Book Title: Prakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 182
________________ जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर रहें- यह जैन आचार-संहिता का. आधारभूत सिद्धांत हैं। चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होंगे। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो संगठन या समुदाय बनते हैं, वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं। क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक कल्याण के क्षेत्र प्रवृत्ति का आधार बन सकती है। प्रश्न-व्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भगवान् का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जैन साधना में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये जो पांच व्रत माने गए हैं, वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है, वे सामाजिक मंगल के लिए भी हैं। वे आत्म शुद्धि के साथ ही हमारे सामाजिक सम्बंधों की शुद्धि का प्रयास भी हैं। जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैनधर्म में तीर्थंकर, गणधर और सामान्य केवली के जो पदार्थ स्थापित किए गए हैं और उनमें जो तारतम्यता निश्चत की गई है, उसका आधार विश्व कल्याण, वर्ण कल्याण और व्यक्ति कल्याण की भावना ही है। इस त्रिपुटी में विश्व कल्याण के लिए प्रवृत्ति करने के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। स्थानांगसूत्र (स्थान 10) में ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की उपस्थिति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन साधना केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक ही सीमित नहीं है, वरन् उसमें लोकहित या लोक कल्याण की प्रवृत्ति भी पाई जाती है। जैनधर्म का अध्यात्मवाद जीवन का निषेध सिखाता है? जैनधर्म में तप-त्याग की जो महिमा गाई गई है, उसके आधार पर यह भ्रांति फै लाई जाती है कि जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है। अतः यहां इस भ्रांति का निराकरण कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैनधर्म के तप-त्याग का अर्थ शारीरिक एवं भौतिक जीवन की अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया उपेक्षा की जाए। जैनधर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं। निशीथभाष्य (47/91) में कहा गया है कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है। शरीर शाश्वत् आनंद के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी है, महत्त्व भी है और उसकी सार-सम्भाल भी करना है, किंतु ध्यान रहे, दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर (178

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