Book Title: Paumchariu Part 5
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 331
________________ पावासीमी संधि यह भी उसके वियोगमें संन्यासी बन गये हैं। अपक श्रेणिमें स्थित इनके ध्यान में मैं किस प्रकार बाधा पहुँचाऊँ जिससे इनका मन विचलित हो जाय, और इन्हें उज्ज्वल धवल केवलज्ञान उत्पन्न न हो, जिससे यह वैमानिक स्वर्गका इन्द्र हो जाय, मेरा मनचाहा मित्र, बहुतसे रत्नोंका स्वामी । उसके साथ मैं घूमँगी, अभिनन्दन करूँगी: और समस्त मितभालोंनी ना करूँगी, देवसमूहमें पाँचों मन्दराचलकी वन्दना करूँगी, और नन्दीश्वर द्वीपकी यात्रा भी करेगी। सुमित्राका जो पुत्र लक्ष्मण नरकमें है उसे सम्यक् बोध देकर ले आऊँगी और अन्तमें त्रिलोकचकमें अपना यश प्रसारित करनेवाले रामको अपने सुख-दुख बताऊँगी। अपने मनमें ये सब बाने सोचकर वह देव आकाश मार्गसे चल पड़ा। और आधे ही पलमें वह, कोटिशिलाके पास आ पहुँचा ।।१-१२॥ [२] उस स्वयंप्रम देवने बिना किसी विलम्बके उस शिलाके चारों ओर सुन्दर दान बना दिया, जो नयी-नयी कोपलोसे शोभित था, जो गीले-गीले फूलोंसे अत्यन्त सम्पन्न था, जिसमें सुन्दर फल फूल और दल थे, जिसमें कोयलोंका सुन्दर कलरष हो रहा था, जिसमें शीतल मंद दक्षिण हवा बह रही थी, जिसमें चंचल भौरोंके समूह की गुनगुनाहट थी, जो सहकारोंकी मंजरियोंसे लदा हुआ था, जो कुसुमोको धूलसे पीला-पीला हो रहा था, जो सैकड़ों तोतों और देसूके फूलोंसे लदा हुआ था । जिसमें बहुविध विहंग विचरण कर रहे थे, जिसकी सभी दिशाओं में सौरभकी रेल-पेल मची हुई थी। वृक्षोकी बहुलताने धरतीको अन्धकारसे ढक दिया था 1 जो स्वर्गके नन्दनवनके समान था, मन्दर और स्वर्ग उद्यानसे अपनी समानता रखता था ॥१-२॥

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