Book Title: Prakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 159
________________ प्रकार के अंगुलों (माप विशेष) का विवेचन करता है। २५५वें द्वार में त्रसकाय के स्वरूप का विवेचन किया गया है। २५६वें द्वार में छः प्रकार के अनन्तकायों की चर्चा है। २५७वें द्वार में निमित्त शास्त्र के आठ अंगों का विवेचन है। दूसरे शब्दों में यह द्वार अष्टांग निमित्त शास्त्र का विवेचन करता है। २५८वे द्वार में मान और उन्मान अर्थात् और माप-तौल सम्बंधी विभिन्न पैमाने दिए गए हैं। २५९वें द्वार में अठारह प्रकार के भोज्य पदार्थों का विवेचन है। २६०वां द्वार षट् स्थानक हानि-वृद्धि नामक जैन दर्शन की विशिष्ट अवधारणा का विवेचन करता है। २६१वें द्वार में उन जीवों का निर्देश है, जिनका संहरण सम्भव नहीं होता है। इसमें बताया गया है कि श्रमणी, अपगतवेद, परिहार विशुद्ध चारित्र, पुलाकजब्धि, अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती चौदह पूर्वधर एवं आहारक लब्धि से सम्पन्न जीवों का संहरण नहीं होता है। २६२वें द्वार में छप्पन अन्र्दीपों का विवेचन किया गया है। २६३वें द्वार में जीवों का पास्परिक अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। २६४वें द्वार में युगप्रधान सूरियों अर्थात् आचार्यों की संख्या का विवेचन किया गया है। २६५वें द्वार में ऋषभ से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त तीर्थ की स्थिति का विचार किया गया है। २६६वां द्वार विभिन्न देवलोकों में देवता अपनी काम-वासना की पूर्ति कैसे करते हैं, इसका विवरण प्रस्तुत करता है। २६७वें द्वार में कृष्णराजी का विवेचन है। २६८वां द्वार अस्वाध्याय के स्वरूप का विस्तृत विवेचन करता है। २६९वें द्वार में नन्दीश्वर द्वीप के स्वरूप का विवेचन किया गया है। - २७०वें द्वार में विभिन्न प्रकार की लब्धियों (विशिष्ट शक्तियों) का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। २७१वें द्वार में छः आन्तर और छ: बाह्य तपों के स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया गया है।

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