Book Title: Pujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan
Author(s): Prabha Kumari
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 28
________________ २. ४. जैनेन्द्र व्याकरण में धातुओं को दस गणों में विभक्त किया गया है। वे गण तथा उनके विकरण इस प्रकार हैंगण जै० व्या० अष्टा का० व्या० (आ० प्र०) चा० व्या० भ्वादिगण शप् २/१/६४ शप्, ३/१/६८ अन्, ६६ शप, १/१/८२ हवादिगण उज, १/४/१४५. श्लु २/४/७५. अन्, ६६. लुक्, १/१/८४ अदादिगण उप, १/४/१४३. लुक्, २/४/७२. लुक १/१/८३. दिवादिगण श्य, २/१/६५. श्यन ,३/१/६६. यन्, ६७. श्यन्, १/१/८७ स्वादिगण श्नु २/१/६६. श्नु, ३/१/७३. नु, ६८. श्नु, १/१/६५. तुदादिगण श, २/१/७३. श, ३/१/७७ अन्, ६६. श, १/१/१२ रुधादिगण श्नम्, २/१/७३. श्नम्, ३/१/७८. न, ७०. श्नम् ११/१२ ८. तनादिगण उ, २/१/७४. उ, ३/१/७६ उ, ७१. उ, १,१,६४. क्रयादिगण श्ना, २/१/७६ श्ना, ३/१/८१ ना, ७२. श्ना, १/१/१०१ १०. चुरादिगण गिच्, २/१/२२. णिच्, ३/१/२५. इन, ४५. णिच्, १/१/४५ इस प्रकार अष्टाध्यायी में प्रयुक्त 'श्लु' एवं लुक् विकरणों के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में 'उज्' एवं 'उप्' विकरणों का प्रयोग किया गया है। उदात्तादि नियमों का अभाव होने के कारण अष्टाध्यायी के 'श्यन्' विकरण के स्थान पर जैनेन्द्र व्याकरण में 'श्य' विकरण का प्रयोग किया गया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने तिङन्त संबंधी नियमों को प्रस्तुत करते हुए प्रायः सर्वत्र ही पाणिनि का अनुकरण किया है । केवल एकदो स्थलों पर मौलिकता लाने का प्रयास किया है । लुङ लकार के प्रसंग में उन्होंने पाणिनि द्वारा निर्दिष्ट चिल आगम का निर्देश नहीं किया है । पाणिनि ने सर्वप्रथम लुङ परे रहते धातु से च्लि आगम का विधान किया है। तत्पश्चात लि को सिच् आदेश किया है। शर्ववर्म' की भांति पूज्यपाद देवनन्दी ने भी लुङ परे रहते धातु से च्लि का आगम तथा च्लि को 'सिच्' आदेश न करके मौलिकता एवं संक्षिप्तता की दृष्टि से धातु से सि आगम का ही विधान किया है।" इसी प्रकार पाणिनि ने कर्तृवाची लुङ परे रहते ण्यन्त धातुओं तथा श्रि, द्रु एवं स्रु धातुओं से परे चिल आगम को चङ् आदेश का विधान किया है तथा अचीकरत्, अशिश्रियत्, अदुद्रुवत् एवं असुनुवत् क्रियारूपों की सिद्धि की है।' इसी लुङ् लकार के प्रसंग में पाणिनि ने - पद् धातु से लुड लकार के त प्रत्यय के परे रहते लुङ् लकार में "च्लि' आगम को 'चिण्' आदेश का विधान किया है । चन्द्र गोमी ने भी कर्तृवाची लुङ परे रहते उपर्युक्त धातुओं से चा आगम का विधान किया है तथा इपद् धातु से लुङ लकार में त प्रत्यय परे रहते 'चिण्' आगम का विधान किया है। शर्ववर्मा ने उपर्युक्त दोनों आगमों के स्थान पर क्रमश: 'चण्' एवं 'इच' आगमों का विधान किया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने सूत्रों में मौलिकता लाने के उद्देश्य से उपयुक्त रूपों की सिद्धि के लिए क्रमश: 'कच् एवं 'जि' आगमों का विधान किया है। १. लि ल ङि, मष्टा० ३/१/४३. २. च्लेः सिच्, अष्टा० ३/१/४४. ३. सिजद्यतन्याम्, का० व्या०, मा० प्र०५८. ४. सिलडि., ज० व्या० २/१/३८. ५. णिश्रिद्र न भ्य: कतरि चङ् अष्टा० ३/१/४८, ६. चिण ते पदः, वही, ३/१/६०. ७. णिश्रिद्र स्र कमः कर्तरि चड.. चा० व्या० १/१/६८. ८. चिण ते पदः, वही, १/१/७६. है. विद्र स कमिकारिताम्तेभ्यश्चण कर्तरि; इजात्मने पदे: प्रथमैकवचने; का० व्या०, मा० प्र०६०६३. १०. णिश्रिद्ध श्रुकमे: कर्तरि कच; निस्ते पदः; जै० व्या० २/१/४३; २/१/५१. आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज मभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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