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पूज्यपाद देवनन्दी का सस्कृत-व्याकरण को योगदान
-डा. प्रभा कुमारी
पाणिनि के परवर्ती वैयाकरणों में जैन विद्वानों की प्रधानता रही है। जैनाचार्यों द्वारा रचित व्याकरण-ग्रन्थों में चार व्याकरण ग्रन्थ प्रमुख हैं
१. जैनेन्द्र-व्याकरण २. शाकटायन-व्याकरण ३. सिद्धहैम-शब्दानुशासन ४. मलयगिरि-शब्दानुशासन
जैनाचार्यों द्वारा रचित उपलब्ध व्याकरण-ग्रन्थों में काल की दृष्टि से जैनेन्द्र-व्याकरण सर्वप्रथम है। इस व्याकरण ग्रन्थ के रचयिता पूज्यपाद देवनन्दी हैं । वे कर्नाटक के निवासी थे।' उनका समय ईसा की ५ वीं शताब्दी है। जैन सम्प्रदाय के विद्वान को कृति होने के कारण जैन सम्प्रदाय मे तो जैनेन्द्र-व्याकरण की प्रसिद्धि थी ही, साथ ही अन्य धर्मानुयायी विद्वानों ने भी इस ग्रन्थ के कर्ता का आदरपूर्वक स्मरण किया है । मुग्धबोध के रचयिता बोपदेव (१३ वीं शताब्दी ई.) ने उनको पाणिनि आदि महान् वैयाकरणों की कोटि में रखा है
इन्द्रश्चन्द्र: काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजनेन्द्रा जयन्त्यष्टादिशान्दिकाः ॥' उनके द्वरा रचित यह श्लोक १३वीं शताब्दी ई० में पूज्यपाद देवनन्दी की ख्याति का परिचायक है। पूज्यपाद देवनन्दो-कृत व्याकरण विषयक रचनाएं
जनेन्द्र-व्याकरण के अतिरिक्त पूज्यपाद देवनन्दी ने उस पर जैनेन्द्र-न्यास की रचना की जो सम्प्रति अनुपलब्ध है। पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने पज्यपाद देवनन्दी द्वारा रचे गए व्याकरण-विषयक ग्रन्थों का उल्लेख किया है, जिनके नाम इस प्रकार हैं
.. धातुपाठमूल २. धातुपारायण ३. गणपाठ ४. उणादिसूत्र ५. लिङ गानुशासन ६. लिङ गान शासन-व्याख्या
१. प्रेमी, नाथूराम, जैन साहित्य और इतिहास, बम्बई, १९५६, पृष्ठ ५०-५१. उपाध्याय, बलदेव, संस्कृत शास्त्रों का इतिहास, वाराणसी, १९६६,
प. ५७७-५७८. शर्मा, एस० पार०, जैनिज्म एन्ड कर्नाटक कल्चर, धारवार, १६४०.१० ७२. २. पाठक, के०बी०; जैन शाकटायन कन्टम्परेरी विद अमोघवर्ष-1, इन्डियन एन्टीक्वेरी, बण्ड ४३. बम्बई, १९१४.१० २१०-२११. अभ्यंकर, के.बी.,ए डिक्शनरी प्रॉफ सम्कृत ग्रामर, बड़ौदा, १९६१.५० १५०.बेल्वाल्कर, एम. के. सिस्टम्स प्रॉफ संस्कृत ग्रामर, भारतीय विद्या प्रकाशन, १९७६,१० ५३. अग्रवाल, वासुदेवशरण, जैनेन्द्र महावृति, सम्पा० शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १९५६, भूमिका, पृ०७ शास्त्री, महामहोपाध्याय, हरप्रसाद ए डेस्किप्टिव के टेलग प्रॉफ द संस्कृत मनस्क्रिप्टम, ब०६. कलकत्ता, १९६१, प्राक्कथन. १०५२ मीमांसक, युधिष्ठिर, सस्कृत-व्याकरण शास्त्र का इतिहास,
प्रथम भाग, हरयाणा, विक्रम संवत्, २०३०, पृ० ४४६-- ४५१. ३. बोपदेव, कविकल्पद्र म, सम्पा० गजानन बालकृष्ण पल मुले, पूना १९५४, पृ०१. ४. मीमांसक, युधिष्ठिर, ज०म.व. भूमिका, पृ० ५१. जैन प्राज्य विद्याएं
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७. वात्तिक-पाठ ८. परिभाषापाठ, और
६. शिक्षा सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण का परिमाण, संस्करण तथा स्वरूप
जैनाचार्यों द्वारा रचित उपलब्ध व्याकरण-ग्रन्थों में जनेन्द्र-व्याकरण सबसे प्राचीन है। इस व्याकरण के दो प्रकार के सूत्रपाठ उपलब्ध होते हैं
१. लघुपाठ (औदीच्य संस्करण) २. बृहत्-पाठ (दाक्षिणात्य संस्करण)
लघुपाठ ही मूल सूत्रपाठ है तथा इसके रचयिता पूज्यपाद देवनन्दी है। इस लघु सूत्रपाठ में ५ अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में ४ पाद हैं। इन २० पादों में ३०६३ सूत्र हैं। लघुपाठ पर अभयनन्दी ने महावृत्ति की रचना की है, जो भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित हुई है। इस सूत्रपाठ पर श्रुतकीर्ति ने पंचवस्तु नामक प्रक्रिया लिखी।
जैनेन्द्र-व्याकरण की रचना के लगभग ५०० वर्ष पश्चात गुणनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण के मूल सूत्रपाठ को परिवर्तित एव परिवधित करके बहत-पाठ का रूप दिया जिसमें ३७०० सत्र हैं। इस सूत्रपाठ पर सोमदेवमुनि ने शब्दार्णवचन्द्रिका (१२०५ ई०) नामक टीका की रचना की तथा इस बहत् पाठ पर किसी अज्ञातनामा लेखक द्वारा रची गई शब्दार्णव-प्रक्रिया भी उपलब्ध है।
पूज्यपाद देवनन्दी का मूल उद्देश्य जैन मतानुयायियों को अपने व्याकरण-ग्रन्थ के माध्यम से संस्कृत-भाषा का शब्द प्रयोग सिखाना था। जैन मतानुयायियों के लिए वैदिक भाषा तथा स्वर-सम्बन्धी नियमों का अनुशासन आवश्यक न था। यही कारण है कि जैनेन्द्र-व्याकरण में उपयुक्त नियमों का अभाव है। उन्होंने कृत्य प्रत्ययों के अन्तर्गत छांदस प्रयोगों को भी लौकिक मानकर सिद्ध किया है। इस व्याकरण-ग्रन्थ में जैनेन्द्र महावृत्ति के अन्तर्गत निर्दिष्ट वात्तिकों की संख्या ४६१ है।
पज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण में अपने से पर्ववर्ती श्रीदत्त,' यशोभद्र, भूत बलि,' प्रभाचन्द्र' सिद्धसेन' तथा समन्तभद्र नाम के छः आचार्यों के मतों को उद्धृत करते हुए उनका नामोल्लेखपूर्वक स्मरण किया है। यह व्याकरण-ग्रन्थ अष्टाध्यायी के आधार पर रचित एक लक्षण-ग्रन्थ है । इस व्याकरण-ग्रन्थ में सिद्धान्तकौमुदी तथा इसी प्रकार के अन्य ग्रन्थों जैसा सूत्रों का प्रकरणानुसारी वर्गीकरण उपलब्ध नहीं होता है। प्रत्येक प्रकरण के सूत्र सम्पूर्ण व्याकरण-ग्रन्थ में बिखरे हुए हैं। जैनेन्द्र-व्याकरण के स्वतन्त्र व्याकरण-ग्रन्थ होने पर भी पूज्यपाद देवनन्दी ने इस ग्रन्थ में पाणिनीय सूत्रों की रक्षा का पूर्ण प्रयत्न किया है और इसमें वे अधिकतर सफल भी हुए हैं । पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी का अनुकरण करते हुए भी सूत्रों में अपेक्षाकृत संक्षिप्तता, सरलता एवं मौलिकता लाने का प्रयास किया है। एकशेष प्रकरण से सम्बद्ध सूत्रों का इस व्याकरण-ग्रन्थ में सर्वथा अभाव है। जैनेन्द्र-व्याकरण के अधिकतर सूत्र अष्टाध्यायी के आधार पर लिखे गए हैं। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार "देवनन्दी ने अपनी पंचाध्यायी में पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रक्रम में कम से कम फेरफार करके उसे जैसे का तैसा रहने दिया है। केवल सूत्रों के शब्दों में जहाँ-तहाँ परिवर्तन करके सन्तोष कर लिया है।"८ जैनेन्द्र व्याकरण में अनेक ऐसे सूत्र विद्यमान हैं जो अष्टाध्यायी के एक सूत्र के दो भान करके व्याकरण में समाविष्ट किए गए हैं। इस प्रकार की विधि का प्रयोग करके पूज्यपाद देवनन्दी ने सूत्रों को सरल एवं स्पष्ट कर दिया है। कहीं-कहीं पर अष्टाध्यायी के दो या दो से अधिक सूत्रों का एक सूत्र में समावेश करने की प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर होती है, जैसा कि निम्न तालिका से स्पष्ट है
१. गुणे श्रीदत्तस्याऽस्त्रियाम्, जैनेन्द्र व्याकरण १/४/३४. २. क वृषिभूजा यशोभद्रस्य, वही, २/१/६६. ३. राद् भूतबले:, वही ३/४/८३. ४. रात:कति प्रभाचन्द्रस्य, वही, ४/३/१८०. ५. वेत्ते: सिद्धसेनस्य, वहो, ५/१/७... ६. चतुष्टयं समन्तभद्रस्य, वही, ५/४/१४०. ७. स्वाभाविकत्वादभिधानस्यकशेषानारम्भः, ज० व्या० १/१/१००. ८. अन्नवाल, वासुदेवशरण, जै० म० ३०, भूमिका, पृ० १२.
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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अष्टा०
एङ, ह्रस्वात्सम्बुद्धेः, ६/१/६९
क्ष ययजय्यो शक्यार्थे, ६/१/८१
१. एक सूत्र के दो भाग
० व्या० १. केरेङः, ४/३/५७.
प्रात्, ४३/५८. क्षिज्योः , ४/३/६८
शक्ती , ४/३/६६ ३. ज्ञः, १/२/५३.
नानोः, १/२/५४ टिदादिः, १/१/५३.
किदन्तः, १/१/५४. ५. परिमाणाद्धदुपि, ३/१/२६
न बिस्ताचितकम्बल्यात्, ३/१/२७.
नानोज़ , १/३/५८.
आद्यन्तौ टकितौ, १/१/४६.
अपरिमाणबिस्ताचितकम्बल्येभ्यो न तद्धित लुकि, ४/१/२२
२. दो सूत्रों का एक सूत्रजै० व्या०
अष्टा० १. ईकेत्यव्यवाये पूर्वपरयोः, १/१/६०.
तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य, १/२/६६.
तस्मादित्युत्तरस्य, १/१/६७. २. प्रमाणासत्त्योः , २/४/३६.
समासत्तौ, ३/४/५०.
प्रमाणे च, ३/४/५१. भक्ष्यान्नाभ्यांमिश्रणव्यञ्जने, १/३/३०.
अन्नेन व्यञ्जनम्, २/१/३४.
भक्ष्येण मिश्रीकरणम्, २/१/३५. ४. भूषाऽपरिग्रहेऽलमन्तः, १/२/१३५.
भूषणेऽलम्, १/४/६४.
अन्तरपरिग्रहे, १/४/६५. ५. यावद्यथावधृत्यसादृश्ये, १/३/६.
यथाऽसादृश्ये, २/१/७.
यावदवधारणे, २/१/८. ३. जैनेन्द्र-व्याकरण में कहीं-कहीं पर वात्तिकों का ही प्रयोग किया है एवं कहीं-कहीं पर कात्यायन के वात्तिकों को सूत्र रूप
में परिवर्तित कर दिया है। इस संदर्भ में निम्नलिखित सूत्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं :
व्या १. किरतेहर्षजीविकाकुलायकरणे १/२/३३.
२. कृति, १/३/७१.
अष्टा किरतेहर्षजीविकाकुलायकरणेष्विति वक्तव्यम् १/३/२१ वा०. कृद्योगा च षष्ठी समस्यत इति वक्तव्यम्, २/२/८ वा०. अच्प्रकरणे शक्तिलांगलांकुशयष्टितोमरघटघटीधनुष्षु ग्रहेरुपसंख्यानम्, ३/२/६ वा.. प्रतिपदविधाना च षष्ठी न समस्यत इति वक्तव्यम्, २/२/१० वा.
३. ग्रहेरः, २/२/१३.
४. न प्रतिपदम्, १/३/७३.
जैन प्राच्य विद्याएं
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जं० व्या०
५. श्वाश्मचर्मणां सङ कोचविकारकोशेषु, ४/४/१३२.
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४. कभी-कभी पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी के सूत्र और उस पर कात्यायन द्वारा रचित वार्तिक को मिलाकर एक नए सूत्र का रूप दिया है :
७.
जं० व्या०
१. परस्परान्योन्येतरेतरे, १/२/१०.
२. पूर्वावरसदृशकलह निपुण मिश्रश्लक्ष्णसमैः, १/३/२८.
३. मध्यान्ताद्गुरौ ४ / ३ / १३०.
४. रुजर्थस्य भाववाचिनोऽज्वरिसन्ताप्योः, १/४/६१.
या निष्कषोषमिश्ररन्दे ४/३/१६७.
५.
मिश ६ / ३ / ५६.
निष्के वेति वक्तव्यम् ६ / ३ / ५६ वा०.
५. अष्टाध्यायी में अनेक ऐसे शब्द हैं जिनकी सिद्धि के लिए पाणिनि ने नियमों का विधान किया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने उनमें से शब्दों को निपातन से सिद्ध माना है । जैसे—
कुछ
जं०
० व्या०
१. कर्मठ: ३/४/१५६
२. पत्नी ३/१/३३
३. भूयहत्ये, २/१/६०.
४. सब्रहाचारी, ४/३/१९३
५. स्थाण्डिलः, ३/२/१०.
अश्मनो विकार उपसंख्यानम्,
चर्मणः कोश उपसंख्यानम्,
शुनः संकोच उपसंख्यानम् ६/४/१४४ वा०
पाणिनि ने जिन शब्दों को निपातन से सिद्ध माना है उनमें से कुछ और उनके लिए विस्तृत सूत्रों का उल्लेख किया है। जैसे
जं० व्या०
१. दण्डहरितनो फे, ४/४/१६४. जामिन फे, ४/४/१६५. २. बस्सदिलो वसूलिमम् २/२/००.
अष्टा०
अष्टा०
इतरेतरान्योन्योपपदाच्च १ / २ /१६. परस्परोपपदादेति वक्तव्यम् १/३/१६ वा०.
पूर्व सदृशसमोनार्थ कल हनिपुण मिश्र श्लक्ष्णै:, २/१/३१. पूर्वादिष्ववरस्योपसंख्यानम्, २/१/३१ वा०. मध्याद्गुरौ, ६ / ३ / ११.
अन्ताच्चेति वक्तव्यम् ६/३/११ वा०.
रुजायनां भाववचनानामज्वरे २/३/५४. अज्वरिसंताप्योरिति वक्तव्यम्, २/३/५४ वा०.
अष्टा०
कर्मणि घटो १/२/३५
४/१/२२.
भुवो भावे,
३/१/१०७.
हनस्त च ३/१/१०८.
चरणे ब्रह्मचारिणी. ६/३/२६स्थण्डिलाच्छवितरि व्रते, ४/२/१५
शब्दों को पूज्यपाद देवनन्दी ने नियमानुकूल माना है
३. सोः प्रातदिवाश्वसः, ४/२/१२०.
चतुश्शारेरस्रिकुक्षे:, ४/२/१२२
किसी
अष्टाध्यायी के अनेक सूत्रों को तो पूज्यपाद देवनन्दी ने बिना किया है और इस प्रकार अष्टाध्यायी के सूत्रों की अविकल रक्षा की है।
भ्रष्टा०
दाण्डिनायनहास्तिनायना वणिकर्जह्माशिनेववासिनायनिश्रौणहत्यधैवत्यसारर्वक्ष्वाकमैत्रेयहिरण्य मयानि ६/४/१७४. उपेयिवाननाश्वाननूचानश्च ३/२/१०१.
सुप्रातसुश्व सुदिवशारिकुक्षचतुरश्रेणीपदाजपदप्रोष्ठपदा, ५ / ४ / १२०.
परिवर्तन के अपने व्याकरण-ग्रन्थ में समाविष्ट जैसे -
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जं. म्या०
भष्टा० १. ऋत्यकः, ४/३/१०५.
ऋत्यकः, ६/१/१२८. २. एङि पररूपम्, ४/३/८१.
एङि पररूपम्, ६/१/९४. ३. एचोऽयवायावः, ४/३/६६.
एचोऽयवायावः, ६/१/७८. ४. झलां जश् झशि, ५/४/१२८.
झलां जश् झशि, ८/४/५३. ५. समर्थः पदविधिः, १/३/१.
समर्थः पदविधिः, २/१/१. ८. अष्टाध्यायी के अनेक सूत्रों का पूज्यपाद देवनन्दी ने किंचिद् परिवर्तन के साथ जैनेन्द्र-व्याकरण में समावेश किया है।
जैसे
अष्टा०
जै० व्या०
अष्टा० १. अन्तेऽलः, १/१/४६.
अलोऽन्त्यस्य, १/१/५२. २. इड्विजः, १/१/७६.
विज इट, १/२/२. ३. परस्यादेः, १/१/५१.
आदेः परस्य, १/१/५४. ४. प्रसहनेऽधेः, १/२/२८.
अधेः प्रसहने, १/३//३३. ५. वसोऽनूपाध्याङः, १/२/११८.
उपान्वध्याङ वसः १/४/४८. पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण में बीजाक्षरी संज्ञाओं का प्रयोग किया है। इन संज्ञाओं के प्रयोग का प्रभाव जैनेन्द्र-व्याकरण के अधिकांश सूत्रों पर पड़ा है। जिस प्रकार माहेश्वर सूत्रों के ज्ञान के बिना अष्टाध्यायी के सूत्रों को समझना दुरूह है उसी प्रकार जैनेन्द्र-व्याकरण की बीजाक्षरी संज्ञाओं के ज्ञान के बिना जनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों कों समझ पाना अत्यन्त कठिन है। निम्नलिखित उदाहरणों से यह सुस्पष्ट है
जै० व्या० १. कृद्धृत्साः , १/१/६.
कृत्तद्धितसमासाश्च, १/२/४६. २. खौ, /३/३८.
संज्ञायाम, २/१/४४. ३. गोऽपित्, १/१/७८.
सार्वधातुकमपित्, १/२/४ ४. तः, १/३/१०२.
निष्ठा, २/२/३६. ५. धेः, १/२/२१.
अकर्मकाच्च, १/३/२६. ६. न धुखेऽगे, १/१/१८.
न धातुलोप आर्धधातुके १/१/४. ७. न बे, १/१/३७.
न बहुव्रीही, १/१/२६. ८. भार्थे, १/४/१४.
तृतीयार्थे, १/४/८५. १. वागमिङ, १/३/८२.
उपपदमतिङ, २/२/१६ १०. वा गौ, १/४/६६.
विभाषोपसर्ग, २/३/५६. १०. पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी का अनुकरण करते हुए भी कुछ सूत्रों में मौलिकता लाने का प्रयत्न किया है ।
इसके लिए उन्होंने सूत्रों में कहीं पर सरल एवं कहीं पर संक्षिप्त पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है। ऐसा करने से सूत्र सहजगम्य एवं संक्षिप्त बन गए हैं। उदाहरणस्वरूपज० व्या अष्टा
चा व्या० अद्री त्रिककुद् ४/२/१४७. विककुत्पर्वते, ५/४/१४८७. त्रिककुतनपर्वते, ४/४/१३५. २. अधीत्याऽदूराख्यानाम् १/४/८१. अध्ययनतोऽविप्रकृष्टाख्या
सन्निकृष्ट पाठानाम, नाम, २/४/५.
२/२/५२, ३.. काला मेयैः, १/३/६७.
कालाः परिमाणिना, २/२/५. ४. क्षुद्रजीवाः, १/४/८४.
शुजन्तवः, २/४/८.
क्षुद्रजन्तूनाम्, २/२/६० जन प्राच्य विधाएं
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जं. व्या० अष्टा०
चा व्या० ५. तदस्मिन्युद्धयोद्धृ
संग्रामे प्रयोजन
योद्धृप्रयोजनात् प्रयोजनात्, ३/२/४८. योद्धृभ्य: ४/२/५६.
संग्राम, ३/१/३४. ६. दृश्यर्थश्चिन्तायाम्, ५/३/२१. पश्यार्थश्चानालोचने, ८/१/२५. दृश्यर्थे जालोच ने, ६/३/२३. यथातथयथापुरयोः क्रमेण,
यथातथयथापुरयोः ५./२/३५.
पर्यायेण, ७/३/३१ ८. सस्थानक्रियं स्वम्,
तुल्यास्यप्रयत्न १/१/२.
सवर्णम्, १/१/8 २. सिद्धौ भा. १/४/५.
अपवर्ग तृतीया,, २/३/६ १०. स्पर्धे परम , १/२/१०. विप्रतिषेधे परं कार्यम् , १/४/२ विप्रतिषेधे, १/१/१६. ११. संस्कृत वैयाकरणों ने अर्धमात्रा लाघव को अत्यन्त महत्त्व दिया है। इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए पूज्यपाद देव
नन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण में अनेक ऐसे सूत्रों को प्रस्तुत किया है जो कि अष्टाध्यायी एवं चान्द्र-व्याकरण के सूत्रों से भी अधिक संक्षिप्त प्रतीत होते हैं । संक्षेपण के इस प्रयास में अष्टाध्यायी एवं चान्द्र-व्याकरण के सूत्रों में विद्यमान बहुवचन के स्थान पर पूज्यपाद देवनन्दी ने जनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में एकवचन का प्रयोग किया है । संक्षिप्त-सूत्रों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं
जै० व्या अष्टा०
चा० व्या० १. अर्श आदेरः, ४/१/५०.
अशआदिभ्योऽच्, ५/२/१२७. अर्श आदिभ्योऽच्, ४/२/४७. २. इष्टादे., ४/१/२२.
इष्टादिभ्यश्च, ५/२/८८. इष्टादिभ्यः, ४/२/६४. ३. उगवादेर्यः, ३/४/२.
