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________________ प्रभाव के कारण प्रथमा विभक्ति एकवचन का ही प्रयोग किया गया है।' इस सूत्र की व्याख्या करते समय 'तदर्था यां प्रकृती' ही अभिप्रेत है। (ष) 'मिट का वा' (जै० ब्या० १/४ / ५४ ) सूद में विद्यमान 'वा' (प्रथमा विभक्ति) के परे युक्त प्रथमा विभक्ति एकवचन के 'सु' प्रत्यय का स्वाप च सुशिप्चन (० व्या० ४/३/५६) सूत्र से भोप होना चाहिए पर 'सूत्रेऽस्मिन् सुब्बिधिरिष्टः' सूत्र के प्रभाव के कारण 'सु' का लोप नहीं हुआ। 'सुप्' प्रत्ययों के अन्तर्गत टाप् प्रत्यव भी सम्मिलित है तथा सुब्विधि इष्ट होने के कारण हलन्त 'व' के पश्चात् 'टाप्' प्रत्यय युक्त किया गया है।' 'वा' (प्रथमा) के परे विसर्जनीय के प्रयोग का प्रयोजन 'वा' (विभाषा) की सन्देह-निव ति भी है।' शब्द के पश्चात षष्ठी विभक्ति एकवचन के स्थान पर (ङ) 'सेऽङ, गुले सङ्गः' (जं० व्या० ५२४६६२) सूत्र में सङ्ग प्रथमा विभक्ति एकवचन के सु प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। " इस प्रकार उपर्युक्त दो परिभाषा सूत्रों का जनेन्द्र-व्याकरण की सूत्र व्यवस्था की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है। सन्धि-सूत्रपूज्यपाद देवनन्दी ने जनेन्द्र-व्याकरण के चतुर्थ अध्याय के तृतीय पाद तथा पंचम अध्याय के चतुर्थपाद' के अधिकांश सूत्रों में सन्धि नियमों को प्रस्तुत किया है। अन्य कुछ सन्धि नियम जैनेन्द्र-व्याकरण के पंचम अध्याय के तृतीय पाद में भी उपलब्ध होते हैं।" सन्धि नियमों का प्रतिपादन करते हुए पूज्यपाद देवनन्दी ने पूर्ण रूप से पाणिनि का ही अनुकरण किया है। सन्धि प्रकरण के अनेक सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण में अष्टाध्यायी से बिना किसी परिवर्तन के उद्धृत किए गए हैं। उदाहरण के लिए अष्टा० एक पररूपम् ६/१/६४ एचोऽयवायावः ६/१/०५. झलां जश् शशि, नपरे नः, ८/३/२७नश्चापदान्तस्य झलि, ८/४/५३ जे० प्रा० १. एङि पररुपम ४/३/८१. २. एचोऽयवायाव:, ४/३/६६. ३. झलां जश् झशि, ५/४/१२८. ४. नपरे न:, ५/४/११. नश्चापदान्तस्य झलि ५/४/८. ५. 5. wristsfe, x/v/t1. ७. ष्टुना ष्टु, ५/४/१२०. सुबन्त सूत्र- Jain Education International जैनेन्द्र-व्याकरण के चतुर्थ अध्याय के चतुर्थ पाद' तथा पंचम अध्याय के प्रथम तथा तृतीय सूत्र उपलब्ध होते हैं । जैनेन्द्र-व्याकरण के चतुर्थ अध्याय के ही तृतीय" तथा पंचम अध्याय के द्वितीय संबंधी सूत्रों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद में भी दो सुबन्त संबंधी सूत्र उपलब्ध होते हैं। " ३. विसर्जनीयो विभाषा सन्देहनिवृत्यर्थम् । वही, १/४/५४. Y. सग इत्यन 'सूत्र' स्मिन् सुविधिरिष्ट (५/२/११४) इति ङस: स्थाने सु: । वही, ५ / ४ / ६२. ५. जे० भ्या० ४/३/६०-७३, ७५-६०, १२-१०६, २१६. ६. वही, ५ / ४ / १-३६, ११९- १२३, १२५-१४०. ७. वही, ५/३/५७, ७६, ७८, ६०-१४. ८. वही, ४/४/१, ३-१२, ७२ ७४, ७५, ७६-८०, ११८-१२२, १२४ १२७, १२६. ९. वही, ५ / १ / ८ / २६, ३४-३६, ४६-७३, १४३-१७१. १०. वही, ५/३/१४-२६, २८-३०, ४२, ४६-५१, ५३, ५४, ७५, ७७ ७९, ८३, ८५ ८६ ८८ ८९. १. तदर्थमित्येतत्प्रकृतेविशेषणम् । तदर्थायां प्रकृतात्रिति । यद्येवं स्त्रीलिङ्गमीप् च प्राप्नोति । 'सूर्वऽस्मिन् सुम्बिधिरिष्ट' (५/२/११४) इने पा] (इतोपो बाया एकेन च निवेश: जै० म० वृ० ३/४/११. 1 २. 'मिट कार्ये वा:' (१/४/५४) रुड यादिना सुखं प्राप्तम् । सुपो विधिश्यम् । प्रथ विति हलन्तात् कथं टापु प्रथमपि सुपो विधिरिष्टः । सुपो ग्रहणात्। वही, ५/२/११४. ११. मही, ४/३/५६-५८, १६७-२०१, २१५, २२९, २३३. १२. बही, ५/२/९७-११३, १५०. १३. मही, ५/४/२४, ३७, ३८, ३६, ८५, ८६,६६. १४. वही, १/२/१५६, १५७. १५० छोटि २/४/६१. RETT R: C/V/ve. , ८/३/२४. For Private & Personal Use Only पादों में अधिकांश सुबन्त एवं चतुर्थ" पादों में सुबन्त माकप पकारेण आचार्य रत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.org
SR No.211369
Book TitlePujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabha Kumari
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationArticle & Grammar
File Size3 MB
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