Book Title: Paumchariu Part 5
Author(s): Swayambhudev, H C Bhayani
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 340
________________ १३० पदमवरि महु कारण विहि मि जहि भव- सायरे कोहवण घत्ता [10] तुर्डे पर भ्रण्ड किय होयऍ जिणन्वयणामय पश्पिीय उ जाहूँ महता हूँ । दुख पाएँ ||१२|| कोहु मूल सवहुँ वि भणरथहुँ । कोहु विणास करणु दय-भ्रम्म कोड जें मूल जग-सय-मरणहाँ । कोहु से वहरि सम्बहाँ जीवों कोहु चिजहाँ विम-सहावहाँ । हणिसुर्णेवि इव दणाणतरें । 'किंकिदिन हा हा का पाठ कर बडूउ | यो परिषद्रिय मनें काहणें । स- परम्पराएँ मम्मीलिय । 'छइ वह एस्थही उद्धारमि । चिणि चि जण सहसा सोहमद एवं भणेषि किर जावहि । अरुणें तुप्पु जेम सिंह तानि । सोमायहि भग्गा । कोहु मूल संसारावत्थहुँ ||१|| कोहु जँ मूलु वोर- दुकम्महों ॥२॥ कोहु में मूल परम-पसरण ॥ ३ ॥ में कज्जे अहाँ हरि दहगी वहीं ||४|| अवशेप्पर मित्तत्तणु भाष' ॥५॥ सिणि वि ते समिय खणन्तरे ॥ ६ हुँ ॥७॥ म जं सम्पाद्य कुहु एवड्डू ||८|| घता जें छण्डिप कु-मह जाठ सुराशिव' || ९ | [19] बासवेण दुध्यहुर-वर्णे ||१|| 'पहु ऐहु' आलाव पभासिय || २ || दुग्गइत्तर-डिणि तारमि ॥३॥ | सम् पराणमि अअ णास्व ॥४॥ छोडि जेम विवि गय तावहिं ॥ ५ अइ-गेज्झ दप्पण -खाय-व थिय ॥३ केम त्रिवि ण सकिय इन्हें ||७||

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