उगवादिभ्यो यत्, ५/१/२. उगवादिभ्यो यत्, ४/१/२. ४. कण्ड्वादेर्यक्, २/९/२५.
कण्ड्वादिभ्यो यक्, ३/१/२७. कण्ड्वादिभ्यो यक्, १/१/३६. ५. छेदादेनित्यम्, ३/४/६२.
छेदादिभ्यो नित्यम्, ५/१/६४. छेदादिभ्यो नित्यम्, ४/१/७५. ६. प्रज्ञादेः, ४/२/४४.
प्रज्ञादिभ्यश्च, ५/४/३८. प्रज्ञादिभ्यो वा, ४/४/२२. ७. शाखादेर्यः, ५/१/१५७.
शाखादिभ्यो यत्, ५/३/१०३. शाखादिभ्यो यः ४/३/८१. ८. सिध्मादेः, ४/१/२५.
सिध्मादिभ्यश्च, ५/२/६७. सिध्मादिभ्य: ४/०/१०० १. सुखादेः, ४१/५४.
सुखादिभ्यश्च, ५/२/१३१ सुखादिभ्यः, ४/२/१२८. १०. हविरपुपादेर्वा, ३/४/३.
विभाषा हविरपूपादिभ्यः ५/१/४ वा हविर्यपादिभ्यः, ४/१/३. अनेन्द्र -व्याकरण को टोकाएँ
पूज्यपाद देवनन्दी-कृत जैनेन्द्र-व्याकरण पर अनेक विद्वानों ने टीकाओं की रचना की है। श्रुतकीर्ति (१२वीं शताब्दी ई.) द्वारा रचित पंचवस्तु प्रक्रिया के अन्त में जैनेन्द्र -व्याकरण की एक विशाल राजमहल से उपमा दी गई है और उसी प्रसंग में १२वीं शताब्दी ई. तक जैनेन्द्र-व्याकरण पर लिखे गए न्यास, भाष्य, वृत्ति, टीका आदि की ओर भी निर्देश किया गया है ।
जैनेन्द्र-व्याकरण के दोनों सूत्रपाठों (लघु पाठ एवं बृहत-पाठ) पर टीकाओं की रचना की गई जिनमें से कुछ टीकाएं सम्प्रति उपलब्ध हैं तथा कुछ अनुपलब्ध हैं। टीकाओं का विवरण इस प्रकार है
उपलब्ध टोकाएं-(लघुपाठ की टीकाएँ)
१. अर्धमानालाधवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः ॥१२२॥ नागोजीभट्ट , परिभाषेन्दु मेखर,प्र० भा०, सम्पा०के० वी० अभ्यंकर, पूरा, १६६२, पृ० १९८. २. मुत्रस्तम्भसमुदघृत प्रविलसन न्यासोरुरत्नक्षितिथीमत्तिकपाटसंपुटयुत भाष्योऽथ शय्यातलम् । टीकामासमिहारुरु रचित जैनेन्द्रशब्दागम प्रासाद पृथुपंचवस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् ॥
प्रेमी, नाथूराम, जै० सा० इ०, पृ० ३३ पर उद्धृत
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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टीका का नाम
टीकाकार का नाम
१. जैनेन्द्र-महावृति
अभयनन्दी
२. शब्दाम्भोजभास्करन्यास
प्रभाचन्द्र
३. पञ्चवस्तु प्रक्रिया
श्रुतकीति
४. अनिट्कारिकावचूरि
मुनि विजय विमल
टीका ग्रंथ सम्बन्धी विवरण हवीं शताब्दी ई० में रचित यह टीका जैनेन्द्रव्याकरण पर लिखी गई टीकाओं में सबसे प्राचीन है। यह टीका भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हुई है। प्रभाचन्द्र ने ११वीं शताब्दी ई० में जैनेन्द्रव्याकरण पर इस न्यास की रचना की जो अभयनन्दी की महावृत्ति से भी अधिक विस्तृत है तथा अपूर्ण उपलब्ध है। बम्बई के सरस्वती भवन में इसकी दो अपूर्ण प्रतियां विद्यमान हैं। श्रुतकीति ने १२वीं शताब्दी ई० में इस प्रक्रिया-ग्रन्थ की रचना की। इसकी दो हस्तलिखित प्रतियां पूना के भंडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट में है।' जैनेन्द्र-व्याकरण की आनट्कारिका पर श्वेतांबर जैन मुनि विजयविमल ने १७वीं शताब्दी में अनिट्कारिकावचूरि की रचना की है । इसकी हस्तलिखित प्रति छाणी के भंडार में (संख्या ५७८) है।' जैनेन्द्र-व्याकरण पर मेघविजय नामक किसी श्वेतांबर मुनि ने १८वीं शताब्दी ई० में वृत्ति की रचना की। दिगम्बर जैन पं० महाचन्द्र ने अभयनन्दी की महावृत्ति के आधार पर जैनेन्द्र-व्याकरण पर २०वीं शताब्दी ई० में लघुजैनेन्द्र नामक वृत्ति लिखी है जो महावृत्ति की अपेक्षा सरल है। इसकी एक प्रति अंकलेश्वर के दिगम्बर जैन मंदिर में और दूसरी अपूर्ण प्रति प्रतापगढ़ (मालवा) के पुराने जैन मंदिर में है।
५. जैनेन्द्र-व्याकरण-वृत्ति
मेघविजय
६. लघु जैनेन्द्र
पं० महाचन्द्र
१. जनेन्द्रमहावृति, सम्पा० शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १६५६. २. शाह, अम्बालाल प्रे०, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, पंचम भाग, वाराणसी, १९६६, पृ० ११. ३. वही, पृ० १२. ४. वही, पृ० १५. ५. वही, पृ० १५. ६. शाह, अंबालाल, प्रे० जे० सा. बृ० इ०, पं० भा०, पृ० १३.
जैन प्राच्य विद्याएं
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टीका का नाम टीकाकार का नाम
टोका-प्रन्थ सम्बंधी विवरण ७. जैनेन्द्र प्रक्रिया
पं० वंशीधर
पं० वंशीधर ने २०वीं शताब्दी ई० में इस प्रक्रिया ग्रंय की रचना की है।
इसका केवल पूर्वार्ध ही प्रकाशित हुआ है।' ८. प्रक्रियावतार
नेमिचन्द्र
डॉ० हीरालाल जैन के अनुसार । ६. जैनेन्द्र-लघुवृत्ति
पं० राजकुमार
नेमिचन्द्र ने प्रक्रियावतार तथा पं० राज
कुमार ने जैनेन्द्र-लघु वृत्ति की रचना की। शब्दार्णव-संस्करण (बृहत्-पाठ) को टोकाएँ
शब्दार्णव संस्करण के रचयिता गुणनन्दी हैं । इस संस्करण की दो टीकाएँ उपलब्ध हैं जो सनातन-जैन ग्रन्थमाला में छप चुकी हैं - टीका का नाम टीकाकार का नाम
टीका ग्रंथ सम्बन्धी विवरण १०. शब्दार्णव-चन्द्रिका
सोमदेवसूरि
सोमदेवसूरि ने १३वीं शताब्दी ई० के पूर्वार्ध में इस टीका की रचना की। इसको एक बहुत ही प्राचीन तथा अतिशय जीर्ण प्रति भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट
में है। ११. शब्दार्णव-प्रक्रिया
पं० युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार "किसी अज्ञातनामा पंडित ने शब्दार्णवचन्द्रिका के आधार पर शब्दार्णव प्रक्रिया ग्रंथ लिखा है। इस प्रक्रिया के प्रकाशक महोदय ने ग्रंथ का नाम जैनेन्द्र-प्रक्रिया
और ग्रन्थ कार का नाम गुणनन्दी लिखा
है, ये दोनों अशुद्ध हैं ।"५ अनुपलब्धटीका-ग्रंथ - टीका का नाम टीकाकार का नाम
टोका-ग्रंथ सम्बन्धी विवरण १२. जैनेन्द्र-न्यास
पूज्यपाद देवनन्दी
दक्षिण प्रान्त के जैन तीर्थ हुम्मच में स्थित पद्मावती मन्दिर के १५३० ई० के शिलालेख (संख्या ६६७) के अनुसार पूज्यपाद देवनन्दी (५ वीं शताब्दी ई.) ने जैनेन्द्रन्यास की रचना की थी। यह न्यास ग्रंथ सम्प्रति अनुपलब्ध है।
१. मीमांसक युधिष्ठिर, सं० व्या० शा० इ०,प्र०भा०, पृ०५८८. २. जैन, हीरालाल, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, भोपाल, १९६२. पृ० १८५. ३. प्रेमी, नाथूराम, जै० सा०६०, पृ० ३८. ४. वही.
मीमांसक, युधिष्टिर, सं० व्या० शा० इ०, प्र० भा०, पृ. ५६१. ६. न्यासं जिनेन्द्र--संजं सकल-बध-नुत पाणिनीयस्य भूयो
न्यासं शम्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्र' च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीका व्यरचयदिह ता भात्यसौ पूज्यपादस्वामी भूपाल-वन्ध : स्वपरहितवचः पूर्ण-दग्बोध-वृत्तः। -जैन शिलालेख संग्रह, तृतीय भाग, संग्रहकर्ता-विजयमति, बम्बई, १९५७, १०५१६.
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्ध,
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१३. भाष्य
श्रुतकीति ने 'भाष्योऽथ शय्यातलम" शब्दों के द्वारा जैनेन्द्र-व्याकरण पर लिखे गए भाष्य की ओर संकेत किया है।' पञ्चवस्तु प्रक्रिया (१२वीं शताब्दी ई.) में भाष्य का उल्लेख होने से इतना स्पष्ट है कि इस भाष्य की रचना १२वीं शताब्दी
ई० से पूर्व ही हो चुकी थी। जनेन्द्र-व्याकरण के खिलपाठ तथा तत्सम्बद्ध टोकाएं
प्रत्येक व्याकरण के चार खिलपाठ होते हैं-धातुपाठ, उणादिपाठ, लिङ्गानुशासनपाठ एवं गणपाठ । उपर्युक्त चारों पाठों से युक्त व्याकरण-ग्रन्थ पञ्चाङ्गपूर्ण कहलाता है। पाणिनि के पश्चात् लिखे गए जनेन्द्र-व्याकरण के पांचों अंगों की रचना की गई थी उनमें से कुछ तो उपलब्ध हैं एवं कुछ अनुपलब्ध हैं। धातुपाठ
जैनेन्द्र-व्याकरण के औदीच्य एवं दाक्षिणात्य ये दो संस्करण हैं। औदीच्य-संस्करण पूज्यपाद देवनन्दी की कृति है। दाक्षिणात्य संस्करण जो कि शब्दार्णव नाम से भी प्रसिद्ध है गुणनन्दी की कृति है। पं० युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार काशी से प्रकाशित शब्दार्णवव्याकरण के अन्त में छपा हुआ धातुपाठ गुणनन्दी द्वारा संस्कृत है। उन्होंने अपने मत की पुष्टि के लिए निम्न प्रमाण प्रस्तुत किए हैं
जैनेन्द्र महावृत्ति (१/२/७३) में मित्संज्ञाप्रतिषेधक “यमोऽपरिवेषणे" धातुसूत्र उद्धृत किया गया है। पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा दिए गए धातुपाठ में न तो किसी मित्संज्ञाविधायक सूत्र का निर्देश किया गया है और न ही प्रतिषेधक सूत्र का। प्राचीन धातुग्रन्थों में "नन्दी" के नाम से प्राप्त धातु-निर्देशों का धातुपाठ में उसी रूप में उल्लेख नहीं मिलता। इससे यही सिद्ध होता है कि वर्तमान जैनेन्द्र-धातुपाठ आचार्य गुणनन्दी द्वारा परिष्कृत है।
पं० युधिष्ठिर मीमांसक के निर्देशानुसार भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित जैनेन्द्र-महावृत्ति के अन्त में गुणनन्दी द्वारा संशोधित पाठ ही छपा है।' इस धातुपाठ के अन्त में निर्दिष्ट श्लोक से भी गुणनन्दी जैनेन्द्र धातुपाठ के परिष्कर्ता सिद्ध होते हैं। जैनेन्द्रधातुपाठ में वैदिक प्रयोगों से सम्बद्ध धातुओं का अभाव है। आत्मनेपदी धातुओं से 'ङ' एवं' 'ऐ' अनुबंधों का निर्देश किया गया है । '' अनुबन्ध उभयपदी धातुओं का द्योतक है तथा अनुबन्ध रहित धातुएं परस्मैपदी हैं। धातुपाठ में परस्मैपदी धातुओं को “मवंतः' कहा गया है । जैनेन्द्र-धातुपाठ में भ्वादिगण के आरम्भ में आत्मनेपदी (ऊँदित्)धातुओं का पाठ है तथा तत्पश्चात् परस्मैपदी (मवन्त) एवं उभयपदी (जित्)धातुएँ पढ़ी गई हैं। ऐसा होते हुए भी परम्परा का अनुसरण करते हुए भू धातु को धातुपाठ के आरम्भ में ही स्थान दिया गया है। धातुपाठ में ह्वादिगण की धातुओं का अदादिगण की धातुओं से पहले निर्देश किया गया है। अन्य गणों का क्रम पारम्परिक ही है। यहाँ "औं" अनबन्ध अनिट् धातुओं का सूचक है । जैनेन्द्र-धातुपाठ में सभी षित् एवं ओदित् धातुओं को क्रमश: '' एवं 'ओ' अनुबन्धों सहित पढ़ा गया है। जबकि अष्टाध्यायी के धातुपाठ में धातुओं को कहीं तो उपर्युक्त अनुबन्धों सहित पढ़ा है तथा कहीं उन धातुओं से उपर्युक्त अनुबन्धों का निर्देश न करते हुए उनको उन अनुबन्धों से युक्त घोषित किया है। उदाहरण के लिए पाणिनि ने घटादि धातुओं को षित् तथा स्वादि धातु ओं को ओदित् घोषित किया है । जैनेन्द्र धातुपाठ में चुरादिगण की धातुएँ दो वर्गों में विभक्त की गई हैं। प्रथम वर्ग के
१. भाष्योऽष शय्यातलम, प्रेमी, नाथूराम, जैन सा० इ०.१० ३३ पर उद्धत । २. मीमांसक, युधिष्ठिर, सं० व्या० शा० इ०, द्वितीय भाग, हरयाणा, वि० सं० २०३०, पृ. ११८. ३. वही. ४. पादाम्भोजानमन्मानवपतिमकुटानय॑माणिक्यतारानीकासंसेविताद्यद्य तिललितनखानीकशीतांश बिम्बः | दुर्वारानङ्गबाणाम्बुरुहहिमकरोद्ध्वस्तमिथ्यान्धकार: शब्दब्रह्मा स जीयाद्गुणनिधिगुणनन्दिव्रतीशस्सुसौख्यः ॥
-(जनेन्द्र-धातुपाठ के अंत में दी गई पुष्पिका), जै० म०५०, १०५०५. ५. वही, पृ. ४६२. ६. वही, पृ० ४६६. ७. घटादयः पित:, क्षीरस्वामी, क्षीरतरङ्गिणी, सम्पा० युधिष्ठिर मीमांसक, रामलाल कपूर, ट्रस्ट, वि० सं० २०१४, पाणिनीय धातुपाठ १/५२२. ८. स्वादय मोदितः, पा० धा०, ४/३१. ६. जै० म० ३०, पृ०५०२-५०५, (१-३१२ तक की धातुएँ)
जैन धर्म एवं आचार
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अन्तर्गत उन धातुओं का निर्देश है जो कि केवल चुरादिगण की ही धातुएँ हैं। इस वर्ग की धातुओं का परस्मैपदी' आत्मनेपदी' एवं उभयपदी में विभाजन किया गया है। द्वितीय वर्ग में वे धातुएँ निर्दिष्ट हैं जो विकल्प से चुरादिगण की धातुएँ हैं। इन धातुओं का भी परस्मैपदी, आत्मनेपदी तथा उभयपदी" की दृष्टि से विभाजन किया गया है। संक्षिप्तता, स्पष्टता तथा मौलिकता की दृष्टि से जैनेन्द्र धातुपाठ में कुछ धातुओं के अर्थों को अष्टाध्यायी के धातुपाठ में निर्दिष्ट धात्वर्थों से किञ्चिद् भिन्न रूप में प्रस्तुत किया गया है । संक्षिप्तता के उद्देश्य से अष्टाध्यायी के धातुपाठ में विद्यमान धात्वर्थों के स्थान पर जैनेन्द्र धातुपाठ में संक्षिप्त पर्यायवाची शब्दों को रखा गया है । उदाहरणत :-अष्टाध्यायी के धातुपाठ में निर्दिष्ट वदनैकदेश', अवगमने रक्षण तथा संशब्दने" शब्दों के लिए जैनेन्द्र-धातुपाठ में क्रमशः मुखैकदेशे १२, बोधने', गुप्ति तथा आख्याने ५ शब्दों का प्रयोग किया गया है।
अष्टाध्यायी के धातुपाठ में स्त्रीलिंग में निर्दिष्ट धात्वर्थों का जैनेन्द्र-व्याकरण के धातुपाठ में कहीं-कहीं पर पुल्लिग में निर्देश किया गया है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी के धातुपाठ में उल्लिखित ज्ञीप्सायाम् ६, हिंसायाम्" तथा कुत्सायाम " शब्दों के स्थान पर जैनेन्द्र-धातुपाठ में क्रमशः ज्ञीप्सने", हिंसने एवं कुत्सने शब्दों का प्रयोग किया गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनेन्द्र-धातुपाठ में उपर्युक्त धात्वर्थों का निर्देश संक्षिप्तता को दृष्टि में रखते हुए ही किया गया है। कहीं-कहीं पर जैनेन्द्र-धातुपाठ में अष्टाध्यायी के धात्वर्थों को अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट किया गया है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी के धातुपाठ में दिए गए “शब्दे तारे"२२ धात्वर्थ के स्थान पर जैनेन्द्र-धातुपाठ में "उच्चैः शब्दे"२३ धात्वर्थ का निर्देश स्पष्टता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
जैनेन्द्र-धातुपाठ में धात्वर्थों को प्रस्तुत करने में "ति" से अन्त होने वाले शब्दों का अनेक स्थानों पर प्रयोग किया गया है। उदाहरणस्वरूप अष्टाध्यायी के धातुपाठ में निर्दिष्ट दर्शने", आदाने५ तथा विलेखने६ धात्वर्थों के स्थान पर जनेन्द्र-धातुपाठ में क्रमशः दृष्टौ", गृहीतो एवं विलिखितौ धात्वर्थों का निर्देश किया गया है।
१. वही, पृ०५०२-५०४ (१-२६३ तक की धातुए) २. वही, पृ०५०५, (२६४-३११ तक की धातुएं). ३. वही, पृ० ५०५, (३१२ वीं धातु).
वही, पृ० ५०५, (३१३-३५१ तक की धातुए) ५. वही, पृ० ५०५, (३१३-३४२ तक की धातुएँ). ६. वही, पृ० ५०५, (३४३-३४८ तक की धातुए) ७. वही, पृ०५०५, (३४६-३५१ तक की धातुए)
गडि वदन कदेशे, पा० धा०, १/२५३. ६. बुध प्रवगमने, वही, १/५६७. १०. गुपू रक्षणे, वही, १/२८०. ११. कृत संशब्दने, वही, १०/१०१ १२. गडि मुखैकदेशे, जै० म० वृ०, पृ. ४६४. १३. बुधञ बोधन, वही, पृ० ४६२. १४. गुपोङ गुप्तो, वही, प. ४६०. १५. कृत पाख्याने, वही, पृ०५०३. १६. प्रछ जीप्सायाम, पा० धा०६/११७. १७. रुश रिस हिंसायाम्, वही, ६/१२४. १८. णिदि कुत्सायाम्, बही, १/५४.
प्रच्छो शीप्सने, जै० म० ३०, पृ० ५००. २०. रुशो, रिशो हिंसने, वही. २१. णिदि क रसने, वही, पृ० ४६३. २२. कुच शब्दे तारे,पा० धा०, १/११५. २३. कुच उच्च: शन्दे, जै० म०३०४६३.
ईक्ष दर्श मे, पा० धा०, १/४०३. २५. कवक पादाने, वही, १/७३. २६. कृष बिलेखने, वही, १/७१७. २७. ईक्ष दृष्टो, ज०म० वृ०, पृ० ४६१. २८. कै. के गृहीतो, वही. पृ. ४८६. २६. कृषी बिलिखितो, वही, प.० ४६६.
१६.
