Book Title: Prakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 162
________________ शिष्य आचार्य मूल का उल्लेख किया है। साथ ही अपना जन्मस्थान न्यग्रोधिका ग्राम बताते हुए कहा है कि कुसुमपुर (वर्तमान पटना) में विचरण करते हुए इस ग्रंथ की रचना की, इन तथ्यों के अतिरिक्त उनके सम्बंध में अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र की विषयवस्तु तत्त्वार्थसूत्र को जैनधर्म और दर्शन का सारभूत ग्रंथ कहा जा सकता है। उसमें जैनधर्म के आधारभूत सप्त तत्त्वों की विवेचना हुई है। वे सात तत्त्व हैं- जीव, अजीव, आस्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्षा तत्त्वार्थसूत्र दस अध्यायों में विभक्त हैं। इसके प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को समन्वित रूप से मोक्षमार्ग बताते हुए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की चर्चा की गई है। इसमें सम्यग्दर्शन की चर्चा के प्रसंग में आठ अनुयोगद्वार की चर्चा भी की गई है। इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान की चर्चा के प्रसंग में पांच ज्ञानों के स्वरूप एवं उनके भेद-प्रभेद के विवेचन के साथ-साथ नय और निक्षेप की अवधारणा को भी प्रस्तुत किया गया है, किंतु इसमें स्यादवाद और सप्तभंगी का कोई निर्देश नहीं है। तत्त्वार्थ सूत्र के दूसरे अध्याय में जीव तत्त्व और उसके भेद प्रभेद का विवेचन प्रस्तुत करने के साथ-साथ पंचभावों की चर्चा की गई है। ये पंचभाव निम्न है- 1. औदयिकभाव, 2. औपशमिक भाव, 3. क्षायिक भाव, 4. क्षायोपरामिक भाव और 5. पारिणामिक भाव। तीसरे अध्याय में नारकीय जीवों का विवेचन करते हुए सप्तनरकों और प्रत्येक नरक जीवों की लेश्या आयु स्थिति आदि का भी विवेचन किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र का चतुर्थ अध्याय चार प्रकार के देव निकाय का वर्णन प्रस्तुत करता है। ये चार प्रकार के देव निकाय निम्न माने गए हैं - 1. भवनपति, 2. व्यंतर, 3. ज्योतिष्क और 4. वैमानिक। इस अध्याय में इन देवों के उपप्रकारों, उनके निवास स्थान, आयु-मर्यादा आदि की भी चर्चा की गई है। तत्त्वार्थसूत्र का पंचम अध्याय मुख्यतः अजीव तत्त्व से सम्बंधित है। अजीव तत्त्व की इस चर्चा में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गल और काल के स्वरूप लक्षण आदि की चर्चा की गई है। इस अध्याय में द्रव्य लक्षण की भी विवेचना है। तत्त्वार्थ सूत्र का छठा अध्याय आश्रव तत्त्व के विवेचन से सम्बंधित है। इस अध्याय में पुण्य और पाप क्रमशः शुभ और अशुभ आश्रव मानकर आश्रव तत्त्व में ही समाहित कर लिया गया है। तत्त्वार्थसूत्र से पूर्व आगमों और आगमों का अनुसरण करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों में जो नवत्त्वों की चर्चा मिलती है, उसके

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