Book Title: Rahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Author(s): 
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 23
________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का यद्यपि वह अभी अपनी लड़की का पति नहीं है; अत: उनमें परस्पर पति-पत्नी का व्यवहार भी संभव नहीं है; तथापि हम उसका जमाई जैसा ही सम्मान करते हैं, उससे जमाई जैसा ही व्यवहार करते हैं; पर वह व्यवहार वास्तविक व्यवहार नहीं है, वास्तविक व्यवहार तो तभी होगा, जब हमारी लड़की के साथ उसके सात फेरे पड़ जावेंगे। छठवें फेरे तक जो व्यवहार है, वह एक प्रकार से ऊपरी ऊपरी ही है, व्यवहाराभास है; पर नासमझ लोग उसे व्यवहार ही समझते हैं। ४४ इसीप्रकार यद्यपि आत्मानुभूतिपूर्वक समयग्दर्शन की उपलब्धि होने पूर्व देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा-भक्ति का व्यवहार देखा जाता है, पर वह वास्तविक व्यवहारसम्यग्दर्शन नहीं है। वास्तविक व्यवहारसम्यग्दर्शन तो निश्चयसम्यग्दर्शन के होने के साथ ही प्रगट होता है। माँ के बेटा पैदा हुए बिना दादी का पोता कैसे हो सकता है ? उसी प्रकार निश्चयसम्यग्दर्शन के बिना व्यवहारसम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है ? यह संक्षेप में सम्यग्दर्शन की बात हुई; अब सम्यग्ज्ञान की बात करते हैं। उक्त संदर्भ में पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं " तथा ऐसा सम्यक्त्वी होने पर जो ज्ञान पंचेन्द्रिय व छट्ठे मन के द्वारा क्षयोपशमरूप मिथ्यात्वदशा में कुमति - कुश्रुतिरूप हो रहा था, वही ज्ञान अब मति - श्रुतरूप सम्यग्ज्ञान हुआ । सम्यक्त्वी जितना कुछ जाने वह जानना सर्व सम्यग्ज्ञानरूप है । यदि कदाचित् घट-पटादिक पदार्थों को अयथार्थ भी जाने तो वह आवरणजनित औदयिक अज्ञानभाव है। जो क्षयोपशमरूप प्रगट ज्ञान है, वह तो सर्व सम्यग्ज्ञान ही है; क्योंकि जानने में विपरीतरूप पदार्थों को नहीं साधता । सो यह सम्यग्ज्ञान केवलज्ञान का अंश है; जैसे थोड़ा-सा मेघपटल विलय होने पर कुछ प्रकाश प्रगट होता है, वह सर्व प्रकाश का अंश है। जो ज्ञान मति श्रुतरूप हो प्रवर्त्तता है, वही ज्ञान बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञानरूप होता है; सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा तो जाति एक है।" १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४२ तीसरा प्रवचन ४५ यद्यपि मिथ्यात्व अवस्था में देव गुरु के उपदेश एवं जिनवाणी के स्वाध्याय के माध्यम से जो तत्त्वज्ञान होता है, स्व-पर भेदविज्ञान होता है, त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का स्वरूप समझ में आता है; वह सब परम सत्य होने पर भी जबतक आत्मानुभूतिपूर्वक सम्यग्दर्शन नहीं हो जाता, तबतक सम्यग्ज्ञान नाम नहीं पाता; क्योंकि ज्ञान का सम्यक्पना सम्यग्दर्शन के आधार पर सुनिश्चित होता है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि का सम्पूर्ण ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि का सम्पूर्ण ज्ञान मिथ्याज्ञान है। इसप्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान का सम्यक्पना सत्यता के आधार पर नहीं, सम्यग्दर्शन के आधार पर है। महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि जिसप्रकार पागल माता को माता कहे, तब भी उसका ज्ञान सम्यक् नहीं; क्योंकि वह माता का स्वरूप नहीं जानता। इसीप्रकार वस्तुस्वरूप से अनभिज्ञ होने से मिथ्यादृष्टि का आत्मा को आत्मा और पर को पर कहनेवाला ज्ञान भी मिथ्या ही है। प्रयोजनभूत लौकिक वस्तुओं के बारे में ज्ञानी जीव भले ही असत्य जाने, पर ज्ञानी के तत्संबंधी ज्ञान को औदयिक अज्ञान तो कह सकते हैं, पर क्षायोपशमिक अज्ञान नहीं; क्योंकि क्षायोपशमिक अज्ञान तो मिथ्याज्ञान का नाम है। सम्यग्दृष्टि का सभी क्षायोपशमिक ज्ञान सम्यग्ज्ञान ही है। पण्डितजी तो यहाँ तक कहते हैं कि वह केवलज्ञान का अंश है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि के मति श्रुतज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान की और केवलज्ञानी के केवलज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान की जाति एक है। इसके बाद पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं ह्र " तथा इस सम्यक्त्वी के परिणाम सविकल्प तथा निर्विकल्परूप होकर दो प्रकार प्रवर्त्तते हैं। वहाँ जो परिणाम विषय-कषायादिरूप व पूजा, दान, शास्त्राभ्यासादिकरूप प्रवर्त्तता है, उसे सविकल्प जानना । यहाँ प्रश्न ह्न शुभाशुभरूप परिणमित होते हुए सम्यक्त्व का अस्तित्व कैसे पाया जाय ? १. आचार्य उमास्वामी : तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र ३२

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