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आचार्यरत्न भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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जैनेन्द्र -व्याकरण में कुछ सूत्रों में “स्वार्थ" शब्द निर्दिष्ट है।' इस शब्द के प्रयोग का विशेष प्रयोजन है। जैनेन्द्र-धातुपाठ में कुछ धातु अनेकार्थक हैं तथा जहाँ धातु के अर्थ-विशेष का निर्देश आवश्यक होता है वहाँ पूज्यपाद देवनन्दी ने 'स्वार्थ' शब्द का प्रयोग किया है । अभयनन्दी ने स्वार्थ शब्द से अभिप्रेत अर्थ को तत्तत्-सूत्र की वृत्ति में स्पष्ट कर दिया है ।
जैनेन्द्र-धातुपाठ को टीकाएं
१. हैमलिङ्गानुशासन-विवरण में प्रयुक्त "नन्दि धातुपारायण" तथा "नन्दिपारायण" शब्दों के आधार पर पं० युधिष्ठिर मीमांसक का कथन है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने धातुपाठ पर कोई वृत्तिग्रन्थ लिखा था जिसका नाम धातुपारायण था। धातुपारायण नाम का धातुव्याख्यान ग्रन्थ पाणिनीय धातुपाठ पर भी था। अन्त में उनका कथन है कि "ऐसी अवस्था में हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि आचार्य देवनन्दी का धातुपारायण पाणिनीय धातुपाठ पर था, अथवा जैनेन्द्र-धातु पाठ पर।""
२. श्रुतपाल (वि० को हवीं शताब्दी) ने जैनेन्द्र-धातुपाठ पर किसी व्याख्यान ग्रन्थ की रचना की थी।
३. आचार्य श्रुतकीर्ति (वि. की १२वीं शताब्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण पर पंचवस्तु नामक प्रक्रिया-ग्रन्थ की रचना की जिसमें जैनेन्द्र-धातुपाठ का भी व्याख्यान किया गया है ।।
४. शब्दार्णव पर किसी अज्ञातनामा विद्वान् ने एक प्रक्रिया-ग्रन्थ की रचना की जिसमें जैनेन्द्र -धातुपाठ की व्याख्या की गई है।
गणपाठ
पज्यपाद देवनन्दी ने जनेन्द्र-व्याकरण से सम्बद्ध गणपाठ की भी रचना की थी यह निश्चित है। उनके द्वारा रचित गणपाठ पथक रूप से उपलब्ध न होकर अभयनन्दी-विरचित महावृत्ति में उपलब्ध होता है। जैनेन्द्र-व्याकरण के गणपाठ में निम्न तथ्य उल्लेखनीय हैं
१. स्वर एवं वैदिक प्रकरणों के सूत्रों के अभाव के कारण तत्सम्बद्ध गणों का इस गणपाठ में सर्वथा अभाव है।
२. इस गणपाठ में प्रायः तालव्य “श" के स्थान पर दन्त्य "स" का प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी किशार पाठ के स्थान पर जैनेन्द्र -व्याकरण के गणपाठ में चान्द्र-व्याकरण के अनुकरण पर' “किसर' शब्द का पाठ मिलता है। अष्टाध्यायी" तथा चान्द्र-व्याकरण के "शकुलाद' पाठ के स्थान पर जैनेन्द्र-व्याकरण में संकुलाद पाठ मिलता है।"
३. कहीं-कहीं पर दन्त्य 'स' के स्थान पर तालव्य 'श' का भी प्रयोग मिलता है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी के 'कौसल्य" शब्द के स्थान पर जैनेन्द्र-व्याकरण में चान्द्र-व्याकरण (कौशल) के समान ५ कौशल्य' शब्द का पाठ है।
१. द्र०-जै० व्या० १/१/६३, १/२/३७. १/२/१५३, २/१/४२, २/१/७२, ४/३/७१,५/१/१०२ इत्यादि।
तः तक्रम-उदश्वित् । नन्दिधातुपारायणे । हेमचन्द्र, श्री हेमलिङ्गानुशासन-विवरण, सम्पा०-विजयक्षमाभद्रसूरि, बम्बई, १९४०, पृ. १३२. ३. रणाजिरं च नन्दिपारायणे । वही, पृ० १३३. ४. सीमांसक, युधिष्ठिर, सं० च्या० शा० इ०, द्वि० भा०.१० ११८-११६. ५. वही, प्र. भा०. पृ० ५६५. ६. वही, द्वि० भा०प० १२०. ७. वही।
किशर । नरद । ... ... ... ... ... हरिद्रायणी । किशरादि:। काशिका (प्र० भा०) ४/४/५३, सम्पाo-नारायण मिश्र, चौखम्बा संस्कृत संस्थान,
वाराणसी, १६६६. है किसर । नलद ।............."पर्णी । चन्द्रगोमी, चान्द्र-व्याकरण, प्र. भा० ३/४/५५ ७० सम्पा० क्षितीशचन्द्र चटर्जी, पूना, १९५३. १०. किसर। नलद ।................."हरिद्रपर्णी । जै० व्या० ३/३/१७२ वृ०. ११. काशि । चेदि ।.........'शकुलाद ।' ....... 'देवराज । का० ४/२/११६. १२. काशि । काचि । ...... . " शकुलाद...... देवराज । चा० व्या० ३/२/३३ वृ०. १३. काणि । वेदि ।..........."संकुलाद।......."देवराज । जै० व्या०३/२/१२ ब. १४. कौसल्यकार्यािभ्यां च, अष्टा० ४/१/१५५. १५. दगु कोशल कर्मारच्छागबषाद् युटु च, चा० व्या० २/४/८७. १६. कौशल्येभ्यः ; जै० व्या० ३/१/१४२.
जैन धर्म एवं आचार
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४. पूज्यपाद देवनन्दी ने कतिपय विभिन्न गणों का एकीकरण भी किया है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी' एव चान्द्रव्याकरण' के 'पिच्छादि' एवं तुन्दादिगणों को उन्होंने तुन्दादिगण का रूप दिया है।'
५. पूज्यपाद देवनन्दी ने गणपाठ में उपलब्ध शब्दों में कहीं-कहीं किञ्चिद् भिन्नता की है। उदाहरणस्वरूप अष्टाध्यायी' एवं चान्द्र-व्याकरण' के गणपाठों में विद्यमान छात्रव्यंसक तथा भिन्धिलवणा पाठों के स्थान पर उन्होंने क्रमश: छत्रव्यंसक तथा भिन्धिप्रलवणा पाठों का निर्देश किया है।
६. अष्टाध्यायी के गणपाठ में उपलब्ध अनेक गणसूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण में वात्तिकों के रूप में दिए गए हैं। उदाहरण के लिएजै० व्या०
अष्टा० १. संभूयोऽम्भसोः सखं च, ३/१/८५ वा०
संभूयोम्भसोः सलोपश्च, का० ४/१/६६
(ग० सू०) २. अर्हतो नुम्च, ३/४/११४ वा.
अर्ह तो नुम् च, का० ५/१/१२४ (ग० सू०) ३. ईरिकादीनि च वनोत्तरपदानि
इरिकादिम्यो वनोत्तरपदेभ्यः संज्ञायाम्, ५/४/११७ वा०
संज्ञायाम्, का०८/४/३६
(ग० सू०) इत्यादि। उणादि पाठ
पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा रचित उणादिपाठ स्वतन्त्र रूप से इस समय उपलब्ध नहीं है। किन्तु अभयनन्दी की महावत्ति में निम्ननिर्दिष्ट कुछ 'उणादिसूत्र' उद्धृत हैं
१. 'तनेर्डउः सन्वच्च', जै० म० वृ०, पृ० ३ २. 'अस, सर्वधुम्यः' वही, पृ० १७ ३. 'कृ वा पा जिमि स्वदि साध्यशूभ्य उण्', वही, पृ० ११८ ४. 'वृत वदिहनि कमि काषिभ्यः सः', वही, पृ० ११८ ५. 'अण्डः । * कृसृवृडः", वही, पृ० ११६ ६. 'गमेरिन्', वही, पृ० ११६ ७. 'आडि णित्' वही, पृ० ११६ ८. 'भुवश्च', वही, पृ० ११६
ये उणादि सूत्र पूज्यपाद देवनन्दी की ही रचना है । इसका मुख्य प्रमाण यह है कि अनेक उणादिसूत्रों में जैनेन्द्र-व्याकरण की ही संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए-'अस् सर्वधुभ्यः उणादिसूत्र में धातुसंज्ञा के लिए जैनेन्द्र-व्याकरण की धुसंज्ञा का प्रयोग किया गया है।
१. लोमादिपाभादिपिच्छादिभ्यः शनेल चः, तुन्दादिभ्य: इलच्च:,-अष्टा० ५/२/१००, ५/२/११७. २. पिच्छादिभ्यश्चेलच, चा० व्या०४/२/१०३ तथा द्रष्टव्य-४/२/११९ वृ०.
तुन्दादेरिल: जै० व्या० ४/१/४३. ४. मयूरव्यंसकः । छात्रव्यंसक: । काम्बोजमण्डः ।............भिन्दि घलवणा । ........' पचप्रकूटा । का० २/१/७२. ५. ६०-चा० व्या० २/२/१८ वृ.. ६. मयर व्यंसकः । छतव्यंसकः ।...........भिन्धिप्रलवणा ।........."पोदनपाणिनीया । जै० व्या० १/३/६६ बृ०.
पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार जैनेन्द्र-महावृत्ति का उपयुक्त मुद्रित पाठ (मण्डः । ज क सृवृङः ।) शुद्ध है तथा शुद्ध पाठ मण्डो ज, क स वृङः है।
-द्र० - म० वृ०, भूमिका, पृ०४८. ८. जै० म०व०,१० १७. १. जे. व्या०, १/२/१.
आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन अन्य
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पं० युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार जैनेन्द्र-व्याकरण से पूर्व पंचपादी एवं दमपादी उणादिपाठ विद्यमान थे पंचपदी के प्राच्य, औदीच्य एवं दाक्षिणात्य, तीनों पाठ जैनेन्द्र-व्याकरण से पूर्व रचे जा चुके थे। पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने जैनेन्द्र- महावृत्ति में उपलब्ध 'अस् सर्वधुभ्यः उणादिसूत्र की पंचपादी के प्राच्य, औदीच्य, दाक्षिणात्य पाठ तथा दशपादी उणादिपाठ के सूत्रों से तुलना की है-'
जै० म०वृ०
पंचपावी प्राच्यपाठ
पंचपारी औदोव्यपाठ
पंचपादी दाक्षिणात्यपाठ
दशपादी पाठ
लिङ्गानुशासन पाठ
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उपर्युक्त सूची से स्पष्ट है कि 'सर्वधातुभ्यः' अंश केवल पंचपादी के प्राच्यपाठ में ही है तथा जैनेन्द्र-महावृत्ति में विद्यमान * सर्व धुम्य:' अंश पर इसका पूर्ण प्रभाव है। उपर्युक्त आधार पर पं० युधिष्ठर मीमांसक का कथन है कि "जैनेन्द्र उणादिपाठ पंचपादी के प्राच्यपाठ पर आश्रित है।""
अस सर्वधुभ्यः, जै० म० वृ० १/१/७५ सर्व धातुभ्योऽयुत् ४१८
जैनेन्द्र-व्याकरण का निङ्गानुशासन-पाठ सम्प्रति अनुपलब्ध है। पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण पर निङ्गानुशासन की रचना की थी। इस विषय में पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए हैं-'
अमुन्/ क्षीरतरङ्गिणी, पृ० १३ असुन / श्वेत०४/१९४ असुन / १/४९
(क) प्राचीन आचार्थी के लिङ्गानुशासनों की ओर संकेत करते हुए वामन ने अपने लिङ्गानुशासन का भी उल्लेख किया है। ( व्याडप्रणीतमथ वाररुचं सचान्द्र जैनेन्द्र लक्षणगतं विविधं तथाऽन्यत् लिङ्गस्य लक्ष्म •. इहार्याः ||३१|| ) | (ख) अभयनन्दी की महावृत्ति में कहा गया है कि गोमय आदि शब्दों में दोनों लिङ्ग मिलते हैं, करना चाहिए (गोमयकषायकार्षापण कुतपकवाटशंखादिपाठादवगमः कर्तव्यः - जै० म० वृ०
पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार उपयुक्त उद्धरण में पाठ शन्द लिङ्गानुशासन पाठ का ही द्योतक है क्योंकि 'पु ंसि चार्धर्चा:' (जै० व्या० १/४ / १०८) सूत्र पर अष्टाध्यायी के समान जैनेन्द्र-व्याकरण में कोई गण न होने के कारण इसका पाठ विज्ञानुशासन से ही संभव हो सकता है।
(ग) हेमचन्द्र ने स्वीय निङ्गानुशासन के स्वोपज्ञ विवरण में नन्दी के नाम से एक उद्धरण दिया है "भ्रामरं तु भवेयुव
क्षौद्र
सोड तु कपिलं भवेत्" इति नन्दी श्रीमलिङ्गानुशासनविवरण, पृ० ८५)
१. मीमांसक, यूधिष्ठिर, सं० व्या० शा० इ०, द्वि० मा, पृ० २४४.
२. बही।
३. मीमांसक, युधिष्ठिर, जै० म० वृ०, भूमिका, पृ० ४६.
तथा उनका ज्ञान पाठ से १/४/१०८ ) ।
पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार उपर्युक्त पाठ पूज्यपाद देवनन्दी के लिङ्गानुशासन का ही है। उपर्युक्त उद्धरण से यह मुस्पष्ट है कि पूज्यवाददेवनन्दीकृत विज्ञान शासन छन्दोबद्ध था।
४. हेमचन्द्र, श्रीहैमलिङ, गानुशासन विवरण, पृ० १०२.
५. मीमांसक, युधिष्ठिर, जे० म० वृ०, भूमिका, पृ० ४९. ६. लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य निरवद्याऽवभासते ।
धर्म एवं आभार
"
हेमचंद्र के निङ्गानुशासन- विवरण में उपलब्ध मंदिन गुणवृतस्त्वाश्रयलिङ्गता स्वादुरोदनः स्वाही पेया स्वादु पयः ।। "" उद्धरण के आधार पर पं० युधिष्ठिर मीमांसक का कथन है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने लिङ्गानुशासन पर कोई व्याख्या भी लिखी थी तथा हेमचंद्र ने उपर्युक्त पंक्तियों में जैनेन्द्रलिङ्गानुशासन की व्याख्या की ओर ही संकेत किया है।"
पूज्यपाद देवनंदी ने इष्टदेवता स्वयम्भू को नमस्कार करते हुए जैनेन्द्र-व्याकरण का आरम्भ किया है ।' प्रथम में जैन धर्म के प्रसिद्ध सिद्धान्त 'अनेकान्तवाद' का उल्लेख पूज्यपाद देवनंदी के जैन मतावलम्बी होने का प्रत्यक्ष
सूत्र
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प्रमाण है।' उक्त व्याकरण-ग्रन्थ में अनेक ऐसी विशेषताएं हैं जो कि व्याकरण के क्षेत्र में इसको महत्त्वपूर्ण सिद्ध
करती हैं। प्रत्याहार-सूत्र
पूज्यपाद देवनंदी द्वारा रचित जैनेन्द्र-व्याकरण के आरम्भ में प्रत्याहार-सूत्र उपलब्ध नहीं होते किन्तु निम्न प्रमाणों के आधार पर यह अनुमान किया जाता है कि प्रारम्भ में जैनेन्द्र-व्याकरण के आरम्भ में प्रत्याहार-सूत्र रहे होंगे
(क) अष्टाध्यायी की भाँति जैनेन्द्र-व्याकरण में भी संक्षेप के लिए प्रत्याहारों का प्रयोग उपलब्ध होता है। उदाहरण के
लिए अच्', इक्', एड', ऐच्', झल', यण" तथा हल् आदि प्रत्याहार यहां प्रयुक्त हुए हैं। (ख) जैनेन्द्र-व्याकरण में प्रत्याहार बनाने की विधि का निर्देशक सूत्र “अन्त्येनेतादि:" (जं० व्या० १/१/७३)
उपलब्ध है। (ग) जिस प्रकार अष्टाध्यायी में "हयवरट" प्रत्याहार सूत्र का "र" लेकर तथा "लण्" प्रत्याहार सूत्र का "अ"
लेकर 'र' प्रत्याहार बनाया गया है उसी प्रकार यहाँ पर 'र' प्रत्याहार का निर्माण किया गया है। इस तथ्य की पुष्टि जनेन्द्र-व्याकरण के 'रन्तोऽणुः' (ज० व्या० १-१-४८) सूत्रपर अभयनन्दी के निम्न कथन से होती है
"रन्त इति लणो लकाराकारेणप्रश्लेषनिर्देशात् प्रत्याहारग्रहणम् ।" (घ) जैनेन्द्र-व्याकरण के 'कार्यार्थोऽप्रयोगीत्, (जै० व्या० १/२/३) सूत्र की वृत्ति में अभयनन्दी ने 'अइ उण् णकारः
कहकर 'ण' को इत् संज्ञक कहा है । जैनेन्द्र-व्याकरण के 'अणुदित् स्वस्यात्मनाऽभाव्योऽतपरः' (ज. व्या० १/१/७२) सूत्र में प्रयुक्त 'अण्' प्रत्याहार का स्पष्टीकरण अभयनन्दी ने उसी सूत्र की वृत्ति में इस प्रकार किया है--"इदमणग्रहणं परेण णकारेण।"
जैनेन्द्र-महाव त्ति के आरम्भ में दी गई भूमिका में पं० महादेव चतुर्वेदी ने जनेन्द्र-व्याकरण के दोनों सूत्रपाठों से सम्बद्ध प्रत्याहार-सूत्रों का उल्लेख किया है। पंचाध्यायी के सूत्रपाठ तथा अष्टाध्यायी के सूत्रपाठ में पर्याप्त साम्य है । इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए पं० महादेव चतुर्वेदी ने जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रत्याहार-सूत्रों को भी अष्टाध्यायी के प्रत्याहार-सूत्रों के समान माना है । उनके अनुसार जैनेन्द्र-महावृति के आधार से उपलब्ध पंचाध्यायी के सूत्रपाठ से सम्बद्ध प्रत्याहार सूत्र ये हैं
"अ इ उण १ । ऋ ल क् २ । एओङ ३ । ऐ औच ४ । हय वर ट् ५। लण् ६ । ञ म ङ ण न म् ७। झ भ ज ८ । घढ धप । ज ब ग उद श् २० । ख फछठ थ च ट त व ११। क प य १२ । श ष स र १३ । हल १४ ।
उल्लेखनीय है कि इन प्रत्याहार-सूत्रों का अष्टाध्यायी के प्रत्याहार-सूत्रों से पर्याप्त साम्य है। शब्दार्णव-चन्द्रिका के प्रत्याहार-सूत्र इस प्रकार हैं
"अ इ उ ण् १ । ऋक् २। ए ओङ ३ । ऐ औच ४ । ह य व र ल ण् ५ । । म ङ ण न म् ६। झ म ७ । घढध ८ । जब ग ड द श्६ । ख फ छठ थ च ट त व १०। क प य ११। श ष स अं अः क पर १२ । हल् १३।"
देवनन्दितपूजेशनमस्तस्मै स्वयम्भुवे ॥ -मंगल श्लोक, जै० व्या०, १०१. १. सिद्धिरनेकान्तात्, वही, १/१/१. २. पाकालोऽच प्र-दी-पः, वही, १/१/११. ३. इकस्तो, वही, १/१/१७. ४. पदेप, वही, १/१/१६.
भादगैप वही, १/१/१५.
झलिकः, जै० व्या०, १/१/८३. ७. इग, यणो जि:, वही, १/१/४५. ८. हलोऽनन्तरा: स्फः, वही, १/१/३. ६. चतुर्वेदी, महादेव, जै० म० ३०, भूमिका, पृ० १४.
भाचार्यरन भी देशभूषण जी महा......
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पंचाध्यायी एवं शब्दाणवचन्द्रिका के सूत्रपाठ में भिन्नता होने के कारण प्रत्याहार-सूत्रों में निम्नलिखित अन्तर है : (क) पंचाध्यायी के “ऋलक्' प्रत्याहार सूत्र के स्थान पर शब्दार्णवकार ने 'क्' प्रत्याहार सूत्र दिया है। (ख) शब्दार्णवकार ने अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय का भी शर प्रत्याहार के अन्तर्गत समावेश किया है। (ग) "ह य व र ट् । लण्” इन दो प्रत्याहार-सूत्रों के स्थान पर शब्दार्णवकार ने "ह य व र लण्" प्रत्याहार सूत्र दिया है।
पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार भी जैनेन्द्र-व्याकरण में प्रत्याहार सूत्र थे तथा अभयनन्दी उन प्रत्याहार सूत्रों से परिचित थे। जैनेन्द्र-महावृत्ति के आरम्भ में प्रत्याहार-सूत्रों की अनुपलब्धि के विषय में उनका विचार है कि या तो अभयनन्दी ने उन सूत्रों पर टीका लिखना आवश्यक न समझा अथवा प्रत्याहार सूत्रों की व्याख्या नष्ट हो
गई तथा बाद में जनेन्द्र-व्याकरण में उन प्रत्याहार सूत्रों का भी अभाव हो गया।' जैनेन्द्र -व्याकरण में प्रयुक्त संज्ञाएं
जनेन्द्र-व्याकरण में उपलब्ध संज्ञाएँ अत्यन्त जटिल हैं। अनेक संज्ञाएँ सांकेतिक हैं। जनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में अष्टाध्यायी के सूत्रों से समानता होते हुए भी कई स्थानों पर संज्ञाओं की दृष्टि से नूतनता देखी जाती है । इन संज्ञाओं के कारण ही जनेन्द्र-व्याकरण अन्य व्याकरणों से भिन्न मौलिक व्याकरण-ग्रन्थ कहा जाता है। जैनेन्द्र-व्याकरण की कतिपय संज्ञाएं एकाक्षरी तथा बीजगणितीय हैं। अष्टाध्यायी में अधिकांश संज्ञाएँ अन्वर्थक हैं किन्तु यहाँ पर ये संज्ञाएँ सार्थक या अन्वर्थक नहीं हैं। साधारण अध्येता के लिए इन संज्ञाओं को प्रथम दृष्टि में ही समझना कठिन है । इन्हीं संज्ञाओं के कारण यह व्याकरण-ग्रन्थ क्लिष्ट बन गया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने
पत" एवं कर्मप्रवचनीय" संज्ञाओं को अनावश्यक जानकर जनेन्द्र-व्याकरण में स्थान नहीं दिया है। जैनेन्द्र-व्याकरण में प्रयक्त संज्ञाओं को निम्ननिर्दिष्ट पाँच वर्गों में विभक्त किया जा सकता है१. परम्परा से प्राप्त संज्ञाएँ
पज्यपाद देवनन्दी ने प्रातिशाख्यों से अनुदात्त', अनुस्वार', उदात्त', कृत्', ति', द्वन्द्व', पद', विभक्ति', विराम", विसर्जनीय" एवं स्वरित संज्ञाओं का ग्रहण किया है तथा अष्टाध्यायी में प्रयुक्त अधिकरण", अपादान", इत्", करण", कर्ता", कर्म, टि भयवार
१. मीमांसक, युधिष्ठिर, जं० मा वृ०, भूमिका, १० ४४.४५. २. तुलना करें-जै० व्या० १/१/१३, ऋग्वेद प्रातिशाख्य ३/१, सम्पा० सिधेश्वर भट्टाचार्य, वाराणसी, १६७०. ३. तु०-वही, ५.४.७; वही, १५. ४. तु०-वही, १.१.१३ वही, ३.१. ५. त०-वही, २.१.८० वाजसनेयि प्रातिशाख्य १.२७; सम्पादक-बी. वेङ्कटराम शर्मा, मद्रास, १९३४. ६. तु. वही, १.२,१३१;क्तन्त्र २६, सम्पादक-सूर्यकान्त, देहली. १९७०. ७. तु०-वही, १.३.६२; वा० प्रा० ३.१२७. ८. तु-वही, १.२.१०३: वही, ३.२., ८.४६. ६. तु०-वही, १.२.१५७: वही ५.१३. १०. तु.-वही, ५.४.१६; ऋक्त० ३६. ११. तु०-बही, ५.४.१६; पथर्ववेद प्रातिशाख्य १.५ सम्पा.-हिस्ट्नी -१८६२. १२. तु०-वही, १.११४; प्राति० ३.१. १३. तु०-वही. १.२.११६; प्रष्टा० १.४.४५. १४. त०-वही, १.२.११०; वही, १.४॥२४. १५. तु०-वही, १.२.३; वही, १.३.२, १६. तु.-वही, १.२.११४: वही, १.४४२.
