Book Title: Prakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 193
________________ दिशा अन्य कुछ नहीं , यह सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की व्यापक आकांक्षा ही है और इस आकांक्षा की पूर्ति अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में है। काश मानवता इन दोनों में समन्वय कर सके, बस यही कामना है। अध्यात्मवाद और उपाध्याय यशोविजयजी का साहित्य __ जैन आचार्यों में विपुल अध्यात्मवादी साहित्य सृजन की दृष्टि से श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र के पश्चात् यदि कोई महत्त्वपूर्ण लेखक हुए हैं तो वे उपाध्याय यशोविजयजी हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने जैनधर्म-दर्शन और साधना के विविध पक्षों पर अपने ग्रंथ लिखे हैं। उनका चिंतन और लेखन बहुआयामी है। ‘अध्यात्मसार' ज्ञानसार और अध्यात्मोपनिषद् के पश्चात् उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण कृति मानी जाती है। उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रायः प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और मरुगुर्जर (प्राचीन हिन्दी) आदि में अपने ग्रंथ लिखे हैं। ___अध्यात्मसार नामक प्रस्तुत कृति में संस्कृत भाषा में निबद्ध 949 श्लोक हैं। प्रस्तुत कृति का उद्देश्य व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना को विकसित करना ही है। अध्यात्मवाद की दृष्टि से उन्होंने जिन ग्रंथों की रचना की उनमें अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, आत्मख्याति, ज्ञानसार, ज्ञानार्णव आदि प्रमुख हैं। इनमें भी अध्यात्मसार का स्थान सर्वोपरि माना जा सकता है, क्योंकि यह ग्रंथ आकार और विषय विस्तार दोनों की अपेक्षा से ही महत्त्वपूर्ण है। ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय मुख्य रूप से आध्यात्मिक साधना के प्रमुख बिंदुओं को स्पष्ट करते हुए आगे बढ़ता है। __अध्यात्मसार की विषय-वस्तु - अध्यात्मसार में निम्न सात प्रबंध अर्थात् विभाग हैं। अध्यात्मसार नामक प्रथम प्रबंध में अध्यात्म का महत्त्व उसका स्वरूप स्पष्ट करते हुए दम्भ त्याग और भवस्वरूप चिंता ऐसे चार अधिकार श्लोक क्रमांक 1 से लेकर 102 तक इन चारों अधिकारों पर विवेचना प्रस्तुत की गई है। अध्यात्मसार का दूसरा प्रबंध मुख्यतया वैराग्य से सम्बंधित है। इसके अंतर्गत तीन अधिकार हैं। वैराग्य की सम्भावना वैराग्य के भेद और वैराग्य के बिना आध्यात्मिक विकास की सम्भावना ही नहीं होती है। प्रस्तुत ग्रंथ के तृतीय प्रबंध में क्रमशः चार अधिकार हैं। ममत्व त्याग अधिकार, समत्व साधना अधिकार, सदनुष्ठानाधिकार, मनःशुद्धि अधिकार। प्रथमतया इस प्रबंध में इस बात पर बल दिया गया है कि ममत्व के त्याग के बिना जीवन में समता का आविर्भाव नहीं होता है और बिना समता के सदनुष्ठान नहीं होता और बिना सदनुष्ठान के मनःशुद्धि

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