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इंख्यिपराजयशतक. मणि नयणवाणा के स्त्रीनां नयनरूपी बाणो चरित्त के चारित्ररूप पाणे के प्राणने विणासंति के नाश पमाडे , तेवी स्त्रीने परिहर के० परित्याग कर. ॥३५॥ सिईत जलदिपारंगविविजिदिविसूरोवि ॥ दढचित्तोवि बलिजा
जुवा पिसाईहिं खुड्डाहिं ॥४०॥ मणय नवणीय विल जद जायर जलणसंनिदाणंमि॥ तद रमणिसंनिदाणे विद्दवइ मणो मुणीणंपि॥४१॥ व्याख्या- दढचित्तो के दृढ चित्त वालो एवो विसुरोवि के विशेष करी शूरो पुरुष जे सिकंतजल हिपारंग के सिद्धांतसमुज्ने विशेषे करीने पार पहोंचेलो एवो श्रने विजिदि के इंजिउने जेणे जीती होय तेहने पण जुवर के० जुवतिरूप पिसाहिंरकुडाहिं के० कुजणी एवी पिशाचणी बलिस के बले बे. ॥४०॥जह के० जेम जलण के अग्नि- तेना संनिहाणं मि के सन्निध एटले समीपनागनेविष मणय के मीण अने नवणीय के नवनीत एटले माखण, विलजाय के जंगली जाय बे; तह के तेम रमणिसंनिहाणे के० स्त्रीना सन्निधे एटले समीपत्नागे मुणीणं पि के मुनिश्वरतुं पण मणो के मन विदव के विशेषे करीवित थाय जे. एटले मन जंगली जाय . ॥४१॥
नीअंगमादि सुपनराहिं प्पिसमंथरगईदिं ॥ महिलाहिं निनग्गाश्व गिरवरगुरुश्रा विनिसंति ॥४॥ विसयजलं मोदकलं विलासविलो
अजलयराश्त्तं ॥ मयमयरंउत्तिन्ना तारुममदन्नवं धीरा ॥४३॥ व्याख्या-नीअंगमाहिं के नीची गतीए , तेमाटे सुपजराहिं के पाणीसहित एवी, अने मंथरगढ़ के मंथर गतिए डे माटे उपिछ के जोवा योग्य एवी, महिसाहिं के स्त्री ते निमग्गाश्व के नदीनीपरें गिरिवरगुरुथा के० मेरूपर्वत सरखा स्थिरमनवालाउने पण विनिशंति के विशेषे करीनेदे . ॥४२॥ विसयजलं के विषयरूप ते जल, मोहकलं के मोहरूप कलजोग, अने विलास विद्योअजलयराश्तं के हावनावरूपीथा जलचर जीवो तेणे आकीर्ण एटले जरेलो एवो अने मय के मद- ते रूप मयरं के० मगर मवालो एवो तारुणमहन्नवं के तारुण एटले यौवनावस्थारूप महार्णव एटले महासमुज्ने धीरा के जे धीरपुरुष ते उत्तिन्ना के उतरे. अर्थात् एवा समुप्रने तरी पार उतरेले. ॥ ३ ॥ जवि परिचत्तसंगो तव तणुअंगो तदावि परिवडश् ॥ मिदिखा संसग्मीए कोसानवणू सिमूणिवा ॥ ४४ ॥ सवग्गंथविमुक्को सीईन्नू ऊपसंतिचित्तोत्र ॥ पाव मूत्तिसुदं न चकवट्टीवि तं खद॥४५॥
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