तु०- वही, १.२,१२५; वही, १.४.५४. १८. तु०-वही, १.२.१२०: वही, १.४.४६. १६. तु०-वही, १.१६५; बही, १.१.६४. २०. त०-वही, १.२.१०७; वही. १.४.१८, २१. तु०-वही, ३.१.८१; बही, ४.१.१६३.
अन प्राच्य विद्याएं
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संख्या', सत्', सम्प्रदान', सर्वनाम एवं हेतु संशाबों का उसी स्वरूप में प्रयोग किया है । पूज्यपाद देवनन्दी ने उपरिनिर्दिष्ट संज्ञाओं में से अनुस्वार, विराम तथा विसर्जनीय संज्ञाओं को परिभाषित न करके, जैनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में उनका प्रयोग किया है। चन्द्रगोमी का अनुकरण करते हुए पूज्यपाद देवनन्दी ने एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन के लिए क्रमशः एक, द्वि तथा बहु संज्ञाओं का प्रयोग किया है।' २. जैनेन्द्र-व्याकरण में प्रयुक्त नवीन संज्ञाएं
पूज्यपाद देवनन्दी ने व्याकरण का मौलिक स्वरूप प्रस्तुत करने के लिए अपने से पूर्ववर्ती व्याकरण-ग्रन्थों में विद्यमान अधिकांश संज्ञाओं के स्थान पर भिन्न संज्ञाओं का प्रयोग किया है जो इस प्रकार हैं० व्या अष्टा०
काव्या १. अग, २/४/६४.
आर्धधातुक, ३/४/११४. २. अन्य, १/२/१५२. प्रथम, १/४/१०१.
प्रथम, आ०प्र०३. ३. अस्मद्, १/२/१५२. उत्तम, १/४/१०१
उत्तम, वही, ३. ४. इल, १/१/३४.
षट्, १/१/२४. ५. उङ् १/१/६६. उपधा, १/१/६५.
उपधा, च० प्र०११. ६. उज, १/१/६२.
श्लु, १/९/६१. ७. उप, १/१/६२.
लुक्, १/१/६१. ८. उस , १/१/६२.
लुप, १/१/६१. ६. एप, १/१/१६ गुण, १/१/२.
गुण, आ०प्र० ४३८. १०. ऐप १/१/१५. वृद्धि, १/१/१.
वृद्धि, वही, ४३६. ११. कि, १/४/५६. सम्बुद्धि, २/३/४६.
सम्बुद्धि, च० प्र० ५. १२. खम्, १/१/६१.
लोप, १/१/६०. १३. ग, २/४/६३. सार्वधातुक, ३/४/११३.
सार्वधातुक, आ० प्र० ३४. १४. गि, १/२/१३०.
उपसर्ग, १/४/५६. १५. गु, १/२/१०२.
अङग, १/४/१३. १६. घि, १/२/६६.
लघु, १।४।१०. १७. ङ, १/१/४. अनुनासिक, १/१/८.
अनुनासिक, स० प्र० १३. १८. च, ४/३/६. अभ्यास, ६/१/४.
अभ्यास, आ. प्र. ८५. १६. जि, १/१/४५. सम्प्रसारण, १/१/४५.
सम्प्रसारण, आ० प्र० ४३७. २०. झ, ४/१/११७.
घ, १/१/२२. २१. झि, १/१/७४. अव्यय, १/१/३७.
अव्यय, च० प्र० २१०. २२. त, १/१/२६. निष्ठा, १/१/२६.
निष्ठा, कृ० प्र०८४. २३. थ, ४/३/४. अभ्यस्त, ६/१/५.
अभ्यस्त, आ० प्र०६६. २४. दि, १/१/२०. प्रगृह य, १/१/११.
प्रकृत्या, स०प्र०४२. २५. दु, १/१/६८.
वृद्ध, १/१/७३. २६. द्रि, ४/२/8.
तद्राज, ५/३/११६. २७. ध, १/१/३१. सर्वनामस्थान, १/१/४२.
घुट, च० प्र० ३. २८. न्यक्, १/३/६३.
उपसर्जन, १/२/४३. २६. प्र, १/१/११. ह्रस्व, १/२/२७.
ह्रस्व, सं० प्र० ५.
१. त.-वही, १/१/३३; वही, १/१/२३. २. तु.-बही, २/२/१०५; वही, ३/२/१२७. ३.तु.-बही, १/२/१११; वही, १/४/३२. .. तु.-वही, १/१/३५; वही, १/१/२७. ५. तु.-बही, १/२/१२६ वही १/४/५५. ६. त-बही, १/२/१५५; चा० व्या• १/४/१४८,
आचार्यरन भी वेशभूषण जी महाराज अभिनम्बन प्रग्य
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जै०या० ३०. बोध्यम्, १/४/१५. मामन्त्रित, २/३/४८.
बामन्वित, प.प्र.५. ३१. भु, १/१/२७. बु, १/१/२०.
वा, मा०प्र०८. १२. मु, १/२/१२. नदी, १/४/३.
नदी, १० प्र०.. ३३. मृत्, १/१/५. प्रातिपदिक, १/२/४५.
लिङ्ग, १० प्र.१. ३४. नि, ५/३/२.
आमेरित, ८/१/२. ३५. युष्मद्, १/२/१५२. मध्यम, १/४/१०१.
मध्यम, आ०प्र०३. '. १/३/४७. विगु, २/१/५२.
दिद्वगु, च० प्र० २६४. ३७. वाक्, २/१/७६. उपपद, ३/१/१२.
उपपद, कृ० प्र० १. ३८. वृद्ध, ३/१/७८.
गोत्र, ४/१/१६२. ३६. व्य', २/१/८२. कृत्य, ३/१/९५.
कृत्य, कृ. प्र.१३० ४०. सु, १/२/६७. घि, १/४/७.
अग्नि , प.प्र.८. संयोग, १/१/७. ४२. स्व', १/१/२. सवर्ण, १/१/९.
सवर्ण, सं० प्र० ४. ४३. ह, १/३/४.
अव्ययीभाव, २/१/५.
अभ्ययीभाव, प.प्र. २७२ ४४. हृत्, ३/१/६१.
तद्धित, ४/१/७१. ३. पाणिनीय संज्ञामों के संक्षिप्त रूप
जैनेन्द्र-व्याकरण में उपलब्ध कुछ संशाएँ तो बिल्कुल अष्टाध्यायी की संज्ञाओं के संक्षिप्त रूप प्रतीत होती है। पाणिनीय संज्ञाओं के आदि, मध्य अथवा अन्तिम भाग को हटाकर नवीन संज्ञाओं का निर्माण किया गया है। नीचे दी गई तालिका से यह सस्पष्ट:3. व्या० मष्टा.
काव्या १. त्य, २/१/१. प्रत्यय, ३/१/१.
प्रत्यय, आ.प्र.३५. २. द',१/२/१५१. आत्मनेपद, १/४/१०..
आत्मनेपद, वही, २. ३. दी, १/१/११. दीर्ष, १/२/२७.
दीर्घ सं० प्र.. ४. धु, १/२/१. धातु, १/३/१.
धातु, आ० प्र०९ नप्, १/१/७.
नपुंसक, १/२/४७. ६. नि, १/२/१२७. निपात, १/४/५६
निपात, सं०प्र०४२
प्लुत, १/२/२७. ८. ब, १/३/८६. बहुब्रीहि, २/२/२३.
बहुव्रीहि, च० प्र० २६७. ६. म', १/२/१५०.
परस्मैपद, १/४/EE
परस्मैपद, आ० प्र०१. १०. य, १/३/४४.
कर्मधारय, १/२/४२.
कर्मधारय, च०प्र० २६३. ११. रु, १/२/१००
गुरु, १/४/११ १२. ष, १/३/१६.
तत्पुरुष, २/१/२२.
तत्पुरुष, च०प्र० २६५. १३. स, १/३/२.
समास, २/१/३.
समास, वही, २५९. ४. विभक्ती शब्द का विभाजन करके प्राप्त संज्ञाएँ
जैनेन्द्र-व्याकरण में ईकारान्त 'विभक्ती' शब्द के प्रयोग का प्रयोजन इप् (द्वितीया) एवं ईप् (सप्तमी) संज्ञाओं में भिन्नता लाना है। 'विभक्ती' शब्द के स्वर एवं व्यंजनों को पृथक्-पृथक् करके 'तासामा परास्तद्धलच' (जै० व्या० १/२/१५८) सूत्र के आधार पर स्वरों
१. ऋक्तन्त में पर, रेफ एवं स्वर के लिए '' का प्रयोग किया गया है। ..ऋक्त. २७०, १०७, २६. २. ऋक्तम्त में 'तालव्य' के लिए 'व्य' का प्रयोग किया गया है -बही, २४१. ३. अण्तन्त में 'स्व' के लिए 'स्व' का प्रयोग मिलता -बही, २५, १५०, ४. अक्तन्त्र में 'पद' के लिए 'द' का प्रयोग किया गया है। 10-ऋक्त. १६. ५. ऋषतन्त्र में विराम' के लिए 'म'का प्रयोग उपलब्ध है। -वही. ५४.
न प्राय बिचाएँ
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के आगे '' तथा व्यंजनों के बागे 'आ' लगाकर प्रथमा आदि विभक्तियों की नवीन संज्ञाएँ प्रस्तुत करना पूज्यपाद देवनन्दी की विलक्षणता है। संस्कृत भाषा के किसी भी वैयाकरण ने इस प्रकार से "विभक्ती" शब्द के आधार पर प्रथमा आदि विभक्तियों के नाम नहीं दिए हैं। व्याकरण के क्षेत्र में यह पूज्यपाद देवनन्दी की एक उत्कृष्ट देन है० व्या०
अष्ट। १. वा, १/२/१५८.
प्रथमा, २/३/४६. २. इप, १/२/१५८.
द्वितीया, २/३/२. ३. भा, १/२/१५८.
तृतीया, २/३/१८. ४. अप, १/२/१५८.
चतुर्थी, २/३/१३. ५. का, १/२/१५८.
पंचमी, २/३/२८. ६. ता, १/२/१५८.
षष्ठी, २/३/५०. ७. ईप्, १/२/१५८.
सप्तमी, २/३/३६.
५. मौलिक संज्ञाएँ
अनेक व्याकरण-विषय अन्वर्थक यौगिक शब्दों के लिए पूज्यपाद देवनन्दी ने नई संज्ञाओं का प्रयोग करके मौनिकता और पाणिनीय व्याकरण से भिन्नता दर्शाने का प्रयत्न किया है । जैसे
जै० व्या०
अष्टा० १. खु, १/१/२६.
संज्ञा, २/१/२१. २. ङि, १/१/३०.
भावकर्म, १/३/१३. ३. धु, १/३/१०५.
उत्तरपद, २/१/५१. ४. घि', १/२/२.
अकर्मक, १/३/२६. _ 'टु' संज्ञा के विषय में यह निश्चित नहीं है कि यह मौलिक संज्ञा है अथवा नहीं। हो सकता है कि महाभाष्य में विद्यमान 'द्य' पाठ' अशुद्ध हो एवं इसके स्थान पर 'द्यु' पाठ ही शुद्ध हो । ऐसी अवस्था में सम्भव है कि इस संज्ञा को पूज्यपाद देवनन्दी ने महाभाष्य से लिया हो। डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार-"जैनेन्द्र सूत्र १/३/१०५ में उत्तरपद की धु-संज्ञा मानी गई है। पतंजलि के महाभाष्य में सूत्र ७/३/३ पर श्लोकवार्तिक में द्य पाठ है और वहाँ 'किमिदं घोरिति उत्तरपदस्येति' लिखा है। सूत्र ७/१/२१ के भाष्य में अघ को अनुत्तरपद का पर्याय माना है पर कीलहान का सुझाव था कि घु का शुद्ध पाठ द्यु होना चाहिए। वह वात जैनेन्द्र के सूत्र १/३/१०५ 'उत्तरपदं द्य' से निश्चयेन प्रमाणित हो जाती है। और अब भाष्य में भी द्य ही शुद्ध पाठ मान लेना चाहिए।"
परिभाषा सूत्र
अष्टाध्यायी एवं जैनेन्द्र-व्याकरण के परिभाषा सूत्रों में पर्याप्त समानता है। परिभाषा सूत्रों में पूज्यपाद देवनन्दी ने केवल ऐसे दो सूत्र दिए हैं जिनका कि पूर्ववर्ती व्याकरण-ग्रन्थों में अभाव है। ये दो सुत्र पूज्यपाद देवनन्दी की विद्वत्ता के परिचायक हैं । ये सूत्र हैं - "नब्बाध्य आसम्" (जै० व्या० १/२/९१) एवं "सूत्रेऽस्मिन् सुविधिरिष्ट:" (जै० व्या० ५/२/११४)। "नब्बाध्य आसम्' सूत्र में पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र ब्याकरण के सूत्रों के विनियोग की ओर निर्देश किया है। इस सूत्र के अनुसार पुल्लिग अथवा स्त्रीलिङ्ग में निर्दिष्ट संज्ञा से नपुंसकलिङ्ग में निर्दिष्ट संज्ञा का बोध होता है। उदाहरणतः 'प्रो घि च' (जै० व्या० १/२/६६) सूत्र के अनुसार 'कुण्डा' शब्द के 'उ' की 'घि' संज्ञा है तथा 'वि' शब्द नपुसकलिंग में है किन्तु 'स्फे रुः' (जै० व्या० १/२/१००) सूत्र में '' शब्द पुल्लिङ्ग
१. वाजसने यिप्रातिशाख्य में प्रत्येक वर्ग के अन्तिम तीन वर्षों तथा य र ल एवं ह की (कुल २० वर्णो की) 'धि' संज्ञा की गई है। --द्र०वा० प्रा०१/५३. २. यत्र वृद्धि रचामादेस्तनं चावन घोहि सा। महाभाष्य, तृतीय खण्ड, मोतीलाल बनारसीदास, १९६७, पृ० १६४. ३. अग्रवाल, वासुदेवशरण, जै० म०३०, भूमिका, पृ० १२.
१४८
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्च
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में है तथा इस पुल्लिंग 'ह' संज्ञा के द्वारा नपुंसकलिंग में निर्दिष्ट 'घि' संज्ञा का बोध होता है। इस प्रकार कुण्डा' शब्द में विद्यमान 'उ' की 'रु' (गुरु) संज्ञा होने के कारण 'सरोर्हल:' ( जं० व्या० २ / ३ / ८५) सूत्र से अस् प्रत्यय एवं 'अजाद्य तष्टाप्' (जै० व्या० ३/१/४) सूत्र से टाप् प्रत्यय होकर 'कुण्डा' रूप सिद्ध हुआ है।
दूसरा महत्त्वपूर्ण परिभाषासूत्र 'सूत्रेऽस्मिन् सुब्विधिरिष्ट' (जै० व्या० ५/२/११४) है । यह सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में विद्यमान शब्दों के वचनों एवं कारकों पर प्रभाव डालता है। जिस शब्द के प्रसंग में इस सूत्र की प्राप्ति होती है वहाँ उस शब्द के मौलिक वचन अथवा कारक का लोप होकर तद्भिन्न अन्य वचन एवं कारक का प्रयोग किया जाता है, किन्तु सूत्र के अर्थ को समझने के लिए उसके मौलिक कारक एवं वचन को ही स्वीकार करना पड़ता है । यह सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में विद्यमान शब्दों के वचनों पर किस प्रकार प्रभाव डालता है, यह निम्न उदाहरणों से सुस्पष्ट है
(क)
'आकालोऽच् प्रदीपः १०० १/१/११) सूत्र में प्रदीप के पश्चात् प्रथमा विभक्ति बहुवचन के जस्' प्रत्यय का प्रयोग होना चाहिए किन्तु सुजेऽस्मिन् सुविधिरिष्ट (जं० व्या ५/२/११४) सूत्र के अनुसार प्रथमा विभक्ति एकवचन के 'सु' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है।
(ख) 'आप' (जै० व्या० १/१/१५) सूत्र में 'आदैन्' के पश्चात् प्रथमा विभक्ति बहुवचन के 'जन्' प्रत्यय के स्थान पर प्रथमा विभक्ति एकवचन के 'सु' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है।
(ग) किरश्च पञ्चभ्यः' (जै० व्या० ५ / १ / १३४) सूत्र में 'किरादिभ्यः' शब्द के 'आदि' अंश का लोप करके पंचमी विभक्ति बहुवचन के 'भ्यस्' प्रत्थय के स्थान पर पंचमी विभक्ति एकवचन के 'ङसि' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है ।'
(घ)
'स्त्रीगोनींच (जै० व्या० १/१/०) सूत्र में 'गो' शब्द के पश्चात् षष्ठी विभक्ति बहुवचन के 'आम्' (ना) प्रत्यय के स्थान पर षष्ठी विभक्ति एकवचन के 'ङस्' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है ! किन्तु सूत्र की व्याख्या करते समय 'गो' शब्द के पश्चात् षष्ठी विभक्ति बहुवचन के प्रत्यय का ही प्रयोग इष्ट है ।
यह सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में विद्यमान शब्दों के कारकों पर भी प्रभाव डालता है । निम्न उदाहरण इसके प्रमाण हैं-
(क) 'अतोऽह नः' (जै० व्या० ५ / ४ / ११) सूत्र में 'अहन्' शब्द षष्ठी विभक्ति एकवचन में निर्दिष्ट है किन्तु व्याख्या करते समय 'अन्' शब्द को प्रथमान्त ही मानकर व्याख्या करनी चाहिए।"
प्रत्यय का प्रयोग
(ख) अतोपेषु' (जै० व्या० ५/१/१३९) सूत्र में विद्यमान या के परे पछी विभक्ति एकवचन के होना चाहिए किन्तु 'सूत्रेऽस्मिन् सुब्विधिरिष्ट: ' सूत्र के प्रभाव के कारण 'ङस्' प्रत्यय का लोप हो गया है । '
(ग)
•
विकृत ( व्या० २/४/११) सूप में विद्यमान तदर्थ प्रकृति' शब्द का विशेषण है तथा ऐसा होने पर 'तदर्थ' शब्द से स्त्रीलिङ्ग एवं सप्तमी विभक्ति की प्राप्ति होती है, किन्तु सूत्रेऽस्मिन् सुविधिरिष्ट सूत्र
के
१. प्रदीप इति 'सूत्र' ऽस्मिन् सुविधिरिष्ट:' ( ५ / २ / ११४) इति जस: स्थाने सु: । जै० म० वृ० १/१ / ११.
२. 'प्रादेषु' (१/१/१५ ) इत्यत्र 'सूर्वऽस्मिन् सुविधिरिष्टः' इति जस: स्थाने सु: । वही, १/१/१५.
३. फिर इति प्रादिशब्दस्य खे 'सूत्रस्मिन् सुविधिरिष्टः (५ / २ / ११४ ) इति भ्यसः स्थाने उसिः । जै० म० वृ०. ५/१/१३४. ४. उदाहरणम् – 'स्त्रीगोर्नीच: ' (१/१/८) स्त्रीगुनामिति प्राप्त हुविधिरयम् । वही, ५ / २ / ११४.
५. सूखे ऽस्मिन् सुविधिरिष्ट' (५ / २ / ११४) इति तास्थाने वानिर्देशात् व्याख्येयः । वही, ५ / ४ / ९१.
६.
या इत्येतस 'सुवेऽस्मिन (५ / २ / ११४) इति ङस: खम् । वही, ५/१/१३६.
जैन प्राय विचाएं
१४६
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प्रभाव के कारण प्रथमा विभक्ति एकवचन का ही प्रयोग किया गया है।' इस सूत्र की व्याख्या करते समय 'तदर्था यां प्रकृती' ही अभिप्रेत है।
(ष)
'मिट का वा' (जै० ब्या० १/४ / ५४ ) सूद में विद्यमान 'वा' (प्रथमा विभक्ति) के परे युक्त प्रथमा विभक्ति एकवचन के 'सु' प्रत्यय का स्वाप च सुशिप्चन (० व्या० ४/३/५६) सूत्र से भोप होना चाहिए पर 'सूत्रेऽस्मिन् सुब्बिधिरिष्टः' सूत्र के प्रभाव के कारण 'सु' का लोप नहीं हुआ। 'सुप्' प्रत्ययों के अन्तर्गत टाप् प्रत्यव भी सम्मिलित है तथा सुब्विधि इष्ट होने के कारण हलन्त 'व' के पश्चात् 'टाप्' प्रत्यय युक्त किया गया है।' 'वा' (प्रथमा) के परे विसर्जनीय के प्रयोग का प्रयोजन 'वा' (विभाषा) की सन्देह-निव ति भी है।'
शब्द के पश्चात षष्ठी विभक्ति एकवचन के स्थान पर
(ङ) 'सेऽङ, गुले सङ्गः' (जं० व्या० ५२४६६२) सूत्र में सङ्ग प्रथमा विभक्ति एकवचन के सु प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। "
इस प्रकार उपर्युक्त दो परिभाषा सूत्रों का जनेन्द्र-व्याकरण की सूत्र व्यवस्था की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है।
सन्धि-सूत्रपूज्यपाद देवनन्दी ने जनेन्द्र-व्याकरण के चतुर्थ अध्याय के तृतीय पाद तथा पंचम अध्याय के चतुर्थपाद' के अधिकांश सूत्रों में सन्धि नियमों को प्रस्तुत किया है। अन्य कुछ सन्धि नियम जैनेन्द्र-व्याकरण के पंचम अध्याय के तृतीय पाद में भी उपलब्ध होते हैं।" सन्धि नियमों का प्रतिपादन करते हुए पूज्यपाद देवनन्दी ने पूर्ण रूप से पाणिनि का ही अनुकरण किया है। सन्धि प्रकरण के अनेक सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण में अष्टाध्यायी से बिना किसी परिवर्तन के उद्धृत किए गए हैं। उदाहरण के लिए
अष्टा०
एक पररूपम् ६/१/६४ एचोऽयवायावः ६/१/०५. झलां जश् शशि, नपरे नः, ८/३/२७नश्चापदान्तस्य झलि,
८/४/५३
जे० प्रा०
१. एङि पररुपम ४/३/८१. २. एचोऽयवायाव:, ४/३/६६.
