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________________ I । । । । । । जै० व्या० अष्टा० का० ज्या० (च० प्र०) चा० व्या० ८८. ल, ४/१/२४ लज्, ५/२/६६ लज्, ४/२/६६. ८६. वत्, ३/४/१०६ वति, ५/१/११७. वति, २६६. वति, ४/१/१३५. १०. वतु, ३/४/१६०. वतुप्, ५/२/३६ वतुप, ४/२/४३ ६१. वल, ३/२/६८. वलच्, ४/२/८९ ६२. विध, भक्त, ३/२/४७ विधल्, भक्तल, ४/२/५४ विधल्, भक्तल् ३/१/६३. ६३. वा ३/२/६८ वुक, ४/२/१०३ बुक्, ३/२/१२. १४. व्य, /१/१३३. व्यत्, ४/१/१४४ व्यत्, २/४/६४. ६५. शाल, शङ कट ३/४/१४८. शालच्, शङ कटच् ५/२/२८. शालच् शङ्कटच्, ४/२/२६ ६६. ष्टलन, ३/३/१०७ ट्ला ४/३/१४२. ष्टलच, ३/३/११६. ६७. ष्य, ३/१/६३ व्यङ्, ४/१/७८. व्यङ, २/३/८२. १८. सात्, ४/२/५७. साति, ५/४/५२. साति, ३४६. साति,४/४/३७. उपर्युक्त तद्धित प्रत्ययों के तुलनात्मक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि१. स्वर की दृष्टि से पाणिनि द्वारा निर्दिष्ट तद्धित प्रत्ययों के अनुबन्धों को पूज्यपाद देवनन्दी ने हृत, (तद्धित) प्रत्ययों में कोई स्थान नहीं दिया है । उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी का एनप' प्रत्यय पित होने के कारण अनुदात्त है किन्तु जैनेन्द्र व्याकरण में अनुबन्ध रहित एन' प्रत्यय विहित है। पाणिनि के अनुसार चित् (बहुच्) तद्धित प्रत्यय से निर्मित शब्द का अन्य वर्ण उदात्त होता है। किन्तु पूज्यपाद देवनन्दी ने अनुबन्ध रहित 'बहु' प्रत्यय का विधान किया है। २. पूर्ववर्ती वैयाकरणों द्वारा निर्दिष्ट 'क्' एवं 'ञ' अनुबन्धों के स्थान पर पूज्यपाद देवनन्दी ने 'ण' अनुबन्ध दिया है (फक, त्यक, ढञ एवं यक्, के लिए क्रमश: फण्, त्यण , ढण् एवं ण्य तद्धित प्रत्ययों का निर्देश किया है)। कहीं-कहीं पर तद्धित प्रत्ययों में विद्यमान 'क्' एवं 'ण' अनुबन्धों के स्थान पर पूज्यपाद देवनन्दी ने '' अनुबन्ध दिया है (वुक्, ण्य, अा, (ञ) के लिए क्रमश: वुञ, ञ्य एवं अण् प्रत्ययों का निर्देश किया है)। ३. पाणिनि एवं चन्द्रगामी द्वारा प्रयुक्त 'ष' अनुबन्ध के स्थान पर पूज्यपाद देवनन्दी ने 'ट' अनुबन्ध का प्रयोग किया है (फक्, षेण्यण एवं ब्फ के लिए क्रमश: ट्फट, टेन्यण् एवं फट का निर्देश किया है)। सायंतनम्, चिरंतनम्, प्राह णेतनः, प्रगेतनः, आदि तद्धितान्त शब्दों को सिद्धि जैनेन्द्र-व्याकरण में सरल रूप में प्रस्तुत की गई है। सायं, चिरं, प्राहणे, प्रगे एवं कालवाची अव्ययों से परे पाणिनि ने ट्यु एवं ट्युत् प्रत्ययों तथा 'तुट' आगम का विधान किया है (सायं +ट्यु-सायं+तुटु + यु)। तत्पश्चात् 'यु' को अनादेश (सायं+त् +अन) करके सायं तनम् आदि शब्दों की सिद्धि की है। चन्द्रगोमी ने 'ट्यु' प्रत्यय एवं 'तुट, आगम की गहायता से सायंतनम् आदि शब्दों की रचना की है।' चन्द्र गोमी ने भी यु को अनादेश किया १. एनबन्यतरस्यामदूरेऽपञ्चम्या:, प्रष्टा० ५/३/३५. २. अनुदात्तो सुप्पिती, वही, ३/१/४. दनोऽदूरेऽकाया :, . व्या० ४/१/६६. ४. विभाषा सुपो बहुच पुरस्तात्तु, अष्टा० ५/३/६८. ५. तद्धितस्य, वही, ६/१/१६४. ६. वा सुपो बहु : प्राक्त, जै० व्या० ४/१/१२७. ७. साचिरंपाहणेप्रगेव्ययम्यष्ट्य ट्युलो तुट, च, प्रष्टा० ४/३/२३. ८. युवोरनाकी, वही, ७/१/१. १. प्राह णेप्रगेसायंचिरमसंरब्याट् ट्युः, चा० च्या० ३/२/७६. जैन प्राच्य विद्याएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211369
Book TitlePujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabha Kumari
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationArticle & Grammar
File Size3 MB
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