Book Title: Pujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan
Author(s): Prabha Kumari
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 13
________________ पं० युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार जैनेन्द्र-व्याकरण से पूर्व पंचपादी एवं दमपादी उणादिपाठ विद्यमान थे पंचपदी के प्राच्य, औदीच्य एवं दाक्षिणात्य, तीनों पाठ जैनेन्द्र-व्याकरण से पूर्व रचे जा चुके थे। पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने जैनेन्द्र- महावृत्ति में उपलब्ध 'अस् सर्वधुभ्यः उणादिसूत्र की पंचपादी के प्राच्य, औदीच्य, दाक्षिणात्य पाठ तथा दशपादी उणादिपाठ के सूत्रों से तुलना की है-' जै० म०वृ० पंचपावी प्राच्यपाठ पंचपारी औदोव्यपाठ पंचपादी दाक्षिणात्यपाठ दशपादी पाठ लिङ्गानुशासन पाठ - उपर्युक्त सूची से स्पष्ट है कि 'सर्वधातुभ्यः' अंश केवल पंचपादी के प्राच्यपाठ में ही है तथा जैनेन्द्र-महावृत्ति में विद्यमान * सर्व धुम्य:' अंश पर इसका पूर्ण प्रभाव है। उपर्युक्त आधार पर पं० युधिष्ठर मीमांसक का कथन है कि "जैनेन्द्र उणादिपाठ पंचपादी के प्राच्यपाठ पर आश्रित है।"" अस सर्वधुभ्यः, जै० म० वृ० १/१/७५ सर्व धातुभ्योऽयुत् ४१८ जैनेन्द्र-व्याकरण का निङ्गानुशासन-पाठ सम्प्रति अनुपलब्ध है। पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र-व्याकरण पर निङ्गानुशासन की रचना की थी। इस विषय में पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए हैं-' अमुन्/ क्षीरतरङ्गिणी, पृ० १३ असुन / श्वेत०४/१९४ असुन / १/४९ (क) प्राचीन आचार्थी के लिङ्गानुशासनों की ओर संकेत करते हुए वामन ने अपने लिङ्गानुशासन का भी उल्लेख किया है। ( व्याडप्रणीतमथ वाररुचं सचान्द्र जैनेन्द्र लक्षणगतं विविधं तथाऽन्यत् लिङ्गस्य लक्ष्म •. इहार्याः ||३१|| ) | (ख) अभयनन्दी की महावृत्ति में कहा गया है कि गोमय आदि शब्दों में दोनों लिङ्ग मिलते हैं, करना चाहिए (गोमयकषायकार्षापण कुतपकवाटशंखादिपाठादवगमः कर्तव्यः - जै० म० वृ० Jain Education International पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार उपयुक्त उद्धरण में पाठ शन्द लिङ्गानुशासन पाठ का ही द्योतक है क्योंकि 'पु ंसि चार्धर्चा:' (जै० व्या० १/४ / १०८) सूत्र पर अष्टाध्यायी के समान जैनेन्द्र-व्याकरण में कोई गण न होने के कारण इसका पाठ विज्ञानुशासन से ही संभव हो सकता है। (ग) हेमचन्द्र ने स्वीय निङ्गानुशासन के स्वोपज्ञ विवरण में नन्दी के नाम से एक उद्धरण दिया है "भ्रामरं तु भवेयुव क्षौद्र सोड तु कपिलं भवेत्" इति नन्दी श्रीमलिङ्गानुशासनविवरण, पृ० ८५) १. मीमांसक, यूधिष्ठिर, सं० व्या० शा० इ०, द्वि० मा, पृ० २४४. २. बही। ३. मीमांसक, युधिष्ठिर, जै० म० वृ०, भूमिका, पृ० ४६. तथा उनका ज्ञान पाठ से १/४/१०८ ) । पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार उपर्युक्त पाठ पूज्यपाद देवनन्दी के लिङ्गानुशासन का ही है। उपर्युक्त उद्धरण से यह मुस्पष्ट है कि पूज्यवाददेवनन्दीकृत विज्ञान शासन छन्दोबद्ध था। ४. हेमचन्द्र, श्रीहैमलिङ, गानुशासन विवरण, पृ० १०२. ५. मीमांसक, युधिष्ठिर, जे० म० वृ०, भूमिका, पृ० ४९. ६. लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य निरवद्याऽवभासते । धर्म एवं आभार " हेमचंद्र के निङ्गानुशासन- विवरण में उपलब्ध मंदिन गुणवृतस्त्वाश्रयलिङ्गता स्वादुरोदनः स्वाही पेया स्वादु पयः ।। "" उद्धरण के आधार पर पं० युधिष्ठिर मीमांसक का कथन है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने लिङ्गानुशासन पर कोई व्याख्या भी लिखी थी तथा हेमचंद्र ने उपर्युक्त पंक्तियों में जैनेन्द्रलिङ्गानुशासन की व्याख्या की ओर ही संकेत किया है।" पूज्यपाद देवनंदी ने इष्टदेवता स्वयम्भू को नमस्कार करते हुए जैनेन्द्र-व्याकरण का आरम्भ किया है ।' प्रथम में जैन धर्म के प्रसिद्ध सिद्धान्त 'अनेकान्तवाद' का उल्लेख पूज्यपाद देवनंदी के जैन मतावलम्बी होने का प्रत्यक्ष सूत्र For Private & Personal Use Only १४३ www.jainelibrary.org

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