३. झलां जश् झशि, ५/४/१२८.
४.
नपरे न:, ५/४/११.
नश्चापदान्तस्य झलि ५/४/८.
५.
5. wristsfe, x/v/t1. ७. ष्टुना ष्टु, ५/४/१२०.
सुबन्त सूत्र-
जैनेन्द्र-व्याकरण के चतुर्थ अध्याय के चतुर्थ पाद' तथा पंचम अध्याय के प्रथम तथा तृतीय सूत्र उपलब्ध होते हैं । जैनेन्द्र-व्याकरण के चतुर्थ अध्याय के ही तृतीय" तथा पंचम अध्याय के द्वितीय संबंधी सूत्रों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद में भी दो सुबन्त संबंधी सूत्र उपलब्ध होते हैं। "
३. विसर्जनीयो विभाषा सन्देहनिवृत्यर्थम् । वही, १/४/५४.
Y.
सग इत्यन 'सूत्र' स्मिन् सुविधिरिष्ट (५/२/११४) इति ङस: स्थाने सु: । वही, ५ / ४ / ६२.
५. जे० भ्या० ४/३/६०-७३, ७५-६०, १२-१०६, २१६.
६. वही, ५ / ४ / १-३६, ११९- १२३, १२५-१४०.
७. वही, ५/३/५७, ७६, ७८, ६०-१४.
८.
वही, ४/४/१, ३-१२, ७२ ७४, ७५, ७६-८०, ११८-१२२, १२४ १२७, १२६.
९. वही, ५ / १ / ८ / २६, ३४-३६, ४६-७३, १४३-१७१.
१०. वही, ५/३/१४-२६, २८-३०, ४२, ४६-५१, ५३, ५४, ७५, ७७ ७९, ८३, ८५ ८६ ८८ ८९.
१. तदर्थमित्येतत्प्रकृतेविशेषणम् । तदर्थायां प्रकृतात्रिति । यद्येवं स्त्रीलिङ्गमीप् च प्राप्नोति । 'सूर्वऽस्मिन् सुम्बिधिरिष्ट' (५/२/११४) इने पा] (इतोपो बाया
एकेन च निवेश: जै० म० वृ० ३/४/११.
1
२. 'मिट कार्ये वा:' (१/४/५४) रुड यादिना सुखं प्राप्तम् । सुपो विधिश्यम् । प्रथ विति हलन्तात् कथं टापु प्रथमपि सुपो विधिरिष्टः । सुपो ग्रहणात्। वही, ५/२/११४.
११. मही, ४/३/५६-५८, १६७-२०१, २१५, २२९, २३३.
१२. बही, ५/२/९७-११३, १५०.
१३. मही, ५/४/२४, ३७, ३८, ३६, ८५, ८६,६६.
१४. वही, १/२/१५६, १५७.
१५०
छोटि २/४/६१. RETT R: C/V/ve.
,
८/३/२४.
पादों में अधिकांश सुबन्त एवं चतुर्थ" पादों में सुबन्त
माकप पकारेण
आचार्य रत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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अष्टाध्यायी में उपलब्ध 'प्रातिपदिक' संज्ञा' के स्थान पर जैनेन्द्र-व्याकरण में 'मृत्' ' संज्ञा का प्रयोग किया गया है। जैनेन्द्र-व्याकरण में दी गई कृत्' हृत् ' आदि संज्ञाओं के समक्ष यह संज्ञा उचित ही है।
अष्टाध्यायी में ‘सुप्' एवं 'तिङ' प्रत्ययों की विभक्ति' संज्ञा की गई है।' जनेन्द्र-व्याकरण में विभक्ति' शब्द के स्थान पर ईकारान्त 'विभक्ती' शब्द का प्रयोग किया गया है। विभक्ती' शब्द के व्यंजनों तथा स्वरों के आगे क्रमशः आकार तथा पकार के योग से प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी एवं सप्तमी विभक्तियों के स्थान पर क्रमशः वा, इप्, भा, अप्, का, ता एवं ईप संज्ञाएँ प्रस्तुत की गई हैं।'
पूज्यपाद देवनन्दी ने 'सु' आदि प्रत्ययों का उल्लेख जैनेन्द्र-व्याकरण के तृतीय अध्याय के आरम्भ में एक ही सूत्र में किया है।
प्रायः सभी सुबन्त रूपों की सिद्धि में पूज्यपाद देवनन्दी ने पाणिनि का ही अनुकरण किया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने केवल पर अनडवान, अनड़वाहो, अनड्वाहः एवं अनड्वाहम् शब्दों की सिद्धि अष्टाध्यायी, कातन्त्र एवं चान्द्र-व्याकरण से भिन्न विधि से की है।
एवं अनडह' शब्दों से सर्वनामस्थान प्रत्यय परे रहते पाणिनि' तथा चन्द्रगोमी" ने आभ् आगम का विधान किया है। तत्पश्चात् आगम को अन्तिम 'अच्' के पश्चात् ही युक्त करने का नियम है। (चतुर+जस्च तु आ (म) र जस्-, अनडुह, +सु, ओ,
अस औट-अनड आ (म) ह.-सु औ इत्यादि । उसके पश्चात् ही उपयुक्त शब्दों के 'उ' को यणादेश करके (चत व आर जस. अनह वारस औ----) चत्वारः, अनड्वान्, अनड्वाही, अनड्वाहः तथा अनड्वाहम् रूपों की सिद्धि की गई है । शर्ववर्मा ने चत्वार
अनडवाह शब्दों का ही ग्रहण किया है।" जैनेन्द्र-व्याकरण में स्वर संबंधी नियमों का अभाव होने के कारण पूज्यपाद देवनंदी ने उटात 'आम' का परित्याग कर दिया है तथा चतुर् एवं अनडुह के 'उ' के स्थान पर 'ध' (सर्वनाम स्थान) परे रहते 'वा' आदेश करके (चत् वा र् जस्, अनड वाह-सु ओ-----) उपर्युक्त रूपों की सिद्धि की है।
इसी प्रकार सम्बुद्धि " में 'चतुर' एवं 'अनडुह,' शब्दों को पाणिनि" एवं चन्द्रगोमी ने अम् आगम का विधान किया है। पर्ववत मित होने के कारण 'अम्' आगम को 'अन्त्य' अच् के पश्चात् युक्त किया गया है। (चतु अ (म्) र जस्, अनड़ अ (म) तथा यणादि सन्धि करके हे चस्वः तथा हे अनड्वन् रूप सिद्ध किए हैं (चत् व् अ र् जस्, अनड् व् अह, सु) । शर्ववर्मा ने चत्वार अनडवाह शब्दों के दीर्घ स्वर (आ) को हस्वादेश किया है। इसके विपरीत पूज्यपाद देवनन्दी ने सम्बुद्धि में चतर एवं अनडह शब्दों के 'उ' को 'व' आदेश किया है।"---(चत् व र् जस्, अनड् व ह-सु) । इन प्रकार उपर्युक्त रूपों की सिद्धि में पज्यपाद देवनन्दी ने तीन सत्रों के स्थान पर एक सूत्र से ही कार्य चलाकर सरलता लाने का प्रयास किया है। प्रक्रिया में सरलता एवं संक्षेप की दष्टि से सबन्त प्रकरण में यह पूज्यपाद देवनन्दी की एक उपलब्धि मानी जाएगी।
१. प्रवदधातप्रत्ययः प्रातिपदिकम्, मष्टा० १/२/४५. २. मधु मृत्, जै० व्या.१/१/५. ३. कृदमिह, वही. २/१/८०. ४. हतः, वही, ३/१/६१.
विभक्तिश्च, अष्टा० १/४/१०४. ६. 'विभक्ती',. व्या• १/२/१५७.
तासामाप्परास्तद्धलच, जै० व्या० १/२/१५८. ६. स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभिस्ङ भ्यांभ्यम्कसिभ्यांभ्यस्ङसोसाम्ङ्योस्सुप, वही, ३/१/२. १. चतुरनहोरामुदात्त: मिद वोऽन्त्यत्पिरः, इको यणबि; अष्टा०७/१/१८% १/१/४७; ६/१/७७. १०. चतरनबहोराम: मिदमोऽन्त्यात पर: इको यणचि, चा० व्या०५/४/५०: १/१/१४:५/१/७४.
चतुरो वाशब्दस्योत्वम् पनडुहरच; कातन्त्र-व्याकरण, चतुष्टय प्रकरण. ११८; ११६. सम्पा. गुरुनाव विद्यानिधि भट्टाचार्य, कलकत्ता, बङ्गाब्द, १३१६.
चतुरनबुहोर्वा, जै० व्या०५/१/७२. १३. एकवचनं संवृद्धि:, प्रष्टा० २/३/४६. १४. मम्संबुद्धी; मिदचोऽन्त्यात्परः; इको याच; वही, ७/१/९६; १/१/४७; ६/१/७७. १५. अम् सौ सम्बुद्धौ; मिदचोऽन्त्यात् पर:, इको यणचि; चा० व्या० ५/४/११; १/१/१४; ५/१/७४. १६. सम्बुद्धाबुभयोह्रस्व:; का. व्या०, च०प्र० १२१. १७. व:को,जै० व्या० ५/१/७३.
१२.
जैन प्राच्य विद्याएं
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स्त्रीप्रत्यय
पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण के तृतीय अध्याय के प्रथम पाद के आरम्भिक सुत्रों में स्त्रीप्रत्ययों का निर्देश किया है।' जैनेन्द्र-व्याकरण के अन्य कुछ सूत्रों में भी 'स्त्रीप्रत्ययान्त' शब्द बनाने के नियम उपलब्ध होते हैं।
अष्टाध्यायी में पुल्लिग से स्त्रीलिंग शब्द बनाने के लिए टाप्', डाप', चाप्', डीप', ङीष् , डीन्, ऊ एव ति"प्रत्ययों का ही शान किया गया है। चान्द्र-व्याकरण में प्रयुक्त स्त्रीप्रत्यय चाप्", डाप्" डीप्", ङीष्", ऊड " एव ति" हैं।
संक्षेप की दृष्टि से पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी की अपेक्षा जैनेन्द्र-व्याकरण के स्त्री-प्रत्ययों में कमी की है। उनके द्वारा प्रयुक्त स्त्री-प्रत्यय छः हैं
आपण टाप, डा, डी, ऊ" तथा ति । अष्टाध्यायी के ङीप्, ङीष्, डीन एव' चान्द्र व्याकरण के डीप एव डीष स्त्रीप्रत्यय कोदष्टि से भिन्न हैं । उपयुक्त व्याकरण-ग्रन्थों में प्, एवन् अनुबन्धों का स्वर संबंधी नियमों के कारण ही प्रयोग किया गया है।
वर प्रकरण से संबंधित नियमों का अभाव होने के कारण ही पूज्यपाद देवनन्दी ने अनुबन्ध-रहित डी प्रत्यय का प्रयोग किया है।
गिनिने 'पति' शब्द के इकार के स्थान पर 'न' आदेश करके एवं 'डीप्' प्रत्यय के योग से यज्ञ के विषय में 'पत्नी' शब्द की रचना की है। पाणिनि के अनुसार 'पत्नी' शब्द यज्ञ के प्रसंग में ही बनता है।
बाद-व्याकरण में वह धातु से वत एवं टाप् प्रत्यय के योग से निष्पन्न ऊढा (विधिवत विवाहित) शब्द के अर्थ में पत्नी शब्द का निर्माण किया गया है।"
१. जै० व्या०३/१/३-६६. २. वही, ४/२/१३२, ४/४/१३६-१४०, ५/२-५०.५३. ३. मजाद्यतष्टाप, मष्टा०४/१/४. ४. साबुभाम्यामन्यतरस्याम्, वही, ४/१/१३. ५. यश्चाप, बही. ४/१/७४. ६. ऋन्नेभ्योङीप, वही, ४/१/५. ७. प्रन्यतो डीए, वही, ४/१/४०. ८. शाडगरवाचमो हीन , वही, २/१/७३.
अडतः, वही, ४/१/६६.
युनस्तिः , वही, ४/१/७७. ११. याचाप्; चा० व्या० २/३/८०. १२. ताभ्यां गप्, वही २/३/१४, १३. नो डीप, वही, २/३/२. १४. पितो डीए, वही, २/३/३६. १५. ऊङ् उत:, वही, २/२/७५. १६. यूनस्तिः , वही, २/३/८१. १७. पावट्यात्, जै० व्या० ३/१/५. १८. मजायतष्टाप्, वही ३/१/४. १६. मनो आप च, वही ३/१/६ २०. उगिदन्नान्डी, वही, ३/१/६. २१. ऊरुतः, वही, ३/१/५६.. २२. यूनस्तिः , वही, ३/१/६२. २३. पत्युनों यज्ञसंयोगे, मष्टा० ४/१/३३. २४. पत्युन ऊठायाम्, चा० व्या० २/३/३०.
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पूज्यपाद देवनन्दी के अनुसार 'पत्नी' शब्द निपातन से सिद्ध है।' पूज्यपाद देवनन्दी ने पाणिनि एवं चन्द्रगोमी के समान किसी अर्थ विशेष में पत्नी शब्द की व्युत्पत्ति की ओर निर्देश नहीं किया है । अभयनन्दी ने इसी सूत्र की वृत्ति में पत्नी को पुरुष की वित्तस्वामिनी कहकर व्याख्या की है। कारक सूत्र
ज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के द्वितीय तथा चतुर्थ पादों में कारक संबंधी नियमों का प्रतिपादन के "कारक" शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अष्टाध्यायी में कारक के प्रसंग में अधिकार सूत्र के अन्तर्गत उपलब्ध होता है। पाणिनि का
करने का पज्यपाद देवनन्दी ने भी कारक शब्द को जैनेन्द्र-व्याकरण में अधिकार सूत्र में ही स्थान दिया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने कर्ता, करण एव अधिकरण कारकों की परिभाषाएँ अष्टाध्यायी में दी गई परिभाषाओं के समान ही दी हैं।'
जैनेन्द्र-व्याकरण में सम्प्रदान एवं अपादान' कारकों की परिभाषाओं का क्षेत्र अष्टाध्यायी की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। इन
परिभाषाओं के द्वारा पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी में विद्यमान् चतुर्थी एव पंचमी" विभक्ति का भिन्न अर्थों में विधान करने वाले अनेक सूत्रों का ग्रहण किया है।
अष्टाध्यायी में अपादान कारक की परिभाषा 'ध्रुवमपायेऽपादानम्' (अष्टा० १/४/२४) है। पूज्यपाद देवनन्दी ने अपादान सम्बद्ध सत्र के अर्थ को विस्तृत रूप देने की दृष्टि से 'धी' शब्द का भी सूत्र में ग्रहण किया है। जिसके परिणामस्वरूप कायिक
साथ-साथ बद्धिपूर्वक विश्लेष में भी जो ध्रुव हो उसको अपादान संज्ञा की है । अभयनन्दी ने उपर्युक्त सूत्र की व्याख्या में सूत्र के अथ को और भी स्पष्ट कर दिया है।" इस प्रकार सूत्र में 'धी' शब्द को स्थान देकर पूज्यपाद देवनन्दी ने कात्यायन के वात्तिक 'जगुप्सा विराम
नामपसंख्यानम' (अष्टा० १/४/२४ वा०) का ग्रहण कर लिया है। इस प्रकार 'धी' शब्द के ग्रहण मात्र से ही सूत्र के आकार में जीत का निवारण करने हुए अपादान कारक की परिभाषा को अर्थ की दृष्टि से विस्तृत रूप दिया है।
नब्बाध्य आसम्' (जै० व्या० १/२/११) सूत्र को दृष्टि में रखते हुए पूज्यपाद देवनन्दी ने अपादान" एवं कर्म" शब्दों का नपुंसकलिंग में प्रयोग किया है।
१. पत्नी, जै० न्या० ३/१/३३. २. पस्य पुस: वित्तस्य स्वामिनीत्यर्थः, जै० म० वृ० ३/१/३३. ३. जै० व्या० १/२/१०६-१२५. ४. वही, १/४/१-७७. ५. कारके, मष्टा० १/४/२३. ६. कारके, जै० व्या० १/२/१०९. ७. तु०-जै० व्या० १/२/१२५, मष्टा० १/४/५४. . वही, १/२/११४ वही १/४/४२.
वही, १/२/११६, बही, १/४/४५. ८. कर्मणोपेयः सम्प्रदानम्, जै० ब्या० १-२-१११. ६. ध्यपाये ध्रुवमपादानम्, वही, १/२/११०. १०. द्र०-भ्रष्टा० १/४/३२-३४, ३६, ३७, ३६-४१. ११. द्र०-वही १/४/२८-३१.
धीब द्धिः। प्राप्तिपूर्वको विश्ल षोऽपायः । धिया कृतो अपायो ध्यपाय:। धीप्राप्तिपूर्वको विभाग इत्यर्थः। धीग्रहणे हसति कायप्राप्तिपूर्वक एवापाय:
प्रतीयेत धीग्रहणेन सर्व: प्रतीयते । जै० म० वृ० १/२/११०. १३. ध्यपाये ध्रवमपादानम्, जै० व्या० १/२/११०. १४. दिवः कर्म, वही, १/२/११५.
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'नब्बाध्य आसम् (जै० व्या० १/२/81) सूत्र के आधार पर पुल्लिग में निर्दिष्ट करण, अधिकरण तथा कतृ संज्ञाओं से नपुंसकलिंग में निर्दिष्ट अपादान संज्ञा का बाध होता है। अभयनन्दी की वृत्ति से उपयुक्त तथ्य सुस्पष्ट है।' दिवःकर्म' (जै०व्या०१/२/११५) सूत्र के अनुसार 'अक्षान् दीव्यति' प्रयोग उचित है किन्तु 'नब्बाध्य आसम्' सूत्र के आधार पर नपुंसकलिंग में निर्दिष्ट कर्म सज्ञा का पल्लिग में निर्दिष्ट करण सज्ञा से बाध होता है तथा अक्षः दीव्यति प्रयोग की भी प्राप्ति होती है।
जैनेन्द्र व्याकरण में दी गई करण कारक की परिभाषा में 'करण' शब्द नपुंसकलिंग में निर्दिष्ट है। ऐसी स्थिति में नपुंसक करण संज्ञा का 'नब्बाध्य आसम्' सूत्र के आधार पर अनवकाश सम्प्रदान संज्ञा से निश्चय ही बाध होना चाहिए किन्तु अभयनन्दी ने 'साधकतमं करणम्' (जै० व्या० १/२/११४) सूत्र की वृत्ति में कहा है-पुल्लिग निर्देशः किमर्थः ? परिक्रयणमित्यनवकाशया सम्प्रदानसञया बाधा मा भूत् । 'ध्यपायेध्रुवमपादानम्' (जै० व्या० १/२/११०) सत्र की वृत्ति में भी अभयनन्दो ने 'पुल्लिगया करण-सज्ञया बाधात्' कहा है। अभयनन्दी के उपर्युक्त कथनों से यह सुस्पष्ट है कि प्रारम्भ में जैनेन्द्र व्याकरण में 'साधकतमःकरणः' स त्रपाठ था जो कालान्तर में विकृत होकर 'साधकतमं करणम्' हो गया। 'करण' शब्द के पुल्लिग में निर्दिष्ट होने पर ही अनवकाश सम्प्रदान संज्ञा से करण-सज्ञ: का बाध नहीं होगा तथा 'शताय परिक्रीतः' प्रयोग के साथ-साथ 'शतेन परिक्रीतः' प्रयोग भी उचित होगा।
समास सूत्र
पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के तृतीय पाद, चतुर्थ अध्याय के द्वितीय तथा तृतीय पादों में अधिकांश समास सम्बन्धी नियमों को प्रस्तुत किया है । समास-सम्बन्धी अन्य कुछ नियम जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद, चतुर्थ पाद, चतुर्थ अध्याय के चतुर्थ पाद तथा पंचम अध्याय के द्वितीय तथा चतुर्थ पादों में भी उपलब्ध होते हैं।
जैनन्द्र व्याकरण के समास सूत्रों का आरम्भ ‘समर्थः पदविधिः (जै० व्या० १/३/३१) परिभाषा सूत्र से होता है ! अष्टाध्यायी एव जैनेन्द्र-व्याकरण के अधिकांश समास सूत्रों में पर्याप्त साम्य है किन्तु संक्षेप तथा सरलता के उद्देश्य से जैनेन्द्र-व्याकरण के कुछ समास-सूत्र विशिष्ट हैं।
जैनेन्द्र-व्याकरण की रचना के समय पूज्यपाद देवनन्दी ने संक्षेप की ओर अत्यधिक ध्यान दिया है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अन्य सूत्रों के समान समास-स त्रों में भी लघु-संज्ञाओं का प्रयोग किया है। उदाहरणतः उन्होंने समास के लिए स,१२
१. नपा निर्देश: किमर्थः । वक्ष्यमाणाभि : संज्ञाभिर्बाधा यथा स्यात् । धनुषा विध्यति पुलिंगया करणसंज्ञया बाधात् । कांस्यपान्यां भुङ्क्ते । पुलिङ्गाऽधिकरण
संज्ञेव । धनुविध्यतीति कर्तृ संज्ञा इहगां दोग्धि पय इति परत्वात्कर्मसंज्ञा । जै० म० ०१/२/११०. २. नपा निर्देशात् करणत्वमपि । वही, १/२/११५. ३. साधकतमं करणम्, जै० व्या० १/२/११४. ४. परिक्रयणम्, वही, १/२/११३. ५. ज.न्या१/३/१-१०५. ६. वही, ४/२/६५, १३१, १३३-१५६. ७. वही, ४/३/६, १०, ११६, १२०-१७५, १७६-१९६, २०२-२१४, २१८-२२४, २२७, २२८,२३०-२३२, २३४. ८. वही, १/२/१३२-१४८. १. वही, १/४/७८-१०८, १५१-१५३. १०. वही, ४/४/१२८, १३०.१३३. ११. वही. ५/२/१२५.१२७. १२. वही. ५/४/६२-६८, ७२, ७५, ८७-६५, ६७, ११६.११८. १३. सः, वही, १/३/२.
