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७. वात्तिक-पाठ ८. परिभाषापाठ, और
६. शिक्षा सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण का परिमाण, संस्करण तथा स्वरूप
जैनाचार्यों द्वारा रचित उपलब्ध व्याकरण-ग्रन्थों में जनेन्द्र-व्याकरण सबसे प्राचीन है। इस व्याकरण के दो प्रकार के सूत्रपाठ उपलब्ध होते हैं
१. लघुपाठ (औदीच्य संस्करण) २. बृहत्-पाठ (दाक्षिणात्य संस्करण)
लघुपाठ ही मूल सूत्रपाठ है तथा इसके रचयिता पूज्यपाद देवनन्दी है। इस लघु सूत्रपाठ में ५ अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में ४ पाद हैं। इन २० पादों में ३०६३ सूत्र हैं। लघुपाठ पर अभयनन्दी ने महावृत्ति की रचना की है, जो भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित हुई है। इस सूत्रपाठ पर श्रुतकीर्ति ने पंचवस्तु नामक प्रक्रिया लिखी।
जैनेन्द्र-व्याकरण की रचना के लगभग ५०० वर्ष पश्चात गुणनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण के मूल सूत्रपाठ को परिवर्तित एव परिवधित करके बहत-पाठ का रूप दिया जिसमें ३७०० सत्र हैं। इस सूत्रपाठ पर सोमदेवमुनि ने शब्दार्णवचन्द्रिका (१२०५ ई०) नामक टीका की रचना की तथा इस बहत् पाठ पर किसी अज्ञातनामा लेखक द्वारा रची गई शब्दार्णव-प्रक्रिया भी उपलब्ध है।
पूज्यपाद देवनन्दी का मूल उद्देश्य जैन मतानुयायियों को अपने व्याकरण-ग्रन्थ के माध्यम से संस्कृत-भाषा का शब्द प्रयोग सिखाना था। जैन मतानुयायियों के लिए वैदिक भाषा तथा स्वर-सम्बन्धी नियमों का अनुशासन आवश्यक न था। यही कारण है कि जैनेन्द्र-व्याकरण में उपयुक्त नियमों का अभाव है। उन्होंने कृत्य प्रत्ययों के अन्तर्गत छांदस प्रयोगों को भी लौकिक मानकर सिद्ध किया है। इस व्याकरण-ग्रन्थ में जैनेन्द्र महावृत्ति के अन्तर्गत निर्दिष्ट वात्तिकों की संख्या ४६१ है।
पज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण में अपने से पर्ववर्ती श्रीदत्त,' यशोभद्र, भूत बलि,' प्रभाचन्द्र' सिद्धसेन' तथा समन्तभद्र नाम के छः आचार्यों के मतों को उद्धृत करते हुए उनका नामोल्लेखपूर्वक स्मरण किया है। यह व्याकरण-ग्रन्थ अष्टाध्यायी के आधार पर रचित एक लक्षण-ग्रन्थ है । इस व्याकरण-ग्रन्थ में सिद्धान्तकौमुदी तथा इसी प्रकार के अन्य ग्रन्थों जैसा सूत्रों का प्रकरणानुसारी वर्गीकरण उपलब्ध नहीं होता है। प्रत्येक प्रकरण के सूत्र सम्पूर्ण व्याकरण-ग्रन्थ में बिखरे हुए हैं। जैनेन्द्र-व्याकरण के स्वतन्त्र व्याकरण-ग्रन्थ होने पर भी पूज्यपाद देवनन्दी ने इस ग्रन्थ में पाणिनीय सूत्रों की रक्षा का पूर्ण प्रयत्न किया है और इसमें वे अधिकतर सफल भी हुए हैं । पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी का अनुकरण करते हुए भी सूत्रों में अपेक्षाकृत संक्षिप्तता, सरलता एवं मौलिकता लाने का प्रयास किया है। एकशेष प्रकरण से सम्बद्ध सूत्रों का इस व्याकरण-ग्रन्थ में सर्वथा अभाव है। जैनेन्द्र-व्याकरण के अधिकतर सूत्र अष्टाध्यायी के आधार पर लिखे गए हैं। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार "देवनन्दी ने अपनी पंचाध्यायी में पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रक्रम में कम से कम फेरफार करके उसे जैसे का तैसा रहने दिया है। केवल सूत्रों के शब्दों में जहाँ-तहाँ परिवर्तन करके सन्तोष कर लिया है।"८ जैनेन्द्र व्याकरण में अनेक ऐसे सूत्र विद्यमान हैं जो अष्टाध्यायी के एक सूत्र के दो भान करके व्याकरण में समाविष्ट किए गए हैं। इस प्रकार की विधि का प्रयोग करके पूज्यपाद देवनन्दी ने सूत्रों को सरल एवं स्पष्ट कर दिया है। कहीं-कहीं पर अष्टाध्यायी के दो या दो से अधिक सूत्रों का एक सूत्र में समावेश करने की प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर होती है, जैसा कि निम्न तालिका से स्पष्ट है
१. गुणे श्रीदत्तस्याऽस्त्रियाम्, जैनेन्द्र व्याकरण १/४/३४. २. क वृषिभूजा यशोभद्रस्य, वही, २/१/६६. ३. राद् भूतबले:, वही ३/४/८३. ४. रात:कति प्रभाचन्द्रस्य, वही, ४/३/१८०. ५. वेत्ते: सिद्धसेनस्य, वहो, ५/१/७... ६. चतुष्टयं समन्तभद्रस्य, वही, ५/४/१४०. ७. स्वाभाविकत्वादभिधानस्यकशेषानारम्भः, ज० व्या० १/१/१००. ८. अन्नवाल, वासुदेवशरण, जै० म० ३०, भूमिका, पृ० १२.
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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