Book Title: Pujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan
Author(s): Prabha Kumari
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 12
________________ ४. पूज्यपाद देवनन्दी ने कतिपय विभिन्न गणों का एकीकरण भी किया है। उदाहरण के लिए अष्टाध्यायी' एव चान्द्रव्याकरण' के 'पिच्छादि' एवं तुन्दादिगणों को उन्होंने तुन्दादिगण का रूप दिया है।' ५. पूज्यपाद देवनन्दी ने गणपाठ में उपलब्ध शब्दों में कहीं-कहीं किञ्चिद् भिन्नता की है। उदाहरणस्वरूप अष्टाध्यायी' एवं चान्द्र-व्याकरण' के गणपाठों में विद्यमान छात्रव्यंसक तथा भिन्धिलवणा पाठों के स्थान पर उन्होंने क्रमश: छत्रव्यंसक तथा भिन्धिप्रलवणा पाठों का निर्देश किया है। ६. अष्टाध्यायी के गणपाठ में उपलब्ध अनेक गणसूत्र जैनेन्द्र-व्याकरण में वात्तिकों के रूप में दिए गए हैं। उदाहरण के लिएजै० व्या० अष्टा० १. संभूयोऽम्भसोः सखं च, ३/१/८५ वा० संभूयोम्भसोः सलोपश्च, का० ४/१/६६ (ग० सू०) २. अर्हतो नुम्च, ३/४/११४ वा. अर्ह तो नुम् च, का० ५/१/१२४ (ग० सू०) ३. ईरिकादीनि च वनोत्तरपदानि इरिकादिम्यो वनोत्तरपदेभ्यः संज्ञायाम्, ५/४/११७ वा० संज्ञायाम्, का०८/४/३६ (ग० सू०) इत्यादि। उणादि पाठ पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा रचित उणादिपाठ स्वतन्त्र रूप से इस समय उपलब्ध नहीं है। किन्तु अभयनन्दी की महावत्ति में निम्ननिर्दिष्ट कुछ 'उणादिसूत्र' उद्धृत हैं १. 'तनेर्डउः सन्वच्च', जै० म० वृ०, पृ० ३ २. 'अस, सर्वधुम्यः' वही, पृ० १७ ३. 'कृ वा पा जिमि स्वदि साध्यशूभ्य उण्', वही, पृ० ११८ ४. 'वृत वदिहनि कमि काषिभ्यः सः', वही, पृ० ११८ ५. 'अण्डः । * कृसृवृडः", वही, पृ० ११६ ६. 'गमेरिन्', वही, पृ० ११६ ७. 'आडि णित्' वही, पृ० ११६ ८. 'भुवश्च', वही, पृ० ११६ ये उणादि सूत्र पूज्यपाद देवनन्दी की ही रचना है । इसका मुख्य प्रमाण यह है कि अनेक उणादिसूत्रों में जैनेन्द्र-व्याकरण की ही संज्ञाओं का प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए-'अस् सर्वधुभ्यः उणादिसूत्र में धातुसंज्ञा के लिए जैनेन्द्र-व्याकरण की धुसंज्ञा का प्रयोग किया गया है। १. लोमादिपाभादिपिच्छादिभ्यः शनेल चः, तुन्दादिभ्य: इलच्च:,-अष्टा० ५/२/१००, ५/२/११७. २. पिच्छादिभ्यश्चेलच, चा० व्या०४/२/१०३ तथा द्रष्टव्य-४/२/११९ वृ०. तुन्दादेरिल: जै० व्या० ४/१/४३. ४. मयूरव्यंसकः । छात्रव्यंसक: । काम्बोजमण्डः ।............भिन्दि घलवणा । ........' पचप्रकूटा । का० २/१/७२. ५. ६०-चा० व्या० २/२/१८ वृ.. ६. मयर व्यंसकः । छतव्यंसकः ।...........भिन्धिप्रलवणा ।........."पोदनपाणिनीया । जै० व्या० १/३/६६ बृ०. पं० युधिष्ठिर मीमांसक के मतानुसार जैनेन्द्र-महावृत्ति का उपयुक्त मुद्रित पाठ (मण्डः । ज क सृवृङः ।) शुद्ध है तथा शुद्ध पाठ मण्डो ज, क स वृङः है। -द्र० - म० वृ०, भूमिका, पृ०४८. ८. जै० म०व०,१० १७. १. जे. व्या०, १/२/१. आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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