Book Title: Pujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan Author(s): Prabha Kumari Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 6
________________ जं. व्या० अष्टा० चा व्या० ५. तदस्मिन्युद्धयोद्धृ संग्रामे प्रयोजन योद्धृप्रयोजनात् प्रयोजनात्, ३/२/४८. योद्धृभ्य: ४/२/५६. संग्राम, ३/१/३४. ६. दृश्यर्थश्चिन्तायाम्, ५/३/२१. पश्यार्थश्चानालोचने, ८/१/२५. दृश्यर्थे जालोच ने, ६/३/२३. यथातथयथापुरयोः क्रमेण, यथातथयथापुरयोः ५./२/३५. पर्यायेण, ७/३/३१ ८. सस्थानक्रियं स्वम्, तुल्यास्यप्रयत्न १/१/२. सवर्णम्, १/१/8 २. सिद्धौ भा. १/४/५. अपवर्ग तृतीया,, २/३/६ १०. स्पर्धे परम , १/२/१०. विप्रतिषेधे परं कार्यम् , १/४/२ विप्रतिषेधे, १/१/१६. ११. संस्कृत वैयाकरणों ने अर्धमात्रा लाघव को अत्यन्त महत्त्व दिया है। इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए पूज्यपाद देव नन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण में अनेक ऐसे सूत्रों को प्रस्तुत किया है जो कि अष्टाध्यायी एवं चान्द्र-व्याकरण के सूत्रों से भी अधिक संक्षिप्त प्रतीत होते हैं । संक्षेपण के इस प्रयास में अष्टाध्यायी एवं चान्द्र-व्याकरण के सूत्रों में विद्यमान बहुवचन के स्थान पर पूज्यपाद देवनन्दी ने जनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में एकवचन का प्रयोग किया है । संक्षिप्त-सूत्रों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं जै० व्या अष्टा० चा० व्या० १. अर्श आदेरः, ४/१/५०. अशआदिभ्योऽच्, ५/२/१२७. अर्श आदिभ्योऽच्, ४/२/४७. २. इष्टादे., ४/१/२२. इष्टादिभ्यश्च, ५/२/८८. इष्टादिभ्यः, ४/२/६४. ३. उगवादेर्यः, ३/४/२. उगवादिभ्यो यत्, ५/१/२. उगवादिभ्यो यत्, ४/१/२. ४. कण्ड्वादेर्यक्, २/९/२५. कण्ड्वादिभ्यो यक्, ३/१/२७. कण्ड्वादिभ्यो यक्, १/१/३६. ५. छेदादेनित्यम्, ३/४/६२. छेदादिभ्यो नित्यम्, ५/१/६४. छेदादिभ्यो नित्यम्, ४/१/७५. ६. प्रज्ञादेः, ४/२/४४. प्रज्ञादिभ्यश्च, ५/४/३८. प्रज्ञादिभ्यो वा, ४/४/२२. ७. शाखादेर्यः, ५/१/१५७. शाखादिभ्यो यत्, ५/३/१०३. शाखादिभ्यो यः ४/३/८१. ८. सिध्मादेः, ४/१/२५. सिध्मादिभ्यश्च, ५/२/६७. सिध्मादिभ्य: ४/०/१०० १. सुखादेः, ४१/५४. सुखादिभ्यश्च, ५/२/१३१ सुखादिभ्यः, ४/२/१२८. १०. हविरपुपादेर्वा, ३/४/३. विभाषा हविरपूपादिभ्यः ५/१/४ वा हविर्यपादिभ्यः, ४/१/३. अनेन्द्र -व्याकरण को टोकाएँ पूज्यपाद देवनन्दी-कृत जैनेन्द्र-व्याकरण पर अनेक विद्वानों ने टीकाओं की रचना की है। श्रुतकीर्ति (१२वीं शताब्दी ई.) द्वारा रचित पंचवस्तु प्रक्रिया के अन्त में जैनेन्द्र -व्याकरण की एक विशाल राजमहल से उपमा दी गई है और उसी प्रसंग में १२वीं शताब्दी ई. तक जैनेन्द्र-व्याकरण पर लिखे गए न्यास, भाष्य, वृत्ति, टीका आदि की ओर भी निर्देश किया गया है । जैनेन्द्र-व्याकरण के दोनों सूत्रपाठों (लघु पाठ एवं बृहत-पाठ) पर टीकाओं की रचना की गई जिनमें से कुछ टीकाएं सम्प्रति उपलब्ध हैं तथा कुछ अनुपलब्ध हैं। टीकाओं का विवरण इस प्रकार है उपलब्ध टोकाएं-(लघुपाठ की टीकाएँ) १. अर्धमानालाधवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः ॥१२२॥ नागोजीभट्ट , परिभाषेन्दु मेखर,प्र० भा०, सम्पा०के० वी० अभ्यंकर, पूरा, १६६२, पृ० १९८. २. मुत्रस्तम्भसमुदघृत प्रविलसन न्यासोरुरत्नक्षितिथीमत्तिकपाटसंपुटयुत भाष्योऽथ शय्यातलम् । टीकामासमिहारुरु रचित जैनेन्द्रशब्दागम प्रासाद पृथुपंचवस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् ॥ प्रेमी, नाथूराम, जै० सा० इ०, पृ० ३३ पर उद्धृत आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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