Book Title: Pujyapad Devnandi ka Sanskrut Vyakaran ko Yogadan Author(s): Prabha Kumari Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 4
________________ जं० व्या० ५. श्वाश्मचर्मणां सङ कोचविकारकोशेषु, ४/४/१३२. १३४ ४. कभी-कभी पूज्यपाद देवनन्दी ने अष्टाध्यायी के सूत्र और उस पर कात्यायन द्वारा रचित वार्तिक को मिलाकर एक नए सूत्र का रूप दिया है : ७. जं० व्या० १. परस्परान्योन्येतरेतरे, १/२/१०. २. पूर्वावरसदृशकलह निपुण मिश्रश्लक्ष्णसमैः, १/३/२८. ३. मध्यान्ताद्गुरौ ४ / ३ / १३०. ४. रुजर्थस्य भाववाचिनोऽज्वरिसन्ताप्योः, १/४/६१. या निष्कषोषमिश्ररन्दे ४/३/१६७. ५. मिश ६ / ३ / ५६. निष्के वेति वक्तव्यम् ६ / ३ / ५६ वा०. ५. अष्टाध्यायी में अनेक ऐसे शब्द हैं जिनकी सिद्धि के लिए पाणिनि ने नियमों का विधान किया है। पूज्यपाद देवनन्दी ने उनमें से शब्दों को निपातन से सिद्ध माना है । जैसे— कुछ जं० ० व्या० १. कर्मठ: ३/४/१५६ २. पत्नी ३/१/३३ ३. भूयहत्ये, २/१/६०. ४. सब्रहाचारी, ४/३/१९३ ५. स्थाण्डिलः, ३/२/१०. अश्मनो विकार उपसंख्यानम्, चर्मणः कोश उपसंख्यानम्, शुनः संकोच उपसंख्यानम् ६/४/१४४ वा० पाणिनि ने जिन शब्दों को निपातन से सिद्ध माना है उनमें से कुछ और उनके लिए विस्तृत सूत्रों का उल्लेख किया है। जैसे जं० व्या० १. दण्डहरितनो फे, ४/४/१६४. जामिन फे, ४/४/१६५. २. बस्सदिलो वसूलिमम् २/२/००. Jain Education International अष्टा० अष्टा० इतरेतरान्योन्योपपदाच्च १ / २ /१६. परस्परोपपदादेति वक्तव्यम् १/३/१६ वा०. पूर्व सदृशसमोनार्थ कल हनिपुण मिश्र श्लक्ष्णै:, २/१/३१. पूर्वादिष्ववरस्योपसंख्यानम्, २/१/३१ वा०. मध्याद्गुरौ, ६ / ३ / ११. अन्ताच्चेति वक्तव्यम् ६/३/११ वा०. रुजायनां भाववचनानामज्वरे २/३/५४. अज्वरिसंताप्योरिति वक्तव्यम्, २/३/५४ वा०. अष्टा० कर्मणि घटो १/२/३५ ४/१/२२. भुवो भावे, ३/१/१०७. हनस्त च ३/१/१०८. चरणे ब्रह्मचारिणी. ६/३/२६स्थण्डिलाच्छवितरि व्रते, ४/२/१५ शब्दों को पूज्यपाद देवनन्दी ने नियमानुकूल माना है ३. सोः प्रातदिवाश्वसः, ४/२/१२०. चतुश्शारेरस्रिकुक्षे:, ४/२/१२२ किसी अष्टाध्यायी के अनेक सूत्रों को तो पूज्यपाद देवनन्दी ने बिना किया है और इस प्रकार अष्टाध्यायी के सूत्रों की अविकल रक्षा की है। भ्रष्टा० दाण्डिनायनहास्तिनायना वणिकर्जह्माशिनेववासिनायनिश्रौणहत्यधैवत्यसारर्वक्ष्वाकमैत्रेयहिरण्य मयानि ६/४/१७४. उपेयिवाननाश्वाननूचानश्च ३/२/१०१. सुप्रातसुश्व सुदिवशारिकुक्षचतुरश्रेणीपदाजपदप्रोष्ठपदा, ५ / ४ / १२०. परिवर्तन के अपने व्याकरण-ग्रन्थ में समाविष्ट जैसे - आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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