Book Title: Prakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 170
________________ उसके कर्ता को अपनी परम्परा का सिद्ध करने का प्रयत्न करते रहे हैं। दोनों ही परम्पराओं में हुए इन प्रयत्नों से इस दिशा में पर्याप्त उहापोह तो हुआ, लेकिन अपनी-अपनी आग्रहपूर्ण दृष्टियों के कारण किसी ने भी सत्य को देखने का प्रयास नहीं किया। इसी क्रम में पं. नाथूरामजी प्रेमी जैसे कुछ विद्वानों ने तत्त्वार्थसूत्र के मूलपाठ का श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं से आंशिक विरोध तथा पुण्यप्रकृति के प्रसंग में उसकी यापनीय परम्परा के षट-खण्डागम से निकटता को देखकर यह निष्कर्ष निकाला कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ता उमास्वाति मूलतः यापनीय परम्परा के थे। आदरणीय नाथूरामजी प्रेमी के तटस्थ चिंतन से प्रभावित होकर प्रारम्भ में पं. सुखलालजी एवं पं. दलसुखभाई ने भी इस सम्भावना को स्वीकार किया था कि तत्त्वार्थसूत्र सम्भवतः यापनीय परम्परा का हो, किंतु बाद में उन्होंने 'तत्त्वार्थसूत्र और जैनागम समन्वय' नामक ग्रंथ देखने के पश्चात् अपना निर्णय बदला और पुनः यह माना कि तत्त्वार्थसूत्र मूलतः श्वेताम्बर परम्परा का ग्रंथ है। पं.नाथूरामजी प्रेमी के मत का समर्थन करते हुए यापनीय और उनका साहित्य' नामक ग्रंथ में श्रीमती कुसुम पटोरिया ने भी तत्त्वार्थसूत्र की गणना यापनीय साहित्य में की है। : मैं जब यापनीय सम्प्रदाय पर अपने ग्रंथ का लेखन कर रहा था, तब संयोग से मुझे दोनों ही परम्पराओं के विद्वानों के विचारों का अध्ययन करने का अवसर मिला, साथ ही आदरणीय पं. नाथूरामजी और डॉ.कुसुम पटोरिया के दृष्टिकोण का भी परिचय मिला। मुझे यह प्रतीत हुआ कि तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के संदर्भ में अभी तक जो चिंतन हुआ है वह कहीं न कहीं साम्प्रदायिक आग्रहों के घेरे में खड़ा है। सभी विद्वान किसी न किसी रूप में उसे सम्प्रदाय के चश्मे से देखने का प्रयत्न करते रहे। सभी विद्वान लगभग यह मानकर चल रहे थे कि 'श्वेताम्बर' और 'यापनीय' सम्प्रदाय. पहले अस्तित्व में आए और तत्त्वार्थसूत्र इनके बाद निर्मित हुआ है। दुर्भाग्य से किसी ने भी साम्प्रदायिक विभेद और मान्यताओं के स्थरीकरण के पूर्व तत्त्वार्थसूत्र को रखकर उसकी परम्परा को देखने का प्रयत्न नहीं किया। यही कारण रहा कि उसको किसी परम्परा विशेष के साथ जोड़ने में विद्वानों ने सम्यक् तर्कों के स्थान पर कुतर्कों का ही अधिक सहारा लिया और यह प्रयत्न किया गया कि येन-केन प्रकारेण उसे अपनी परम्परा का सिद्ध किया जाए। यद्यपि पं. नाथूरामजी प्रेमी और पं. सुखलालजी ने इस दिशा में थोड़ी तटस्थता का परिचय दिया और इस सत्यता को स्वीकार किया कि तत्त्वार्थसूत्र के मूलपाठ में कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो यह बताते हैं कि उसका श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं की स्थिर मान्यताओं

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