्र पढ़े हैं। उनमें भी यही देखा है कि सम्यग्दृष्टि लोग भी भोगों में रत हैं, लड़ रहे हैं, झगड़ रहे हैं। अत: यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है। अज्ञानीजन आत्मानुभूति और सम्यग्दर्शन को एक ही समझते हैं; इसकारण भी ऐसा प्रश्न उपस्थित होता है।

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