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अव्ययीभाव के लिए है,' तत्पुरुष के लिए लिए ष, द्विगु के लिए र, बहुव्रीहि के लिए ब, तथा कर्मधारय के लिए य, संज्ञाएँ दी हैं।'
पूज्यपाद देबनन्दी ने समास सूत्रों की संख्या में भी यथासंभव कमी की है। जो बात स्वभावत: सर्वविदित है उसको कहने की उन्होंने आवश्यकता नहीं समझी है। यही कारण है कि जैनेन्द्र-व्याकरण में एकशेष समास से संबंधित सूत्रों का अभाव है। एकशेष से संबंधित सूत्रों का अभाव होने का कारण भी पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने व्याकरण-ग्रन्थ में निर्दिष्ट किया है।'
सूत्रों में भिन्नता लाने के उद्देश्य से पूज्यपाद देवदन्दी ने अनेक समासान्त पदों का विधान अष्टाध्यायी, कातन्त्र एवं चान्द्र व्याकरण से भिन्न समासान्त प्रत्ययों की सहायता से किया है। जै० व्या०
अष्टा का० व्या० (च० प्र०)
चा० व्या० १. अ, ४/२/११६. अप्, ५/४/११६.
अत्, ४१४.
अप्, ४/४/६६. २. अ, ४/२/११७. अप, ५/४/११७. अत्, ४१५.
अप्, ४/४/१०१. ३. अन्, ४/२/१२५. अनिच्, ५/४/१२४.
अविच्, ४/४/११३. ४. अस, ४/२/१२४. असिच्, ५/४/१२२.
असिच्, ४/४/१०७. ५. ट, ४/२/१०६. टच, ५/४/१०७.
अत्, ३६८.
टच्, ४/४/६०. ६. ट, ४/२/११३. षच्, ५/४/११३.
अत्, ४१०.
षच्, ४/४/६६. ७. ट, ४/२/११५. ष, ५/४/११५.
अत्, ४१२.
षच्, ४/४/६८. ८. ड, ४/२/६६. डच्, ५/४/७३. अत्, ४२०.
डच्, ४/४/६५. समासान्त-प्रत्ययों की उपर्युक्त सूची से यह सुस्पष्ट है कि जैनेन्द्र व्याकरण के समासान्त-प्रत्ययों में स्वर-संबंधी अनुबन्धों का अभाव है।
समास सत्रों के प्रसंग में जिसकी पाणिनि ने प्रथमा विभक्ति से निर्दिष्ट करके उपसर्जन संज्ञा' की है उसकी 'पूज्यपाद देवनन्दी ने न्यक् संज्ञा की है।
समास सूत्रों में पूज्यपाद देवनन्दी ने अनेक स्थानों पर एक माना के प्रयोग में भी कमी करने का प्रयत्न किया है
जै० व्या
अष्टा०
का० व्या०
चा० व्या०
१. आयामि
आयामिना, १/३/१३. यस्य चायामः, २/१/१६. २. परिणाऽक्षशलाकासंख्याः , १/३/८ अक्षशलाकासंख्या:परिणा, २/१/१०
-
अनुः सामीप्यायामयोः, २/२/९. संख्याक्षशलाकाः परिणा द्यूतेऽन्यथा वृत्तौ, २/२/६.
१. हः, जै० व्या० १/३/४. २. पम्, वही, १/3/१९. ३. संख्यादी रश्च, वही, १/३/४७. ४. मन्यपदार्थेऽनेक षम्, वही, १/३/८६. ५. पूर्वकाल कसर्वजरत्पुराणनवकेवल यश्चकाश्रये, वही, १/३/४४. ६. स्वाभाविकत्वादभिधानस्यकशेषानारम्भः, वही, १/१/१००. ७. प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्, अष्टा० १/२/४३. ८. वोक्तं न्यक्,, जै० व्या०, १/३/९३.
जैन प्राच्य विद्याएँ
१५५
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जे० व्या०
यत्समवाऽनु १/३/१२.
अनुर्यत्समया, २/१/१५
४. लक्षणेनाभिमुख्येऽभिप्रती, १/३/११. लक्षणेनाभिप्रती अभिमुख्ये २/१/१४. -
अष्टा०
अनुः सामीप्यायामयो १/२/२लक्षात २/२/५
अष्टाध्यायी के 'यस्य पायाम (अष्टा० २/१/१६) एवं चान्द्र-याकरण के अनुः सामीप्यायामयो' (चा०या० २ / २ / १ ) सूत्र के स्थान पर जनेन्द्र-व्याकरण में समास के उदाहरण की दृष्टि से 'आयामिना' (जै० व्या० १ / ३ / १३) सूत्र की उपस्थिति युक्तिसंगत है ।
कुछ समस्त पदों की सिद्धि की विधि में जैनेन्द्र-व्याकरण में, अष्टाध्यायी, कातन्त्र एवं चान्द्र-व्याकरण की अपेक्षा भिन्नता दृष्टिगोचर होती है।
का० व्या० ( च० प्र० )
उदाहरणतः - पाणिनि ' एवं चन्द्रगोमी' ने सर्वप्रथम नन शब्द का सुबन्त के साथ समास किया है । तत्पश्चात् नञ्ञ के नकार का लोप होकर (न (ञ) ब्राह्मण:- अब्राह्मण: ) अब्राह्मणः रूप सिद्ध हुआ है । शर्ववर्मा ने 'न्' का लोप करके रूपसिद्धि (अ ब्राह्मणः ) की है। पूज्यपाद देवनन्दी ने इस समस्त पद की सिद्धि भिन्न विधि से की है। उनके अनुसार 'नन' पद का सुबन्त पद के साथ 'समास' होता है तथा यह समास 'नज्ञ, तत्पुरुष' समास कहलाता है (नञ्च ब्राह्मण: ) । तदुपरान्त उन्होंने 'नञ्ञ' को 'अन' आदेश किया है।' (अन् ब्राह्मण' ) तथा 'अन्' के नकार का लोप विधान करते हुए ( अ ब्राह्मणः ) उपर्युक्त पद की सिद्धि की है ।
'
१. नञ, नलोपो नमः अष्टा० २ / २ / ६; ६/३/७३.
;
पाणिनि तथा चन्द्रगोमी' ने अजादि पद पर रहते 'ना' के 'न्' का लोप करके (अ अश्व:) तथा अजादि पद के आदि अच् से पूर्व नुडागम लगाकर ( अ + नुट् + अश्वः ) 'अनश्वः' समस्त पद की सिद्धि की है। शर्ववर्मा ने अक्षर विपर्यय ( न् अ. अश्व: अन्-अश्यः) करके 'अनश्व' शब्द' की सिद्धि की है।' पूज्यपाद देवनन्दी ने 'मुटु' आगम का प्रयोग' नहीं किया है। उन्होंने अजादि उत्तरपद परे रहते हुए 'जा' को 'अन्' आदेश का ही विधान किया है (नम्र अन्तः अन् अन्तः) ।" यहाँ 'अन्' आदेश का पुनः निर्देश 'अन्' के नलोप की निवृत्ति के लिए ही किया गया है।" अतः 'अनन्त' समस्त पद का निर्माण हुआ है। उपर्युक्त भिन्न विधि के फलस्वरूप जैनेन्द्र-व्याकरण में 'नञोऽन्' (जं० व्या० ४ / ३ / १८१ ) एवं अचि (जै० व्या० ४ / ३ / १०२ ) सूव नवीन प्रतीत होते हैं।
तिङन्त सूत्र
२. नञ; नमन, चा० व्या २/२/२०; ५/२/९१.
३. नस्य तत्पुरुषे लोप्य, का० व्या०, च० प्र० २८०.
४. ना, जे० व्या० १/३/६८.
५.
वही ४/३/१०१.
६. नखं मृदन्तस्याको, वही ५/३/३०.
७. नलोपो नञ्ञ: ; तस्मान्तुडचि ; भ्रष्टा० ६ / ३ /७३, ६/३/७४.
८. नत्र नः ; ततोऽचि नट् ; चा० व्या० ५ / २ / ११ ; ५ / २ / ६३.
६. स्वरेऽक्षरविपर्ययः, का० व्या० च० प्र० २८१.
१०. प्रचि, जे० ब्या०, ४/३/१८२.
११. पुनर्वचन नरवनिवृत्यर्थम्, जै० म० वृ० ४/३/१८२.
१२. जे० व्या० १ / २ / ६-८९, १४९-१५५.
१३. वही. १ / ४ / १०६ - १२९, १४२-१५०, १५४.
१४. वही, २/१/१-७८॥
१५. वही, २ / ३ / १ ७, १०७-१५२.
१६. वही, २/४ / १-३, ५४, ६३-६६.
१५६
चा० व्या०
१५
जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के द्वितीय" एवं चतुर्थ पाद", द्वितीय अध्याय के प्रथम ", तृतीय एवं चतुर्थ पाद" तथा चतुर्थ
,
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अध्याय के तृतीय एवं चतुर्थ पाद तथा पंचम अध्याय के प्रथम, द्वितीय तथा चतुथ पादों में अधिकांश तिङन्त संबंधी नियम उपलब्ध होते हैं । इनके अतिरिक्त प्रथम अध्याय के प्रथम पाद, द्वितीय अध्याय के द्वितीय पाद तथा पंचम अध्याय के तृतीय पाद' में भी कतिपय तिङन्त संबंधी नियम प्रस्तुत किए गए हैं।
क्रियापदों के निर्माण में पूज्यपाद देवनन्दी ने अधिकतर स्वतों पर पाणिनि का ही अनुकरण करते हुए कहीं-कहीं पर मौलिकता लाने का प्रयास किया है ।
अष्टाध्यायी' एवं चान्द्रव्याकरण" में 'लट्' आदि लकारों के स्थान पर तिप् तस् झि, सिप् तस् थ, आदि आदेशों का विधान किया गया है। कातन्त्र - व्याकरण में उपर्युक्त प्रत्ययों का सूत्र में उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु दुर्गसिंह ने वृत्ति में उन प्रत्ययों का निर्देश किया है।"
जैनेन्द्र-व्याकरण में अष्टाध्यायी में निर्दिष्ट तिप् तस् त्रि इत्यादि प्रत्ययों का ही परिगणन किया गया है, किन्तु क्रम बिल्कुल विपरीत है | सूत्र में उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष तथा प्रथमपुरूष के प्रत्ययों का क्रमशः समावेश किया गया है । १२
N
भारतीय व्याकरण साहित्य में उपरिनिर्दिष्ट प्रत्ययों को इस कप से अन्य feat करने नहीं किया है। प्रत्ययों के इसी क्रम के परिणामस्वरूप पाणिनि के द्वारा निर्दिष्ट तिङ् प्रत्याहार के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में मिङ प्रत्याहार का प्रयोग उपलब्ध होता है ।" मिङ प्रत्याहार बनाने के उद्देश्य से पाणिनि द्वारा निर्दिष्ट महिङ् प्रत्यय के 'ङ' को पूज्यपाद देवनन्दी ने अन्तिम प्रत्यय 'झ' के साथ युक्त किया है ।
पूज्यपाद देवनन्दी ने परस्मैपद का म" तथा आत्मनेपद का द" संज्ञा से निर्देश किया है। उपर्युक्त १८ प्रत्यर्थो में से प्रथम & प्रत्यय म संज्ञक तथा अन्तिम ६ प्रत्यय द संज्ञक हैं। उन्होंने आत्मनेपद तथा परस्मैपद के प्रत्येक वर्ग के नौ प्रत्ययों को अस्मद् युष्मद् तथा अन्य संज्ञाएँ दी है तथा उन प्रत्ययों का एकवचन, द्विवचन एवं बहुवचन की दृष्टि से विभाजन किया है । १७
जैनेन्द्र व्याकरण में पारम्परिक नौकारों का उल्लेख मिलता है। ये नौ सकार है, लो लङ, लिङ लुङ एवं लृङ् । वैदिक शब्दों से सम्बद्ध नियमों का अभाव होने के कारण लेट् लकार का यहां सर्वथा अभाव है ।
१. वही, ४ / ३ / १-५४. ११०-११७.
२. वही ४/४/२, १३-७१, ७३, ७६, ७७, ८१-११७.
३. जे० व्या० ५ / १ / ३-७, ३०, ३२, ३३, ३८-४३, ४८, ७४-७६, ७८-१४०.
४. वही, ५ / २ / ३६-४६, ५६ ६३, ६६-६६, ११५- १४६, १५१-१९४.
५. वही, ५/४/४०-६१, ६८, ७८-८४, ६८-१०७.
६. वही, १/१/७५ ९७.
७. वही, २ / २ / ६१-१०१.
८. वही, ५ / ३ / ३६- ३६, ४३-४५, ५२, ५५,५६,८०-८२, ८७.
१.
सामा० २/४/७०.
१०. लस्तिप्तस् झिसिथस्य मिव्वस्वस्तातां झयासायांध्वमिट् वहिमहिङ, चा० व्या० १/४/१.
११. का० व्या०, आख्यात प्रकरण २४-३३ (दुर्गसिंह कृत) वृ०, सम्मा० गुरुनाथ विद्यानिधि भट्टाचार्य, कलकता, शकाब्द १८५५.
१२
महिनामा
२/४/६४
३१. भिङ शिद्ग:, वही. २ / ४ / ६३.
१४. लो भम्. वही, १/२/१५०.
१५. इङानंद:, वही, १/२/१५१.
१६. मिस्त्रिशोsस्मद्य ष्मदन्या वही, १/२/१५२. १७. एकद्विबहवश्चैकश:. वही, १/२/१५५.
जैन प्राच्य विद्याएँ
१५७
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२.
४.
जैनेन्द्र व्याकरण में धातुओं को दस गणों में विभक्त किया गया है। वे गण तथा उनके विकरण इस प्रकार हैंगण जै० व्या०
अष्टा का० व्या० (आ० प्र०)
चा० व्या० भ्वादिगण शप् २/१/६४ शप्, ३/१/६८
अन्, ६६
शप, १/१/८२ हवादिगण उज, १/४/१४५. श्लु २/४/७५.
अन्, ६६.
लुक्, १/१/८४ अदादिगण उप, १/४/१४३. लुक्, २/४/७२.
लुक १/१/८३. दिवादिगण श्य, २/१/६५. श्यन ,३/१/६६.
यन्, ६७.
श्यन्, १/१/८७ स्वादिगण श्नु २/१/६६. श्नु, ३/१/७३.
नु, ६८.
श्नु, १/१/६५. तुदादिगण श, २/१/७३. श, ३/१/७७
अन्, ६६.
श, १/१/१२ रुधादिगण श्नम्, २/१/७३. श्नम्, ३/१/७८.
न, ७०.
श्नम् ११/१२ ८. तनादिगण
उ, २/१/७४. उ, ३/१/७६ उ, ७१.
उ, १,१,६४. क्रयादिगण श्ना, २/१/७६ श्ना, ३/१/८१
ना, ७२.
श्ना, १/१/१०१ १०. चुरादिगण गिच्, २/१/२२. णिच्, ३/१/२५.
इन, ४५.
णिच्, १/१/४५ इस प्रकार अष्टाध्यायी में प्रयुक्त 'श्लु' एवं लुक् विकरणों के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में 'उज्' एवं 'उप्' विकरणों का प्रयोग किया गया है। उदात्तादि नियमों का अभाव होने के कारण अष्टाध्यायी के 'श्यन्' विकरण के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में 'श्य' विकरण का प्रयोग किया गया है।
पूज्यपाद देवनन्दी ने तिङन्त संबंधी नियमों को प्रस्तुत करते हुए प्रायः सर्वत्र ही पाणिनि का अनुकरण किया है । केवल एकदो स्थलों पर मौलिकता लाने का प्रयास किया है । लुङ लकार के प्रसंग में उन्होंने पाणिनि द्वारा निर्दिष्ट चिल आगम का निर्देश नहीं किया है । पाणिनि ने सर्वप्रथम लुङ परे रहते धातु से च्लि आगम का विधान किया है। तत्पश्चात लि को सिच् आदेश किया है। शर्ववर्म' की भांति पूज्यपाद देवनन्दी ने भी लुङ परे रहते धातु से च्लि का आगम तथा च्लि को 'सिच्' आदेश न करके मौलिकता एवं संक्षिप्तता की दृष्टि से धातु से सि आगम का ही विधान किया है।"
इसी प्रकार पाणिनि ने कर्तृवाची लुङ परे रहते ण्यन्त धातुओं तथा श्रि, द्रु एवं स्रु धातुओं से परे चिल आगम को चङ् आदेश का विधान किया है तथा अचीकरत्, अशिश्रियत्, अदुद्रुवत् एवं असुनुवत् क्रियारूपों की सिद्धि की है।' इसी लुङ् लकार के प्रसंग में पाणिनि ने - पद् धातु से लुड लकार के त प्रत्यय के परे रहते लुङ् लकार में "च्लि' आगम को 'चिण्' आदेश का विधान किया है । चन्द्र गोमी ने भी कर्तृवाची लुङ परे रहते उपर्युक्त धातुओं से चा आगम का विधान किया है तथा इपद् धातु से लुङ लकार में त प्रत्यय परे रहते 'चिण्' आगम का विधान किया है। शर्ववर्मा ने उपर्युक्त दोनों आगमों के स्थान पर क्रमश: 'चण्' एवं 'इच' आगमों का विधान किया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने सूत्रों में मौलिकता लाने के उद्देश्य से उपयुक्त रूपों की सिद्धि के लिए क्रमश: 'कच् एवं 'जि' आगमों का विधान किया है।
१. लि ल ङि, मष्टा० ३/१/४३. २. च्लेः सिच्, अष्टा० ३/१/४४. ३. सिजद्यतन्याम्, का० व्या०, मा० प्र०५८. ४. सिलडि., ज० व्या० २/१/३८. ५. णिश्रिद्र न भ्य: कतरि चङ् अष्टा० ३/१/४८, ६. चिण ते पदः, वही, ३/१/६०. ७. णिश्रिद्र स्र कमः कर्तरि चड.. चा० व्या० १/१/६८. ८. चिण ते पदः, वही, १/१/७६. है. विद्र स कमिकारिताम्तेभ्यश्चण कर्तरि; इजात्मने पदे: प्रथमैकवचने; का० व्या०, मा० प्र०६०६३. १०. णिश्रिद्ध श्रुकमे: कर्तरि कच; निस्ते पदः; जै० व्या० २/१/४३; २/१/५१.
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज मभिनन्दन अन्य
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नामधातुओं की रचना में पूज्यपाद देवनन्दी ने क्यच् काम्य', क्या क्य, पिङ' एवं णिच् प्रत्ययों का प्रयोग किया है। नामधातुओं के प्रसंग में पाणिनि' तथा चन्द्रगोमी ने क्षीर एवं लवण शब्दों से क्यच् प्रत्यय परे रहते असुक् आगम का विधान किया है तथा पररूप सन्धि करके क्षीरस्यति एवं लवणस्यति रूपों की सिद्धि की है। पूज्यपाद देवनन्दी ने उपर्युक्त शब्दों से क्यच् परे रहते 'सुक' आगम का विधान किया है। जिसके परिणामस्वरूप पररूप सन्धि करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। कृत-सूत्र
पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण के द्वितीय अध्याय के अधिकांश सूत्रों में कृत् प्रत्ययों का उल्लेख किया है। जैनेन्द्र व्याकरण के प्रथम अध्याय के प्रथम" तथा चतुर्थ पाद१५ चतुर्थ अध्याय के तृतीय एवं चतुर्थ पाद", तथा पंचम अध्याय के प्रथम द्वितीय, तृतीय", तथा चतुर्थ“ पादों के कतिपय सूत्रों में भी कृत् संबंधी नियम उपलब्ध होते हैं।
पाणिनि ने तिङ् प्रत्ययों से भिन्न प्रत्ययों की कृत् संज्ञा की है।" पूज्यपाद देवनन्दी ने लकारों के स्थान पर आने वाले तिप् तस्, झि'इत्यादि आदेशों को अष्टाध्यायी की अपेक्षा विपरीत क्रम से रखा है। तथा यही कारण है कि जैनेन्द्र व्याकरण में 'तिङ प्रत्याहार के स्थान पर 'मिङ' प्रत्याहार का प्रयोग किया गया है। इसी के परिणामस्वरूप पूज्यपाद देवनन्दी ने मिङ् प्रत्ययों से भिन्न प्रत्ययीं की कृत्संज्ञा की है।
अष्टाध्यायी में निर्दिष्ट 'कृत्य' प्रत्ययों की जैनेन्द्र ब्याकरण में 'व्य संज्ञा की गई है। जैनेन्द्र-व्याकरण में निर्दिष्ट अनेक कृत्प्रत्ययों का (कुछ प्रत्ययों के अतिरिक्त ) अष्टाध्यायी के कृत्प्रत्ययों से पूर्ण साम्य है । जैनेन्द्र ध्याकरण के कुछ कृत् प्रत्यय अष्टाध्यायी,
१. स्वेप: क्यच्,, जै० व्या० २/१/६. २. काम्य:, वही २/१/७. ३. कत्त': क्यङ, सखं विभाषा, वही २/१/९. ४. डाउलोहितात् क्यष्, वही २/१/११. ५. पुच्छभाण्डचीवराणिङ्, वही २/१/१७. ६. मुण्डमिश्रश्लक्ष्णलवणव्रतवस्त्रहलकलकृततूस्तेभ्यो णिच्, वही,२/१/१८. ७. प्रश्वक्षीर वृषलवणानामात्मप्रीती क्यचि: प्रतो गुणे, अष्टा० ७/१/५१ : ६/१/६७. ८. प्रसुक चात्तु म ; अतोऽदेङि ; चा० व्या०६/२/११; ५/१/१०१. .. क्षीरलवणयोलौं ल्ये,जै० व्या०५/१/३३. १०. वही, २/१/८०-१२३; २/२/१-६१, ६१, ६३-६०; १०२-१६६, २/३/८-१०६, १३४, १३६. १४३, १४५-१४८, १५०, २/४/४-६१. ११ वही, १/१/८०, ८१, ६२-६७. १२. वही, १/४/११०, १११, १२६. १३, वही, ४/३/१७-२५, ३४-३७, ४०, ४३-४५, ५६, १७६-१७८, २२५. १४. वही, ४/४/१६, २७, २८, ३०, ३१, ३८-४१, ४७, ५४, ५६-६०, ६४, ६८.६६, ८७-६२. १५. जै० व्या ५/१/३१, ४४-४७, ६५, ६८-१०४, ११६, ११७, १२०, १२२, १२४-१२८, १४१, १४२. १६. वही, ५/२/५६, ५८, ६४-६८, १४४-१४६, १८६. १७ बहो, ५/३/४०, ५६-७४. १८. वही. ५/४/५७,७०,७१, ७५, ८०, १०८-११४. १६. कृदतिङ्, प्रष्टा० ३/१/६३. २०. मिपवस्मस्सिप्थस्थतिप्तस्झी वहिमहि थासाथां ध्वंतातां झङ्। जै० व्या० २/४/६४. २१. मिशिद्ग: वही, २/४/६३. २२. कृदमिड., वही, २/१/८०. २३. कृत्या; प्राड. ज्वलः, अष्टा० ३/१/६५. २४. ण्वोाः , जै० व्या० २/१/८२.
