Book Title: Prakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 201
________________ प्रभाव आए। स्वयं वर्धमानसूरि ने भी यह स्वीकार किया है कि मैंने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा के ग्रंथों तथा उनमें प्रचलित इन विधानों की जीवित परम्परा को देखकर ही इस ग्रंथ की रचना की है। ग्रंथ प्रशस्तियों के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि रूद्रपल्ली शाखा लगभग बारहवीं शताब्दी में अस्तित्व में आई और उन्नीसवीं शताब्दी तक अस्तित्व में बनी रही। यद्यपि यह सत्य है कि सोलहवीं शती के पश्चात् इस शाखा में कोई प्रभावशाली विद्वान आचार्य नहीं हुआ, किंतु यति परम्परा और उसके पश्चात् कुलगुरु (मथेण) के रूप में यह शाखा लगभग उन्नीसवीं शताब्दी तक जीवित रही। ग्रंथकार वर्धमानसूरि का परिचय जहां तक प्रस्तुत कृति के रचियता वर्धमानसूरि का प्रश्न है, उनके गृही जीवन के सम्बंध में हमें न तो इस ग्रंथ की प्रशस्ति से और न किसी अन्य साधन से कोई सूचना प्राप्त होती है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि इनका जन्म रूद्रपल्ली शाखा के प्रभाव क्षेत्र में ही कहीं हुआ होगा। जालंधर (पंजाब) में ग्रंथ रचना करने से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि इनका विचरण और स्थिरता का क्षेत्र पंजाब और हरियाणा रहा होगा। इनके गुरु अभयदेवसूरि (तृतीय) द्वारा फाल्गुन सुद तीज, शुक्रवार वि.सं. 1432 में अंजनश्लाका की हुई शांतिनाथ भगवान् की धातु की प्रतिमा, आदिनाथ जिनालय पूना में उपलब्ध हैं। इससे यह सुनिश्चित है कि वर्धमानसूरि विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी में हुए। इनके गुरु अभयदेवसूरि द्वारा दीक्षित होने के सम्बंध में भी किसी प्रकार की कोई शंका नहीं की जा सकती, किंतु इनकी दीक्षा कब और कहां हुई इस सम्बंध में अधिक कुछ कहना सम्भव नहीं है। __ग्रंथकर्ता और उसकी परम्परा की इस चर्चा के पश्चात् हम ग्रंथ के सम्बंध में कुछ विचार करेंगे। ग्रंथ की विषयवस्तु वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर नामक यह ग्रंथ संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में रचित है। भाषा की दृष्टि से इसकी संस्कृत भाषा अधिक प्रांजल नहीं हैं और न अलंकार आदि के घटाटोप से क्लिष्ट है। ग्रंथ सामान्यतयाः सरल संस्कृत में ही रचित है। यद्यपि जहां-जहां आगम और प्राचीन आचार्यों के ग्रंथों के प्रमाण प्रस्तुत करने का प्रश्न उपस्थित हुआ है, वहां-वहां इसमें प्राकृत पद्य और गद्य अवतरित भी किए गए हैं। कहीं-कहीं तो (197)

Loading...

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212