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________________ जै०या० ३०. बोध्यम्, १/४/१५. मामन्त्रित, २/३/४८. बामन्वित, प.प्र.५. ३१. भु, १/१/२७. बु, १/१/२०. वा, मा०प्र०८. १२. मु, १/२/१२. नदी, १/४/३. नदी, १० प्र०.. ३३. मृत्, १/१/५. प्रातिपदिक, १/२/४५. लिङ्ग, १० प्र.१. ३४. नि, ५/३/२. आमेरित, ८/१/२. ३५. युष्मद्, १/२/१५२. मध्यम, १/४/१०१. मध्यम, आ०प्र०३. '. १/३/४७. विगु, २/१/५२. दिद्वगु, च० प्र० २६४. ३७. वाक्, २/१/७६. उपपद, ३/१/१२. उपपद, कृ० प्र० १. ३८. वृद्ध, ३/१/७८. गोत्र, ४/१/१६२. ३६. व्य', २/१/८२. कृत्य, ३/१/९५. कृत्य, कृ. प्र.१३० ४०. सु, १/२/६७. घि, १/४/७. अग्नि , प.प्र.८. संयोग, १/१/७. ४२. स्व', १/१/२. सवर्ण, १/१/९. सवर्ण, सं० प्र० ४. ४३. ह, १/३/४. अव्ययीभाव, २/१/५. अभ्ययीभाव, प.प्र. २७२ ४४. हृत्, ३/१/६१. तद्धित, ४/१/७१. ३. पाणिनीय संज्ञामों के संक्षिप्त रूप जैनेन्द्र-व्याकरण में उपलब्ध कुछ संशाएँ तो बिल्कुल अष्टाध्यायी की संज्ञाओं के संक्षिप्त रूप प्रतीत होती है। पाणिनीय संज्ञाओं के आदि, मध्य अथवा अन्तिम भाग को हटाकर नवीन संज्ञाओं का निर्माण किया गया है। नीचे दी गई तालिका से यह सस्पष्ट:3. व्या० मष्टा. काव्या १. त्य, २/१/१. प्रत्यय, ३/१/१. प्रत्यय, आ.प्र.३५. २. द',१/२/१५१. आत्मनेपद, १/४/१०.. आत्मनेपद, वही, २. ३. दी, १/१/११. दीर्ष, १/२/२७. दीर्घ सं० प्र.. ४. धु, १/२/१. धातु, १/३/१. धातु, आ० प्र०९ नप्, १/१/७. नपुंसक, १/२/४७. ६. नि, १/२/१२७. निपात, १/४/५६ निपात, सं०प्र०४२ प्लुत, १/२/२७. ८. ब, १/३/८६. बहुब्रीहि, २/२/२३. बहुव्रीहि, च० प्र० २६७. ६. म', १/२/१५०. परस्मैपद, १/४/EE परस्मैपद, आ० प्र०१. १०. य, १/३/४४. कर्मधारय, १/२/४२. कर्मधारय, च०प्र० २६३. ११. रु, १/२/१०० गुरु, १/४/११ १२. ष, १/३/१६. तत्पुरुष, २/१/२२. तत्पुरुष, च०प्र० २६५. १३. स, १/३/२. समास, २/१/३. समास, वही, २५९. ४. विभक्ती शब्द का विभाजन करके प्राप्त संज्ञाएँ जैनेन्द्र-व्याकरण में ईकारान्त 'विभक्ती' शब्द के प्रयोग का प्रयोजन इप् (द्वितीया) एवं ईप् (सप्तमी) संज्ञाओं में भिन्नता लाना है। 'विभक्ती' शब्द के स्वर एवं व्यंजनों को पृथक्-पृथक् करके 'तासामा परास्तद्धलच' (जै० व्या० १/२/१५८) सूत्र के आधार पर स्वरों १. ऋक्तन्त में पर, रेफ एवं स्वर के लिए '' का प्रयोग किया गया है। ..ऋक्त. २७०, १०७, २६. २. ऋक्तम्त में 'तालव्य' के लिए 'व्य' का प्रयोग किया गया है -बही, २४१. ३. अण्तन्त में 'स्व' के लिए 'स्व' का प्रयोग मिलता -बही, २५, १५०, ४. अक्तन्त्र में 'पद' के लिए 'द' का प्रयोग किया गया है। 10-ऋक्त. १६. ५. ऋषतन्त्र में विराम' के लिए 'म'का प्रयोग उपलब्ध है। -वही. ५४. न प्राय बिचाएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211369
Book TitlePujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabha Kumari
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationArticle & Grammar
File Size3 MB
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