जैन प्राच्य विद्याएँ
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कातन्त्र व्याकरण एवं चान्द्र व्याकरण में उपलब्ध कृत्प्रत्ययों से स्वरूप की दृष्टि से भिन्न है। निम्नलिखित तालिका से यह सुस्पष्ट हैजै० व्या० अष्टा० का० व्या० (कृ० प्र०)
चा० व्या० १. अ, २/२/१४. अच, ३/२/९.
अच्, १६१.
अच्, १/२/३ वृ० २. अच्, २/३/५२. अप, ३/३/५८.
अल्, ३५८.
अप्, १/३/४८, ३. अतृ, २/२/८७. अतृन्, ३/२/१०४.
अन्तृन, २४५.
अतृन्, १/२/७२. ४. इष्णु, २/२/११४. इष्णुच्, ३/२/१३६.
इष्णुच्, २६१.
इष्णुच्, १/२/६०. ५. क्मर, २/२/१४३. क्मरच् ३/२/१६०.
मरक्, २८५.
क्मरच्, १/२/१०६.. ६. क्लुक, क्रुक, क्लुकन्, क्रुकन् ३/२/१७४,
रुक, लुक ३०१.
क्रु, कन, १/२ २/२/१५३. __३/२/१७४. वा०
१२१. ७. क्वि, २/२/५६. क्विन्, ३/२/५८.
क्विप्, २२०.
क्विन्, १/२/४८. ८. ख, २/३/१०४. खल्, ३/३/१२६.
खल, ४१६.
खल्, १/३/१०३. ६. , २/३/७६. णच, ३/३/४३.
णच्, ३५७.
णच्, १/३/७६ १०. जिन्, २/३/६६ इनुण, ३/३/४४.
इनुण, ३५६.
इनु, १/३/७३. ११. टाक, २/२/१३८. षाकन्, ३/२/१५५.
षाक,२८०.
षाकन्, १/२/१०३ १२. ट्वु, २/१/११६. बुन ३/१/१४५.
वुष, १४५.
वुन, १/१/१५७. १३. ण्य, २/१/१०२ ण्यत्, ३/१/१२५.
ध्यण, १२१.
ण्यत्, १/१/१३२. १४. ण्यु, थक, २/१/१२०. थकन्, ण्युट्
थक, ण्युट, १४६, १४७,
थकन् ण्यट् १/१/१५४ ३/१/१४६, १४७
१५५, १५. ण्वु, २/१/१०६. ण्वुल, ३/१/१३३.
पुण, १३१
ण्वुल्, १/१/१३६ १६. त्र, ४/४/१२. न्, ६/४/६७.
वन्, १६.
त्रन्, ६/१/६०. १७. त्रट, २/२/१६०. ष्ट्रन्, ३/२/१८२.
ष्ट्रन्,३०६. १८. प्य, ५/१/३१. ल्यप्, ७/१/३७.
यप्, ४८५.
ल्या , ५/४/६. १६. वन्, २/२/६२. वनिप्, ३/२/७४.
वनिप्, २१६.
वनिप् १/२/५३. २०. वनिप्, २/२/८६. ङ वनिप्, ३/२/१०३.
ङवनिप् २४४.
क्वनिप् वनिप्
- १/२/७१. वृ० २१. वसु, २/२/८८. क्वसु- ३/२/१०८.
क्वंसु, २४६.
क्वसु, १/२/७४. २२. वुण, २/३/६०. ण्वुल ३/३/१०६.
वुन ४०५.
ण्वुच्, १/३/६१ २३. वुण् २/३/६२. ण्वुच्, ३/३/१११.
पुञ, ४०६.
ण्वुच्, १/३/६१. २४. शान, २/२/१०२ शानच्, ३/२/१२४.
आनश्, २४७. २५. शान, २/२/१०६. शानन्, ३/२/१२८.
शानङ, २५३.
शानच्, १/२/८६ २६. शान, २/२/१०७. चानश्, ३/२/१२/t.
शानङ, २५४.
शानच्, १//८७: २७. स्नुख, २/२/५४. खिष्णुच्, ३/२/५७.
खिष्ण, २०८.
खिष्णुच्, १/२/४६. कृत्प्रत्ययों की उपर्युक्त तुलनात्मक सूची से सुस्पष्ट है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने पाणिनि के द्वारा उदात्तादि स्वरों की दृष्टि से निर्दिष्ट अनुबन्धों का सर्वत्र निराकरण किया है । यही कारण है कि जैनेन्द्र व्याकरण के कुछ कृत्प्रत्यय अष्टाध्यायी में निर्दिष्ट कृत्प्रत्ययों की अपेक्षा स्वरूप की दृष्टि से भिन्न हैं । अष्टाध्यायी में प्रत्ययों के अनुबन्धों का स्वरादि की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी का 'ण्यत्" कृत् प्रत्यय तित् होने के कारण स्वरित है' तधा 'खल्"प्रत्यय के लित् होने के कारण उससे १. ऋहलोर्ण्यत्, अष्टा० ३/१/१२४. २. तित् स्वस्तिम्, वही, ६/१/१८५. ३. ईषदुःषु कच्छाकृच्छार्थेष खन्, वही, ३/३/११६. १६०
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पूर्ववर्ती वर्ण उदात्त होता है। जैनेन्द्र व्याकरण में उदात्तादि संबंधी अनुबन्धों की आवश्यकता न होने के कारण उपरिनिर्दिष्ट 'ण्यत्' एवं 'खल' प्रत्ययों के स्थान पर क्रमश: ‘ण्य' एवं 'ख' प्रत्ययों का ही निर्देश किया गया है । जैनेन्द्र-व्याकरण में उदात्तादि संबंधी अनबंधों के निराकरण से कृत्प्रत्ययों की संख्या में पर्याप्त कमी हुई है । उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि अष्टाध्यायी के शानच्, शानन एवं चानश् कृत्प्रत्ययों के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में शान प्रत्यय का प्रयोग किया गया है । अष्टाध्यायी के ण्वुल् एवं ण्वुच् प्रत्ययों के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में 'वण्' प्रत्यय निर्दिष्ट है। इस प्रकार पाणिनि ने जिन शब्दों की सिद्धि भिन्न भिन्न प्रत्ययों के योग से की है उनकी सिद्धि के लिए पूज्यपाद देवनन्दी ने एक ही प्रत्यय का निर्देश किया है । उदाहरण के लिए पाणिनि ने 'पचमानः' की सिद्धि शानच, पवमानः एवं यजमान: की सिद्धि शानन्' तथा भुजानः (भोगं भुजान:) एवं विभ्राणः (कवचः विभ्राणः ) की सिद्धि चानश प्रत्यय के योग से की है। किन्तु पूज्यपाद देवनन्दी ने उपयुक्त शब्दरूपों को सिद्धि केवल एक ही प्रत्यय 'शान' के योग से की है।'
एक ही शब्द की सिद्धि के हेतु अष्टाध्यायी, कातन्त्र व्याकरण, चान्द्र व्याकरण एवं जैनेन्द्र व्याकरण में भिन्नभिन्न प्रत्ययों का प्रयोग किया गया है। किन्तु सभी व्याकरण-ग्रन्थों में शब्दरूप समान ही निष्पन्न हुआ है। उदाहरण के लिए
१. जल्पाकः, भिक्षाकः, कुट्टाकः प्रभृति कृदन्त रूपों की सिद्धि में पाणिनि' एवं चन्द्रगोमी' ने 'षाकन' प्रत्यय का प्रयोग
किया है। कातन्त्र व्याकरण में पाक प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। जबकि पूज्यपाद देवनन्दी ने उपयुक्त शब्दों की
सिद्धि टाक' प्रत्यय के योग से की है।" २. नर्तकः, खनकः, रजक: प्रभृति कृदन्त रूपों की सिद्धि पाणिनि' एवं चन्द्र गोमी" ने 'वुन्' प्रत्यय के योग से की है।
कातन्त्र-व्याकरण में उपर्युक्त रूपों की सिद्धि 'वुष्' प्रत्यय के योग से की गई है।" पूज्यपाद देवनन्दी ने उपर्य'क्त शब्दों
को ट्व प्रत्यय के योग से सिद्ध किया है। ३. इसी प्रकार दात्रम, नेत्रम्, शस्त्रम् आदि कृदन्त शब्दों की सिद्धि में अष्टाध्यायी" एवं कातन्त्र व्याकरण" में 'ष्ट्रन'
कृत्प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। चन्द्रगोमी ने (ष्ट्रन् उणादि प्रत्ययान्त) उपर्युक्त शब्दों का वृत्ति में निर्देश किया है। जबकि पूज्यपाद देवनन्दी ने उपर्युक्त शब्दों को 'ट्' प्रत्यय के योग मे निष्पन्न किया है।"
१. लिति, वही, ६।१११६३. २. ज्य:, जै० व्या० २/१/१०१. ३. स्वीषसि कृच्छाकन्छ ख:, वही, २/३/१०४. ४. लट: शत् शानचावप्रथमासमानाधिकरणे, प्रष्टा० ३/२/१२४. ५. पूड, यजो: शानन्, वही, ३/२/१२८. ६. ताच्छील्यवयोव वनशक्तिषु चानश्, वही, ३/२/१२६. ७. तस्य शतृशानायकाय; पूछ पजोः शानः, वय: शक्तिलीले; जै० व्या २/२/१०२; २/२/१०६; २/२/१०७. ८. जल्प-भिक्षकट्टलुण्टवृक्षः षाकन्, मष्टा० ३/२/१५५. ६. जल्प भिक्षकट्टल टवृक्ष: पाकन्, चा० व्या१/२/१०३. १०. वृड मिक्षि ल.ष्टि-जल्पि कुट्टां पाकः, का० व्या०, कत् प्रकरण २८०, सम्पा० गुरुनाथ विद्यानिधि भट्टाचार्य, कलकत्ता, बगाब्द, १३४४. ११. अल्पभिक्षकुट्टल ण्टवडष्टाकः,जै० भ्या० २/२/१३८. १२. शिल्पिनि ब्वन. अष्टा० ३/१/१४५. १३. नृतिबनिरज: शिल्पिनि वुन, चा०व्या० १/१/१५०.
विष का० भ्या०.०प्र०१४५. शिल्पिनि ट्वः,जेण्या०२/१/११६. १६. बाम्नीशस युयुजस्तु तुदसिसिच मिहपतदश नह : करणे, अष्टा०३/२/१८२. १७. नी दाप-शस-य-युज स्तु-तुद-सि-सिंच मिह-पत दनश-नहां करणे, का० व्या०,०प्र० ३०६. १८. पा . १/२/१२३. १९. बाम्नीशसययुज स्तृतुदसिसिचमिहपतदशनह: करणे ब्रट,०व्या. २/२/१६..
जन प्राच्य विधाएं
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४. व्यावलेखी, व्यावहारी प्रभृति कृदन्त शब्दों की सिद्धि अष्टाध्यायी', कातन्त्र व्याकरण एवं चान्द्र व्याकरण' में __णच् प्रत्यय के योग से की गई है । पूज्यपाद देवनन्दी ने उपर्युक्त रूपो की सिद्धि 'ञ' प्रत्यय द्वारा की है।
अष्टाध्यायी' एवं कातन्त्र व्याकरण' में 'णम्' (णमुल्) प्रत्ययान्त रुक्षपेषं शब्द की सिद्धि की गई है । चान्द्रवृत्ति में भी किषम' शब्द निर्दिष्ट है। पूज्यपाद देवनन्दी ने 'रूक्षपेषं' शब्द का निर्देश न करके उसके स्थान पर (णम् प्रत्ययान्त) भक्षपेषं शब्द की सिद्धि की है। सम्भब है कि पूज्यपाद देवनन्दी के समय में उक्त शब्द भाषा में प्रयुक्त होता था।
हत् (तद्धित) सत्र
अन्य सूत्रों की अपेक्षा जैनेन्द्र-व्याकरण में तद्धित से संबंधित सूत्रों की संख्या अधिक है। पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्रपाकरण के ३/१/६३ सूत्र से लेकर सम्पूर्ण तृतीय अध्याय, चतुर्थ अध्याय के सम्पूर्ण प्रथम पाद एवं द्वितीय पाद के ६४वें सत्र नति से संबंधित नियमों को प्रस्तुत किया है । तद्धित संबंधी अन्य कुछ नियम जैनेन्द्र-व्याकरण के प्रथम अध्याय के चतर्थ पाद'. चत अध्याय के चतर्थ पाद", पंचम अध्याय के द्वितीय" तथा तृतीय पादों के कुछ सूत्रों में निर्दिष्ट हैं।
तदिधत' के लिए जैनेन्द्र-व्याकरण में 'हृत्' संज्ञा का प्रयोग किया गया है।" जैनेन्द्र-व्याकरण के तद्धित प्रत्यय अष्टाध्यायी. कातन्त्र एवं चान्द्र-व्याकरण के तद्धित प्रत्ययों से अनुबन्ध की दृष्टि से भिन्न हैं । नीचे दी गई प्रत्यय-सूची से यह स्पष्ट हैजै० व्या
अष्टा० काव्या
चा व्या० १. अ, ४/१/५०. अच्, ५/२/१२७
अच्, ४/२/१४७ २. अ, ४/१/७८
अत्, ५/३/१२ ३. अ, ३/३/८.
अल, ४/३/३४ वा० ४. अक. ४/१/१३०. अकच्, ५/३/७१.
अकच्, ४/३/६० ५. अञ , नुगागम, ३/१/७२. नत्र, स्नन ४/१/८७.
ना , स्ना, २/४/१३. ६. अड, वु, ४/१/१३६. अडच्, वुच्, ५/३/८०
ड, अकच ४/३/६५ ७. अण, ३/२/८५. अञ , ४/२/१०८.
अ, ३/२/१६ ८. अण, ञ, ४/२/२२. णच्, अञ, ५/४/१४
णच्, अण, ४/४/२१. ६. अतस्, ४/१/६४. अतसुच्, ५/३/२८
तस्, ४/३/३८. १०. अस्तात , ४/१/६२. अम्ताति, ५/३/२७.
अस्ताति, ४/३/२८. ११. आकिन्, ४/१/११३. आकिनिच्, ५/३/५२.
आकिनिच्, ४/२/६७. १२. आल, आट ४/१/४६. आलच , आटच्, ५/२/१२५
आलच्, आटच् ४/२/१४६. १३. इत, ३/४/१५७ इतच्, ५/२/३६
इतच , ४/२/३७.
। । । । । । । । । । । । ।
१. कर्मव्यतिहारे णच स्त्रियाम्, मष्टा० ३/३/४३. २. कर्मव्यतिहारे णच स्त्रियाम्, का. व्या०,०प्र० ३५७.
व्यतिहारे णच, चा० न्या० १/३/७६. ४. कर्मव्यतिहारे ब:,जै० व्या० २/३/७६. ५. शुष्क पूर्णरुक्षेष पिषः, अष्टा० ३/4/३५. ६. शुकचूर्णरुक्षेषु पिषः, का. व्या०.१० प्र०४४७. ७. चा० ० १/३/१३५. ८. शुष्कचूर्णमझेषु पिष:, जै० व्या० २/४/२.. ९. वही, १/४/१३०-१४१. १०. जे. ज्या०, ४/४/१२३, १३०-१३५, १४१-१६६. ११. वही, ५/२/५-३५, ५४, ५५. १२. वही, ५/३/१-१३, ३१-३५. १३. हृतः, वही, ३/१/६१.
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आचार्यरल श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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अष्टा
का व्या०
चा० व्या० इनि, ३/१/५७ इनि, कक्, ३/१/६८.
जै० व्या १४. इन्- कट्य, ३/२/४४ १५. इन्, कण, ३/२/६०. १६. इन, पिट, ३/४/१५३-१५४. १७. इम, ३/३/१४३, १८. इमन्, ३/४/११२. १६. इल, ४/१/२६ २०. ईर, ४/१/३७. २१. एन, ४/१/६९ २२. क, ३/२/१०६ २३. क, ३/३/५. २४. कट्, ३/४/७१. २५. कट, ३/४/१४६. २६. कण्. ३/३/१४६. २७. कप्, ३/४/३० २८. कुटार, ३/४/१५० २६, कुण, जाह, ३/४/१४४ ३०. ग्मिन, ४/१/४८. ३१. घ, ३/२/२१ ३२. चुञ्चु, चण, ३/४/१४६. ३३. छणुः, ३/१/१२१. ३४. जातीय, ४/१/१२८. ३५. जित् वुन्, ३/३/६४ ३६. जिन्, ४/२/२१. ३७. फ, ३/१/८७. ३८. य, ३/१/१५३. ३६. य. ३/१/१५३. ४०. टीकण, ३/३/१७७. ४१. टीट, नाट, भ्रट्,
३/४/१५१. ४२. टेन्यण, ३/३/८८ वा.. ४३. ट्फण, ३/३/७८. ४४. ट्यण, ३/४/११४. ४५. 8, ३/२/६० ४६. ठ, ३/३/२. ४७. ठ, य, ३/४/१८ ४८. ठा, ३/२/१७. ४६. ठट्, ३/३/१३३.
५०. ठट्, ठ, ३/३/१५४. जैन प्राच्य विधाएँ
इनि, कट्यच्, ४/२/५१ इनि, कक्, ४/२/८० इनन् पिटच ५/२/३३. मप्, ४/४/२० इमनिच्, ५/१/१२२ इलच्, ५/२/६६. ईरन , ईरच, ५/२/१११. एनप्, ५/३/३५ कन्, ४/२/१३१ वुन , ४/३/२८.
कन्, ५/१/७५. कटच्, ५/२/२६ कक्, कन्, ४/४/२१. ईकन्, ५/१/३३. कुटारच्, ५/२/३०. कुणा, जाहच ५/२/२४. ग्मिनि, ५/२/१२४ धन्, ४/२/२६. चुञ्चुप्, चणप्, ५/२/२६. छण, ४/१/१३२. जातीयर्, ५/३/६६ बुन, ४/३/१२६ इनु, ५/४/१५.
फा, ४/१/६८. त्र्या, ४/१/१७१. ण्य, ४/१/१७२. ईकक्, ४/४/५६ टीटच्, नाटच्, भ्रटच , ५/२/३१. षेण्यण, ४/३/१२० वा. फक्, ४/२/88 व्य, ५/१/१२४ ठच, ४/२/८० ठप्, ४/३/२६. ठन्, यत्, ५/१/२१. ठक्, ४/२/२२. ष्ठन्, ४/४/१०. ष्ठन्, ष्ठच्, ४/४/३१.
।। । । । । । । । । । | | | | | | | ||
इमप्, ३/४/२०. इमनिच्, ४/१/१३६ इलच्, ४/२/१०३. ईरच, ४/२/११५. एनप्. ४/३/४१. का, ३/२/४६. कन् ३/३/२. ष्ठन्, ४/१/८७. कटच , ४/२/३.. कक्, कन्, ३/४/२१. ईकन्, ४/१/१४२. कुटारच , ४/२/३१. कुणप्, जाहच ४/२/२४ ग्मिनि, ४/२/१४५. घन , ३/१/२३. चुचुप्, चणप्, ४/२/२७ छण, २/४/६७ जातीयर्, ४/३/२६, वुन, ३/३/६४ इनुण, ४/४/२१ फ्या , २/४/३३. ज्यङ, २/४/६८. ण्य, २/४/१०१. टीकक्, ३/४/६. टीटच, नाटच्, भ्रटच , ४/२/३२. षेण्यण, ३/३/१०२.
फक्, ३/२/८. ष्यम् ४/२/१४० ठन्, ३/१/६८ ठप्, ३/३/१. ठन्, यत्,, ४/१/३१. ठक् ३/१/१९ ष्ठन् ३/४/८. उन, ३/४/३८.
आयनण्, २६०.
यण ३०१.
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१६४
जं० व्या०
५१. ठणू, ३ / २ / ३० २२. ३/३/१२७.
५३. ठद्, ३/३/४५.
५४. १/४/२२५५.४४/२/६
५६. उतम ४/१/१४८.
५७. इतर ४/१/१४७.
५८. मितु, ३/२/६७.
५६. बिल ३/२/६९
1
६०. दुप. ४/१/१०४. ६१-५३/४/२१. ६२. ३/१/१०९
६३. ढण्, ३/२/१५. ६४. टिनिण्, ३/३/८०
६५. . ३/१/११९
६६. गार ३/१/११८.
६७. णिन् ३/३ / ७७
३/२/११७.
६८.
६२. ३/२/०३
७०. ण्य, ३/३/६९
७१.३/४/११०. ७२. तन ३/२/१३५ ०३. तर ४/२/१०५.
७४. तस्,, ३/३/८२
७५. तिक ४ / २ / ४५.
७६. तु. व. ३/२/८१
७७. त्यण ३/२/७७.
७० वन ३/४/११० त्वन्,
७९. यम् ४/१/९०. ८०. प ३/४/६
१. ३/१/२०.
८२. ३/१/७६ ८३. बहु. ४/१/१२७.
४ वि विरीस ३/४/१५२.
८५. मतु, ४/१ / २३.
६. ३/२/४२.
८७. ३/४/७०
J
अष्टा०
४/२/१५.
ठक, ४/४/२.
ष्ठन् ४/३/७०
टिठन्, ५/१/२५. उच्, ५/४/०२. उतनच ५/२/१३
उतर. ५/३/२२. तृषु. ४/२/०७
लघु ४/२/२. दुपय् ५/३/१९
बुन, ४/१/२४
ढक्, ४/१/१२०
४/२/२० दिनु, ४/३/१०६ बुक,, ४/१/१२०
आरम् ४/१/१३०
पिनि, ४/३/१०६ ऐर, ४/१/१२०
म. ४/२/१०६
य, ४/३/६४
५/१/१२० ट्युट्युल तुट् ४/३/२३ प्र५/३/१०
तसि, ४ / ३ / ११३. तिरुन ५/४/३६ ४/२/१०४
त्य, ४/२/२०
स्व. २/१/११.
५/३/२४-२५. x/1/4.
फ, ४/१/१७
फक ४/२/११
का० व्या० ( च० प्र० )
बहुष ५/३/६०
बिड, विरीसच ४/२/३२
मतुप् ५ / २ / ९४.
