Book Title: Prakrit Dipika Author(s): Sudarshanlal Jain Publisher: Parshwanath Vidyapith View full book textPage 6
________________ प्रकाशकीय प्राचीन भारतीय भाषाओं में संस्कृत का स्थान शीर्षस्थ है, किन्तु संस्कृत का जिससे निर्माण हुआ है वह मूल भाषा प्राकृत है। प्राकृत संस्कृत की जननी है, प्रकृति है, जबकि संस्कृत, प्राकृत का संस्कारित रूप है। प्राकृत स्वाभाविक भाषा है, संस्कृत कृत्रिम भाषा है। स्वयं 'संस्कृत' शब्द ही उसके संस्कारित स्वरूप का प्रमाण है। वस्तुत: प्राकृत भी एक भाषा नहीं अपितु भाषा-समूह का नाम है। भारतीय भाषाओं के विकास में इन प्राकतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पंजाबी, राजस्थानी, गजराती, हिन्दी, मराठी, बंगला, उड़िया आदि अनेक भाषाओं का विकास इन्हीं प्राकृतों से हुआ है। युगयुग तक प्राकृत ही जन-जन की भाषा रही है। संस्कृत विद्वद्वर्ग की साहित्यिक भाषा तो रही किन्तु वह जन-जन की भाषा कभी नहीं बनी। यही कारण था कि जब संस्कृत के साहित्यकारों को जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करना होता था तो वे उसके मुख से प्राकृत ही कहलाते थे, संस्कृत नहीं। जिस प्रकार आज हिन्दी सभ्य वर्ग की एक साहित्यिक भाषा होते हुए भी घर-घर में भोजपुरी, बुन्देली, मालवी, मेवाड़ी, मारवाड़ी आदि लोक-भाषाएँ ही प्रचलित हैं, जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों एवं आचार्यों ने अपने को जन-जन से जोड़ने के लिए इन्हीं प्राकृतों को अपनाया। आज भी प्राचीनतम भारतीय साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग इन प्राकृतों में निबद्ध एवं उपलब्ध है। प्राकृतों के ज्ञान के बिना किसी को प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति को समझ पाना सम्भव नहीं है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि आज प्राकृत का ज्ञान, अध्ययन एवं अध्यापन धीरे-धीरे विलप्त होता जा रहा है। आज सम्पूर्ण देश में पालि एवं प्राकृत के विद्वानों की संख्या अंगुलियों पर गिनने योग्य है। संस्कृत के विद्वानों एवं विद्यार्थियों में प्राकृत के अध्ययन के प्रति रुचि जागृत हो, इसलिए आवश्यक है कि उन्हें प्राकृत भाषा सीखने हेतु कुछ प्रारम्भिक पुस्तकें तैयार की जायें। प्राकृत से अनभिज्ञ छात्रों को हिन्दी माध्यम से प्राकृत सीखने की दृष्टि से डॉ० प्रेमसुमन जैन की 'प्राकृत स्वयं शिक्षक' नामक पुस्तक एक अच्छा प्रयास है। किन्तु उन लोगों के लिए जो संस्कृत के अध्ययन में निरत हैं और संस्कृत की शैली में प्राकृत सीखने के इच्छुक हैं, एक दूसरी पद्धति अपेक्षित है। प्रोफेसर सुदर्शन लाल जैन का यह ग्रन्थ दोनों ही प्रकार के लोगों की अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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