Book Title: Pujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan
Author(s): Prabha Kumari
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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अष्टाध्यायी के सभी वैदिक प्रयोग संबंधी नियमों के लिए पूज्यपाद देवनन्दी के सूत्र नहीं दिए हैं, किन्तु कुछ वैदिक नियमों के समकक्ष सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण में उपलब्ध होते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार के प्रयोग उस समय लोक-भाषा में प्रचलित थे। इस प्रकार के सूत्रों की सची निम्न निर्दिष्ट है
ज० व्या०
अष्टा० १. अनन्तस्यापि प्रश्नाख्यानयोः, ५।३।१०३.
अनन्तस्यापि प्रश्नाख्यानयोः, ८।२।१०५ २. एचोऽदेः पूर्वस्यात्परस्येदुतौ, ५३३।१०४.
एचोऽप्रगृह्यस्यादूराद्धृते पूर्वस्याद्धस्यादुत्तरस्येदुती,
८।२।१०७. ३. ओमभ्यादाने, ५।३।६५.
ओमभ्यादाने, ८।२।८७ ४. कोपाऽसूयासम्मतो भ्रौ बा, ५।३।१०१.
स्वरितमामेडिते सूयासंमतिकोप कृत्सनेषु, ८।२।१०३. ५. क्षियाशी: प्रेषेषु मिडाकाङ्क्षम् ५।३।१०२.
क्षियाशी: प्रषेषु तिङाकाङ्क्षम्, भा२।१०४. ६. चिदित्युपमार्थे, ५।३।१००.
चिदिति चोपमार्थे प्रयुज्यमाने, ८।२।१०१. ७. पूजिते, ५।३।६६
अनुदात्त प्रश्नान्ताभिपूजितयोः, ८।२/१००. ८. प्रतिश्रवणे ५/३/६८
प्रतिश्रवणे च, ८/२/8E ६. बाह्वन्तकद्र कमण्डलुभ्यः, ३१/६०
कद्र कमण्डल्वोश्छन्दसि, ४/१/७६ १०. मन्वन्क्वनिढिवचः क्वचित् २/२/६२
आतो मनिन्वनिब्वनिपश्च, ३/२/७४ ११. यवावचि सन्धौ ५/३/१०५
तयोर्वावचि संहितायाम् ८/२/१०८ १२. वा हेः पृष्टप्रत्युक्तौ ५/३/६६
विभाषा पृष्ट प्रतिवचने ८/२/६८ १३. विचार्य पूर्वम्, ५/३/६७
पूर्व तु भाषायाम्, ८/२/६८ १४. हेमन्तात्तखम् ३/२/१३८
हेमन्ताच्च ४/३/२१ अभयनंदी ने उपयुक्त सूत्रों के वैदिक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं । अष्टाध्यायी के सूत्रों में निर्दिष्ट 'छन्दसि' शब्द का पूज्यपाद देवनन्दो ने निराकरण किया है। जैनेन्द्र व्याकरण का परवर्ती इतिहास
जैन विद्वान् की कृति होने के कारण जैनेन्द्र व्याकरण में जैन-प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक ही है । यही कारण है कि जैनेन्द्र व्याकरण ब्राह्मणवाद के प्रभाव से सर्वथा मुक्त है। उक्त-व्याकरण ग्रन्थ पर लिखी गई टीकाओं से इस व्याकरण की प्रसिद्धि सहज ही अनुमेय है । अभयनन्दी कृत महावृत्ति जैनेन्द्र व्याकरण की एक विस्तृत एवं श्रेष्ठ टीका है। उक्त टीका में पाणिनीय व्याकरण की सामग्री की रक्षा करने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है। जैनेन्द्र महावृत्ति पर काशिकावृत्ति का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। ऐसा होते हुए भी अभयनन्दी-कृत जैनेन्द्र महावृत्ति में ऐसी सामग्री भी उपलब्ध है, जिसको काशिकावत्ति में स्थान नहीं दिया गया है। उदाहरणस्वरूप सूत्रों के उदाहरणों में जैन तीर्थंकरों, महापुरुषों तथा जन-ग्रन्थों के नाम उपलब्ध होते हैं। इसके साथ ही साथ कात्यायन के वात्तिक और पतंजलि-कृत महाभाष्य की इष्टियों में सिद्ध किए गए नए रूपों को पूज्यपाद देवनन्दी ने सूत्रों में अपना लिया है। इसलिए भी यह व्याकरण ग्रन्थ जैन सम्प्रदाय में विशेष लोकप्रिय रहा होगा। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार 'इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य पूज्यपाद पाणिनीय व्याकरण, कात्यायन के वात्तिक और पतंजलि के भाष्य के पूर्ण मर्मज्ञ थे, एवं जैन धर्म और दर्शन पर भी उनका असामान्य अधिकार था । वे गुप्त युग के प्रतिभाशाली महान् साहित्यकार थे जिनका तत्कालीन प्रभाव कोंकण के नरेशों पर था, किन्तु कालान्तर में जो सारे देश की विभूति बन गए।"" अनेक विद्वानों ने किसी आचार्य की व्याकरण-शास्त्र में निपुणता को दर्शाने के लिए पूज्यपाद देवनन्दी को उपमान रूप में ग्रहण किया है। श्रवणबेल्गोल ग्राम के उत्तर में स्थित चन्द्र गिरि पर्वत के शक संवत् १०३७
१. अग्रवाल, वासुदेवशरण, ज०म० वृ, भूमिका, पृ० १२.
जैन प्राच्य विद्याएं
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