Book Title: Pujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan
Author(s): Prabha Kumari
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 19
________________ में है तथा इस पुल्लिंग 'ह' संज्ञा के द्वारा नपुंसकलिंग में निर्दिष्ट 'घि' संज्ञा का बोध होता है। इस प्रकार कुण्डा' शब्द में विद्यमान 'उ' की 'रु' (गुरु) संज्ञा होने के कारण 'सरोर्हल:' ( जं० व्या० २ / ३ / ८५) सूत्र से अस् प्रत्यय एवं 'अजाद्य तष्टाप्' (जै० व्या० ३/१/४) सूत्र से टाप् प्रत्यय होकर 'कुण्डा' रूप सिद्ध हुआ है। दूसरा महत्त्वपूर्ण परिभाषासूत्र 'सूत्रेऽस्मिन् सुब्विधिरिष्ट' (जै० व्या० ५/२/११४) है । यह सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में विद्यमान शब्दों के वचनों एवं कारकों पर प्रभाव डालता है। जिस शब्द के प्रसंग में इस सूत्र की प्राप्ति होती है वहाँ उस शब्द के मौलिक वचन अथवा कारक का लोप होकर तद्भिन्न अन्य वचन एवं कारक का प्रयोग किया जाता है, किन्तु सूत्र के अर्थ को समझने के लिए उसके मौलिक कारक एवं वचन को ही स्वीकार करना पड़ता है । यह सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में विद्यमान शब्दों के वचनों पर किस प्रकार प्रभाव डालता है, यह निम्न उदाहरणों से सुस्पष्ट है (क) Jain Education International 'आकालोऽच् प्रदीपः १०० १/१/११) सूत्र में प्रदीप के पश्चात् प्रथमा विभक्ति बहुवचन के जस्' प्रत्यय का प्रयोग होना चाहिए किन्तु सुजेऽस्मिन् सुविधिरिष्ट (जं० व्या ५/२/११४) सूत्र के अनुसार प्रथमा विभक्ति एकवचन के 'सु' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। (ख) 'आप' (जै० व्या० १/१/१५) सूत्र में 'आदैन्' के पश्चात् प्रथमा विभक्ति बहुवचन के 'जन्' प्रत्यय के स्थान पर प्रथमा विभक्ति एकवचन के 'सु' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। (ग) किरश्च पञ्चभ्यः' (जै० व्या० ५ / १ / १३४) सूत्र में 'किरादिभ्यः' शब्द के 'आदि' अंश का लोप करके पंचमी विभक्ति बहुवचन के 'भ्यस्' प्रत्थय के स्थान पर पंचमी विभक्ति एकवचन के 'ङसि' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है ।' (घ) 'स्त्रीगोनींच (जै० व्या० १/१/०) सूत्र में 'गो' शब्द के पश्चात् षष्ठी विभक्ति बहुवचन के 'आम्' (ना) प्रत्यय के स्थान पर षष्ठी विभक्ति एकवचन के 'ङस्' प्रत्यय का प्रयोग किया गया है ! किन्तु सूत्र की व्याख्या करते समय 'गो' शब्द के पश्चात् षष्ठी विभक्ति बहुवचन के प्रत्यय का ही प्रयोग इष्ट है । यह सूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण के सूत्रों में विद्यमान शब्दों के कारकों पर भी प्रभाव डालता है । निम्न उदाहरण इसके प्रमाण हैं- (क) 'अतोऽह नः' (जै० व्या० ५ / ४ / ११) सूत्र में 'अहन्' शब्द षष्ठी विभक्ति एकवचन में निर्दिष्ट है किन्तु व्याख्या करते समय 'अन्' शब्द को प्रथमान्त ही मानकर व्याख्या करनी चाहिए।" प्रत्यय का प्रयोग (ख) अतोपेषु' (जै० व्या० ५/१/१३९) सूत्र में विद्यमान या के परे पछी विभक्ति एकवचन के होना चाहिए किन्तु 'सूत्रेऽस्मिन् सुब्विधिरिष्ट: ' सूत्र के प्रभाव के कारण 'ङस्' प्रत्यय का लोप हो गया है । ' (ग) • विकृत ( व्या० २/४/११) सूप में विद्यमान तदर्थ प्रकृति' शब्द का विशेषण है तथा ऐसा होने पर 'तदर्थ' शब्द से स्त्रीलिङ्ग एवं सप्तमी विभक्ति की प्राप्ति होती है, किन्तु सूत्रेऽस्मिन् सुविधिरिष्ट सूत्र के १. प्रदीप इति 'सूत्र' ऽस्मिन् सुविधिरिष्ट:' ( ५ / २ / ११४) इति जस: स्थाने सु: । जै० म० वृ० १/१ / ११. २. 'प्रादेषु' (१/१/१५ ) इत्यत्र 'सूर्वऽस्मिन् सुविधिरिष्टः' इति जस: स्थाने सु: । वही, १/१/१५. ३. फिर इति प्रादिशब्दस्य खे 'सूत्रस्मिन् सुविधिरिष्टः (५ / २ / ११४ ) इति भ्यसः स्थाने उसिः । जै० म० वृ०. ५/१/१३४. ४. उदाहरणम् – 'स्त्रीगोर्नीच: ' (१/१/८) स्त्रीगुनामिति प्राप्त हुविधिरयम् । वही, ५ / २ / ११४. ५. सूखे ऽस्मिन् सुविधिरिष्ट' (५ / २ / ११४) इति तास्थाने वानिर्देशात् व्याख्येयः । वही, ५ / ४ / ९१. ६. या इत्येतस 'सुवेऽस्मिन (५ / २ / ११४) इति ङस: खम् । वही, ५/१/१३६. जैन प्राय विचाएं For Private & Personal Use Only १४६ www.jainelibrary.org.

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