Book Title: Prakritadhyaya
Author(s): Kramdishwar, Satyaranjan Banerjee, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 62
________________ Vr.I. 8 RT.I.1.2 Mk. I.4 Ec. I.46 T.I. 2. 11 -I. 5] स्वरकार्यम् इत् पक्कादेः ॥२॥ पक्कादेरादिरकार इद् भवति ॥ पिक्कं पक्वम् ॥ ईषत् वेतस स्वप्न व्यजन मृदङ्ग अङ्गार ॥ [ईसि। वेडिस। सिविण । विअण। मुइंग। इंगाल।] टीका। इत्। पिक्कमिति प्रकृतेः आयु पान्त-लवरः (II. 47) इति 'वकारलुक् । द्विरनादौ प्रागयुक्तोऽरादिरिति ( II. 105 ) ककारस्य द्विरुक्तिः। संस्कृत-[वच्छेष इति ॥ । Vr. I.4 RT.I.1.6 Mk.I.6 Hc.1.66 T.I.2.4 लुगरण्यस्य ॥३॥ . रणं ॥ अरण्यम् ॥ शय्यादेरेत् ॥४॥ Vr. I.5. RT.I.1.3 Mk. I.7 Ho. I.67 T.I.2.26 शय्यादेरादिरकार एद् भवति ॥ सेन्जा शय्या ॥ आश्चर्य पर्यन्त सौन्दर्य उत्कर [ वल्ली ]3 कियत् स्तोकमात्र वृन्त इत्यादि। [ अच्छेर। पेरंत । सुदेर। उक्कर। वेल्ली। केत्तिअ। थोअमेत्त। वेंट।] टीका। सेजा। शषयोः सः ( II. 100 ) इति सः ।। Vr.I.26 RT.I. 1. 14 Mk. I.32 Ho.I.128 T.I.2.71 ऊ५ पुरस्य ॥॥ णेउरं ॥ नूपुरम् ॥ टीका। नूपुरशब्दस्य मरेद् भवति । लोपोऽनाद्ययुग्वर्गादितृतीययोरिति (II. 1) पकारलुक् । उकारस्य प्रकृत्यवस्थानम् ॥ 1) As the manuscript S is incomplete in this respect, it has been -supplied by me to complete the sense. 2) Not found in A. 3) Emended by me. ABCO.P. वन्दी। 4) Found only in S. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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