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________________ अव्ययीभाव के लिए है,' तत्पुरुष के लिए लिए ष, द्विगु के लिए र, बहुव्रीहि के लिए ब, तथा कर्मधारय के लिए य, संज्ञाएँ दी हैं।' पूज्यपाद देबनन्दी ने समास सूत्रों की संख्या में भी यथासंभव कमी की है। जो बात स्वभावत: सर्वविदित है उसको कहने की उन्होंने आवश्यकता नहीं समझी है। यही कारण है कि जैनेन्द्र-व्याकरण में एकशेष समास से संबंधित सूत्रों का अभाव है। एकशेष से संबंधित सूत्रों का अभाव होने का कारण भी पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने व्याकरण-ग्रन्थ में निर्दिष्ट किया है।' सूत्रों में भिन्नता लाने के उद्देश्य से पूज्यपाद देवदन्दी ने अनेक समासान्त पदों का विधान अष्टाध्यायी, कातन्त्र एवं चान्द्र व्याकरण से भिन्न समासान्त प्रत्ययों की सहायता से किया है। जै० व्या० अष्टा का० व्या० (च० प्र०) चा० व्या० १. अ, ४/२/११६. अप्, ५/४/११६. अत्, ४१४. अप्, ४/४/६६. २. अ, ४/२/११७. अप, ५/४/११७. अत्, ४१५. अप्, ४/४/१०१. ३. अन्, ४/२/१२५. अनिच्, ५/४/१२४. अविच्, ४/४/११३. ४. अस, ४/२/१२४. असिच्, ५/४/१२२. असिच्, ४/४/१०७. ५. ट, ४/२/१०६. टच, ५/४/१०७. अत्, ३६८. टच्, ४/४/६०. ६. ट, ४/२/११३. षच्, ५/४/११३. अत्, ४१०. षच्, ४/४/६६. ७. ट, ४/२/११५. ष, ५/४/११५. अत्, ४१२. षच्, ४/४/६८. ८. ड, ४/२/६६. डच्, ५/४/७३. अत्, ४२०. डच्, ४/४/६५. समासान्त-प्रत्ययों की उपर्युक्त सूची से यह सुस्पष्ट है कि जैनेन्द्र व्याकरण के समासान्त-प्रत्ययों में स्वर-संबंधी अनुबन्धों का अभाव है। समास सत्रों के प्रसंग में जिसकी पाणिनि ने प्रथमा विभक्ति से निर्दिष्ट करके उपसर्जन संज्ञा' की है उसकी 'पूज्यपाद देवनन्दी ने न्यक् संज्ञा की है। समास सूत्रों में पूज्यपाद देवनन्दी ने अनेक स्थानों पर एक माना के प्रयोग में भी कमी करने का प्रयत्न किया है जै० व्या अष्टा० का० व्या० चा० व्या० १. आयामि आयामिना, १/३/१३. यस्य चायामः, २/१/१६. २. परिणाऽक्षशलाकासंख्याः , १/३/८ अक्षशलाकासंख्या:परिणा, २/१/१० - अनुः सामीप्यायामयोः, २/२/९. संख्याक्षशलाकाः परिणा द्यूतेऽन्यथा वृत्तौ, २/२/६. १. हः, जै० व्या० १/३/४. २. पम्, वही, १/3/१९. ३. संख्यादी रश्च, वही, १/३/४७. ४. मन्यपदार्थेऽनेक षम्, वही, १/३/८६. ५. पूर्वकाल कसर्वजरत्पुराणनवकेवल यश्चकाश्रये, वही, १/३/४४. ६. स्वाभाविकत्वादभिधानस्यकशेषानारम्भः, वही, १/१/१००. ७. प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्, अष्टा० १/२/४३. ८. वोक्तं न्यक्,, जै० व्या०, १/३/९३. जैन प्राच्य विद्याएँ १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211369
Book TitlePujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabha Kumari
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationArticle & Grammar
File Size3 MB
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