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तेआसीमो संधि [१०] सीताके वचन सुनकर जनसमूह हर्पित हो उठा। ऊँचे होकर उसने अएटा मोम किर। राज धुरके यशकी रेखा मिटानेवाले शत्रुघ्नके साथ लक्ष्मण भी यह सुनकर प्रसन्न हुआ। जनक, कनक और भामण्डल भी हर्षविभोर हो उठे। बनके कर्णकुण्डलोंके मणि चमक रहे थे। कठोर स्वभाव लवण और अंकुश भी प्रसन्न थे । वनजंघ,नल और नील भी प्रसन्न थे। तार तरंग रंभ विश्वसेन भी, दधिमुख, कुमुद, महेन्द्र और सुषेण भी, गवय, गवाक्ष, शंख, शकनन्दन इन्द्रपुत्र, चन्द्रराशि चन्द्रोदर नन्दन लंकाधिप,सुग्रीव,अंग, अंगद, जम्बव,पवनञ्जय, पवनांगद, लोकपाल, गिरि, नदियों और समुद्र भी, नागराज, देवराज और नरराज भी प्रसन्न थे। तीनों लोकोंके भीतर जितने भी लोग थे वे सब हर्षित हुए । परन्तु एक अकेले राम नहीं इसे। उनके मन में अभी तक आशंका थी ।। १-९॥ __[११] सीताने जब गर्व के स्वरमें अपना प्रस्ताव रखा, तो रामने भी उसका समर्थन कर दिया। खनक बुलाये गये, और उन्होंने धरती स्त्रोदना प्रारम्भ कर दिया:साढ़े सात हाथ लम्बा चौकोर वह गढढा लकड़ियोंके समूहसे, कालागुरु चन्दन, श्रीखण्ड, देवदार, कपूर आदिसे भर दिया। उसके चारों ओर सोनेके मंच बना दिये गये। राजा लोग अपने अपने थानोंपर बैठकर आये। देवता, इन्द्र, रवि, विष्णु और ब्रह्मा भी वहाँ पधारे । परमेश्वरी परमसती सीतादेवी लकड़ियोंके उस ढेर पर चढ़ गयीं, उस समय वे ऐसी लगी मानो अत और शीलके ऊपर स्थित हों । उन्होंने सम्बोधित करते हुए कहा, "अरे देवताओ
और मनुष्यो, आपलोग मेरा सतीत्व और रामकी दुष्टता, अपनी आँखों देख लें । हे अग्नि (देव), आप जलें, यदि मेरा आचरण अपवित्र है, तो मुझे कदापि क्षमा न करें।" कोलाहल