घन्, ४/२/४२
यत् ५/१/०१
इकण्, २६५.
एयण्, २६१
त्व, ३००
धमु, ३२६
मन्तु, ३०२
१० व्या०
उञ, ३/१/३२.
ठ, २/४/२.
ष्ठन्, ३/३/४२.
ठ, ४/१/२५.
xw, V/X/ex. उत्तमच. ४/३/७६
डतरच् ४/३/७२.
ड्वन्, ४/१/३७. ढक्, २/४/५०.
३/१/१७. तिनुकू १/२/०६ एर २/४/६५.
आरग्, २/४/६१. पिनि २/३/७२ऐक २/४/५०
म. ३/२/१८
ध्यान, ४/१/१४४ ०. ३/२/७६
स्टर ४/३/०३
तिकन, ४/४/२३स्पु, ३/२/१३.
त्यक्, ३/२/७
स्व. ४/१/१३६
व्यन्, ४/१/
मतुप, ४ / २ / २०
पत्र ३/२/५०. यत्, ४/१/९६.
आचार्यरत्न भी देशभूषण जी महाराज अभिनव प्रय
डफ,
२/३/१६
फक्, २/४/११२
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I
। । । । । ।
जै० व्या०
अष्टा० का० ज्या० (च० प्र०)
चा० व्या० ८८. ल, ४/१/२४ लज्, ५/२/६६
लज्, ४/२/६६. ८६. वत्, ३/४/१०६
वति, ५/१/११७.
वति, २६६. वति, ४/१/१३५. १०. वतु, ३/४/१६०. वतुप्, ५/२/३६
वतुप, ४/२/४३ ६१. वल, ३/२/६८.
वलच्, ४/२/८९ ६२. विध, भक्त, ३/२/४७ विधल्, भक्तल, ४/२/५४
विधल्, भक्तल् ३/१/६३. ६३. वा ३/२/६८ वुक, ४/२/१०३
बुक्, ३/२/१२. १४. व्य, /१/१३३. व्यत्, ४/१/१४४
व्यत्, २/४/६४. ६५. शाल, शङ कट ३/४/१४८. शालच्, शङ कटच् ५/२/२८.
शालच् शङ्कटच्, ४/२/२६ ६६. ष्टलन, ३/३/१०७ ट्ला ४/३/१४२.
ष्टलच, ३/३/११६. ६७. ष्य, ३/१/६३ व्यङ्, ४/१/७८.
व्यङ, २/३/८२. १८. सात्, ४/२/५७. साति, ५/४/५२. साति, ३४६.
साति,४/४/३७. उपर्युक्त तद्धित प्रत्ययों के तुलनात्मक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि१. स्वर की दृष्टि से पाणिनि द्वारा निर्दिष्ट तद्धित प्रत्ययों के अनुबन्धों को पूज्यपाद देवनन्दी ने हृत, (तद्धित) प्रत्ययों
में कोई स्थान नहीं दिया है । उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी का एनप' प्रत्यय पित होने के कारण अनुदात्त है किन्तु जैनेन्द्र व्याकरण में अनुबन्ध रहित एन' प्रत्यय विहित है। पाणिनि के अनुसार चित् (बहुच्) तद्धित प्रत्यय से निर्मित शब्द का अन्य वर्ण उदात्त होता है। किन्तु पूज्यपाद देवनन्दी ने अनुबन्ध रहित 'बहु' प्रत्यय का विधान
किया है। २. पूर्ववर्ती वैयाकरणों द्वारा निर्दिष्ट 'क्' एवं 'ञ' अनुबन्धों के स्थान पर पूज्यपाद देवनन्दी ने 'ण' अनुबन्ध दिया है
(फक, त्यक, ढञ एवं यक्, के लिए क्रमश: फण्, त्यण , ढण् एवं ण्य तद्धित प्रत्ययों का निर्देश किया है)। कहीं-कहीं पर तद्धित प्रत्ययों में विद्यमान 'क्' एवं 'ण' अनुबन्धों के स्थान पर पूज्यपाद देवनन्दी ने '' अनुबन्ध दिया है
(वुक्, ण्य, अा, (ञ) के लिए क्रमश: वुञ, ञ्य एवं अण् प्रत्ययों का निर्देश किया है)। ३. पाणिनि एवं चन्द्रगामी द्वारा प्रयुक्त 'ष' अनुबन्ध के स्थान पर पूज्यपाद देवनन्दी ने 'ट' अनुबन्ध का प्रयोग किया है
(फक्, षेण्यण एवं ब्फ के लिए क्रमश: ट्फट, टेन्यण् एवं फट का निर्देश किया है)।
सायंतनम्, चिरंतनम्, प्राह णेतनः, प्रगेतनः, आदि तद्धितान्त शब्दों को सिद्धि जैनेन्द्र-व्याकरण में सरल रूप में प्रस्तुत की गई है। सायं, चिरं, प्राहणे, प्रगे एवं कालवाची अव्ययों से परे पाणिनि ने ट्यु एवं ट्युत् प्रत्ययों तथा 'तुट' आगम का विधान किया है (सायं +ट्यु-सायं+तुटु + यु)। तत्पश्चात् 'यु' को अनादेश (सायं+त् +अन) करके सायं तनम् आदि शब्दों की सिद्धि की है। चन्द्रगोमी ने 'ट्यु' प्रत्यय एवं 'तुट, आगम की गहायता से सायंतनम् आदि शब्दों की रचना की है।' चन्द्र गोमी ने भी यु को अनादेश किया
१. एनबन्यतरस्यामदूरेऽपञ्चम्या:, प्रष्टा० ५/३/३५. २. अनुदात्तो सुप्पिती, वही, ३/१/४.
दनोऽदूरेऽकाया :, . व्या० ४/१/६६. ४. विभाषा सुपो बहुच पुरस्तात्तु, अष्टा० ५/३/६८. ५. तद्धितस्य, वही, ६/१/१६४. ६. वा सुपो बहु : प्राक्त, जै० व्या० ४/१/१२७. ७. साचिरंपाहणेप्रगेव्ययम्यष्ट्य ट्युलो तुट, च, प्रष्टा० ४/३/२३. ८. युवोरनाकी, वही, ७/१/१. १. प्राह णेप्रगेसायंचिरमसंरब्याट् ट्युः, चा० च्या० ३/२/७६. जैन प्राच्य विद्याएँ
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है। इस प्रकार अष्टाध्यायी एवं चांद्र-व्याकरण दोनों ही ग्रन्थों में उपर्युक्त रूपों की सिद्धि में 'य' को 'अन' आदेश करने की आवश्यकता पड़ती है। पूज्यपाद देवनन्दी ने प्रक्रिया में सरलता एवं संक्षिप्तता लाने के उद्देश्य से उपयुक्त रूपों की सिद्धि तनट् प्रत्यय के योग से की है।' तथा पाणिनि एवं चन्द्रगोमी द्वारा दो सत्रों को सहायता से सिद्ध किए गए शब्दों को एक ही सूत्र से सिद्ध किया है।
पूज्यपाद देवनन्दी ने 'नत्र उपपद' पूर्वक चपल शब्द को जित्, णित् तद्धित प्रत्यय परे रहते नित्य वृद्धि (ऐप ) का विधान किया है तथा पूर्वपद नञ् (अ) को विकल्प से वृद्धि का 'विधान' करके 'अचापलम् एवं 'आचापलम्' तद्धितान्त शब्दों की सिद्धि की है।' पूज्यपाद देवनन्दी से पूर्ववर्ती वैयाकरणों ने उपयुक्त दोनों शब्दों के लिए कोई नियम नहीं दिया है । इससे यह सर्वथा अन मेय है कि पज्यपाद देवनन्दी के समय में 'अचापलम्' एवं 'आचापलम्' दोनों शब्द भाषा में प्रयुक्त होते थे। अनेन्द्र-व्याकरण में वैदिक प्रयोग संबंधी नियमों का स्वरूप
जैनेन्द्र-व्याकरण लौकिक भाषा का व्याकरण है । पूज्यपाद देवनन्दी ने स्वर एवं वैदिक प्रक्रिया संबंधी नियमों को जनेन्द्रव्याकरण में स्थान न देते हुए भी वैदिक साहित्य में प्रयुक्त होने वाले कुछ शब्दों को 'कृत्प्रयत्ययों के प्रसंग में प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के शब्द सान्नायय, धायया, आनाय्य', कुण्डपायय, सञ्चाय्य, परिचाय्य, उपचाय्य, चित्य, अग्निचित्ये' एवं ग्रावस्तूत हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पज्यपाद देवनन्दी के समय में लौकिक संस्कृत में इन शब्दों का प्रयोग होता था । प० अंबालाल प्रेमचन्द्र शाह के अनसार जैनेन्द्र-व्याकरण एक लौकिक-व्याकरण है तथा इसमें छान्दस् प्रयोगों को भी लौकिक मानकर सिद्ध किया गया है।
पज्यपाद देवनन्दी ने 'सास्य देवता" प्रकरण के अन्तर्गत शुक्र, अपोनप्त, अपान्नप्त महेन्द्र, सोम वाय, उषस', द्यावापथिवी. सनाशीर. मरुत्वत . अग्नीषोम, वास्तोष्पति, गहमेध आदि देवताओं के नामों का उल्लेख किया हैं।' जेनेन्द्र-व्याकरण में तेन पोरन .. ३२३७६) सत्र के प्रसंग में वैदिक शाखाओं एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों के नामों का भी निर्देश उपलब्ध होता है। यद्यपि उपर्यत' नामों का और साहित्य के लिए किञ्चिद मात्र भी उपयोग न था तथापि अष्टाध्यायी की सामग्री की रक्षा करने के उद्देश्य से पज्यपाद देवनन्दी ने उन नामों को जैनेन्द्र व्याकरण में स्थान दिया है।
जैनन्द-व्याकरण में कौ वेतौ (जै० व्या० १११२४), 'उञः' (ज० व्या० १२०२५) एवं 'ऊम्' (जै० व्या. १९२६) सूत्र दिए गए हैं। पं० युधिष्ठर मीमांसक के अनुसार उपयुक्त सूत्रों के पाठ एवं वृत्ति से यह प्रतीत होता है कि इनके प्रयोग क र लोकभाषा है किन्त प्रतिपाद्य विषय वैदिक है। उनका कथन है कि जिस प्रकार पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी केणे' | ET १।१।१३) तथा ईदूतो च सप्तम्यर्थे' (अष्टा० १११९) सूत्रों के प्रतिपाद्य विषय के लिए सूत्रों की रचना नहीं की वैसे ही उप के लिए भी न करते । पं० युधिष्ठिर मीमासक के अनुसार उपयुक्त सूत्रों के उल्लेख से यह सुस्पष्ट है कि पूज्यपाद देवनन्दी को लौकिक भाषा से सम्बद्ध माना है, किन्तु यह उचित नहीं है क्योकि लोक में ऐसे प्रयोग उपलब्ध नहीं होते।"
१. युनोरनाकावसः, चा० व्या० ५/४/१. २. सायश्विरम्प्राह प्रमझिम्यस्तनट्, जै० व्या० ३/२/१३६. ३. नम: मुचीश्वरक्षेत्राकुशल चपल निपुणानाम्, वही, ५/२/३४. ४. पाग्यसान्नायनिकाय्य धाग्याsनाय्या प्रणाय्या मानहविनिवाससाभिधे न्यनित्यासम्मतिय, वही, २/१/१०४. १. कुणपाच्या संचाम्पपरिचाय्योपचाग्य चित्पाग्निचित्याः, वही, २/१/१०१. ६. ग्रावस्वर: क्विप्, वही, २/२११५६. ७. शाह, अंबालाल प्रे०० सा० ० इ०, पं० भा०, पृ.६. ८. सास्य देवता, जै० व्या० ३/२/१९. १. प्र.-वही, ३/२/२१-२७. १०. ०-वही; ३/३/७६-८० १. मीमांसक, युधिष्ठिर, जै० म०. भूमिका, ४६.
माचार्यरल भी वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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अष्टाध्यायी के सभी वैदिक प्रयोग संबंधी नियमों के लिए पूज्यपाद देवनन्दी के सूत्र नहीं दिए हैं, किन्तु कुछ वैदिक नियमों के समकक्ष सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण में उपलब्ध होते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार के प्रयोग उस समय लोक-भाषा में प्रचलित थे। इस प्रकार के सूत्रों की सची निम्न निर्दिष्ट है
ज० व्या०
अष्टा० १. अनन्तस्यापि प्रश्नाख्यानयोः, ५।३।१०३.
अनन्तस्यापि प्रश्नाख्यानयोः, ८।२।१०५ २. एचोऽदेः पूर्वस्यात्परस्येदुतौ, ५३३।१०४.
एचोऽप्रगृह्यस्यादूराद्धृते पूर्वस्याद्धस्यादुत्तरस्येदुती,
८।२।१०७. ३. ओमभ्यादाने, ५।३।६५.
ओमभ्यादाने, ८।२।८७ ४. कोपाऽसूयासम्मतो भ्रौ बा, ५।३।१०१.
स्वरितमामेडिते सूयासंमतिकोप कृत्सनेषु, ८।२।१०३. ५. क्षियाशी: प्रेषेषु मिडाकाङ्क्षम् ५।३।१०२.
क्षियाशी: प्रषेषु तिङाकाङ्क्षम्, भा२।१०४. ६. चिदित्युपमार्थे, ५।३।१००.
चिदिति चोपमार्थे प्रयुज्यमाने, ८।२।१०१. ७. पूजिते, ५।३।६६
अनुदात्त प्रश्नान्ताभिपूजितयोः, ८।२/१००. ८. प्रतिश्रवणे ५/३/६८
प्रतिश्रवणे च, ८/२/8E ६. बाह्वन्तकद्र कमण्डलुभ्यः, ३१/६०
कद्र कमण्डल्वोश्छन्दसि, ४/१/७६ १०. मन्वन्क्वनिढिवचः क्वचित् २/२/६२
आतो मनिन्वनिब्वनिपश्च, ३/२/७४ ११. यवावचि सन्धौ ५/३/१०५
तयोर्वावचि संहितायाम् ८/२/१०८ १२. वा हेः पृष्टप्रत्युक्तौ ५/३/६६
विभाषा पृष्ट प्रतिवचने ८/२/६८ १३. विचार्य पूर्वम्, ५/३/६७
पूर्व तु भाषायाम्, ८/२/६८ १४. हेमन्तात्तखम् ३/२/१३८
हेमन्ताच्च ४/३/२१ अभयनंदी ने उपयुक्त सूत्रों के वैदिक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं । अष्टाध्यायी के सूत्रों में निर्दिष्ट 'छन्दसि' शब्द का पूज्यपाद देवनन्दो ने निराकरण किया है। जैनेन्द्र व्याकरण का परवर्ती इतिहास
जैन विद्वान् की कृति होने के कारण जैनेन्द्र व्याकरण में जैन-प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक ही है । यही कारण है कि जैनेन्द्र व्याकरण ब्राह्मणवाद के प्रभाव से सर्वथा मुक्त है। उक्त-व्याकरण ग्रन्थ पर लिखी गई टीकाओं से इस व्याकरण की प्रसिद्धि सहज ही अनुमेय है । अभयनन्दी कृत महावृत्ति जैनेन्द्र व्याकरण की एक विस्तृत एवं श्रेष्ठ टीका है। उक्त टीका में पाणिनीय व्याकरण की सामग्री की रक्षा करने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है। जैनेन्द्र महावृत्ति पर काशिकावृत्ति का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। ऐसा होते हुए भी अभयनन्दी-कृत जैनेन्द्र महावृत्ति में ऐसी सामग्री भी उपलब्ध है, जिसको काशिकावत्ति में स्थान नहीं दिया गया है। उदाहरणस्वरूप सूत्रों के उदाहरणों में जैन तीर्थंकरों, महापुरुषों तथा जन-ग्रन्थों के नाम उपलब्ध होते हैं। इसके साथ ही साथ कात्यायन के वात्तिक और पतंजलि-कृत महाभाष्य की इष्टियों में सिद्ध किए गए नए रूपों को पूज्यपाद देवनन्दी ने सूत्रों में अपना लिया है। इसलिए भी यह व्याकरण ग्रन्थ जैन सम्प्रदाय में विशेष लोकप्रिय रहा होगा। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार 'इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनीय व्याकरण, कात्यायन के वात्तिक और पतंजलि के भाष्य के पूर्ण मर्मज्ञ थे, एवं जैन धर्म और दर्शन पर भी उनका असामान्य अधिकार था । वे गुप्त युग के प्रतिभाशाली महान् साहित्यकार थे जिनका तत्कालीन प्रभाव कोंकण के नरेशों पर था, किन्तु कालान्तर में जो सारे देश की विभूति बन गए।"" अनेक विद्वानों ने किसी आचार्य की व्याकरण-शास्त्र में निपुणता को दर्शाने के लिए पूज्यपाद देवनन्दी को उपमान रूप में ग्रहण किया है। श्रवणबेल्गोल ग्राम के उत्तर में स्थित चन्द्र गिरि पर्वत के शक संवत् १०३७
१. अग्रवाल, वासुदेवशरण, ज०म० वृ, भूमिका, पृ० १२.
जैन प्राच्य विद्याएं
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________________ के शिलालेख (संख्या 47) तथा शक संवत् 1068 के शिलालेख (संख्या 50) के अनुसार व्याकरण-विषयक ज्ञान में मेघचन्द्र की पज्यपाद देवनन्दी से उपमा देते हुए पूज्यपाद देवनन्दी को सभी वैयाकरणो में शिरोमणि कहा गया है। श्रवणबेल्गोल ग्राम के ही शक संवत 1022 के शिलालेख (संख्या 55) के अनुसार जिनचन्द्र के जैनेन्द्र व्याकरण विषयक ज्ञान को स्वयं पूज्यपाद देवनन्दी के ज्ञान का ही समरूप बतलाया है। श्रुतकीति (12 वीं शताब्दी ई.) ने पंचवस्तु प्रक्रिया में जैनेन्द्र-व्याकरण पर लिखे गए न्यास, भाष्य, वृत्ति, टीका आदि की ओर निर्देश किया है। मुग्धबोध के रचयिता वोपदेव (13 वीं शताब्दी ई०) ने पूज्यपाद देवनन्दी को पाणिनि प्रभति महान वैयाकरणों की कोटि में रखा है / ' मुग्धबोभ की पारिभाषिक (एकाक्षरी) संज्ञाओं पर जैनेन्द्र व्याकरण की पारिभाषिक संज्ञाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है / उपरिनिर्दिष्ट प्रभावों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 13 वीं शताब्दी ई. तक जैनेन्द्र व्याकरण का पठन-पाठन प्रचलित रहा। परन्तु 13 वीं शताब्दी ई० के उपरान्त उक्त व्याकरण के पठन-पाठन के विशेष प्रमाण नहीं मिलते।' इसके निम्ननिर्दिष्ट कारण हैं - (लौकिक संस्कृत भाषा के प्रसंग में) जैनन्द्र-व्याकरण का मूल आधार अष्टाध्यायी है। जैनेन्द्र व्याकरण में वैदिक और स्वर प्रक्रिया सम्बन्धी नियमों का प्रतिपादन नहीं किया गया है, जबकि अष्टाध्यायी वैदिक और लौकिक संस्कृत दोनों भाषाओं के लिए उपयोगी व्याकरण ग्रन्थ है। सम्भवतः इसी कारण से विद्वानों को अष्टाध्यायी के अतिरिक्त अन्य व्याकरण ग्रन्थ को पढ़ने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। संस्कृत विद्वानों में त्रिमुनि व्याकरण के लिए आदर की भावना थी तथा अष्टाध्यायी को सम्पूर्ण भारत में पउनपाठन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया तथा जैनेन्द्र व्याकरण जैन सम्प्रदाय तक ही सीमित रह गया। पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रों में संक्षिप्तता लाने की दृष्टि से एकाक्षरी संज्ञाओं का प्रयोग किया। परिणामस्वरूप सूत्रों में संक्षिप्तता का समावेश तो हुआ किन्तु सूत्र क्लिष्ट बन गए। साधारण पाठको को संज्ञाओं की दष्टि से अष्टाध्यायी की तुलना में जैनेन्द्र व्याकरण अपेक्षाकृत क्लिष्ट प्रतीत हुआ। शाकटायन व्याकरण के प्रकाश में आने के उपरान्त तो जैनेन्द्र व्याकरण का महत्त्व और भी कम हो गया। धार्मिक भावना से अभिभूत होकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायियों ने शाकटायन व्याकरण को ही अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से महत्त्व दिया। 5. रामचन्द्र, भट्टोजि दीक्षित प्रभृति विद्वानों द्वारा प्रक्रिया ग्रन्थों की रचना के उपरान्त शिक्षा संस्थानों में प्रक्रिया विधि से ही पठन-पाठन होने लगा। अतएव शिक्षा संस्थानों में जैनेन्द्र व्याकरण की उपादेयता को महत्त्व नहीं दिया गया। आधनिक काल में जैनेन्द्र व्याकरण का अध्ययन केवल दक्षिणी भारत के दिगम्बर जैन सम्प्रदाय तक ही सीमित है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जैनेन्द्र महावृत्ति ही उक्त व्याकरण का उत्तम संस्करण है। 1. सर्व-व्याकरणे विपश्विदधिपः श्री पूज्यपादस्वयं वै विद्योत्तभमेधचन्द्रभूनिपो वादीभपञ्चानन : / / जैन शिलालेखसंग्रह, प्र. भा०, सम्प,०-हीरालाल जैन बम्बई, 192810 62, 75. 2. जैनेन्द्र पूज्य (पाद:).............। वही, पृ० 119. मुखस्तम्भसमुद्धृतं प्रविमसन्यासोझरत्नक्षितिश्रीमद्वत्तिकपाटसपुटयुतं भाष्योऽय शय्यातलम् / टीकामालमिहारुरुरषितं जैनेन्द्रशब्दागमं प्रासादं पृषपंचवस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् / / प्रेमी, नाथूराम, ज० सा० इ०, पृ०१३ पर जद्धत. 4. इन्द्रश्चन्द्रः कामकृत्स्नापिशली शाकटायन : / पाणिन्यमर जैनेन्द्रा जयन्त्यष्टादिशान्दिका : // बोपदेव, कविकल्पम, पृ०१. 5. बेल्वाल्कर, एस० के०, सि० 10 ग्रा०, पृ० 56. 1. बेल्वाल्कर, एस० के०, सि० संग्रा०, पृ०५६. 160 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जो महाराज अभिनन्दन अन्य