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पंचासीमो संधि [१२] उधर पति और पुत्रसे विमुख, देवताओंके भी ऐश्वर्य को ठुकरा देनेवाली, अत्यन्त सत्त्वसे विभूषित सीतादेवी तपमें लीन हो गयीं। वह पाषस शोभाकी भाँति सुपयोधरा (बादल और स्तन ) थी। देव-सुन्दरियोंसे भी अधिक सुन्दर थी । यद्दी साध्वी सीता तपसे ऐसे सूख गयी जैसे ग्रीष्मकाल में सूर्य ने माल को सुखा दिगा हो । हाभाषको त कोसों दूर छोड़ चुकी थी। अत्यन्त मैली कंचुकीसे वह शोभित थी। परमशास्त्रों के अनुसार वह पारणा करती थी । पाँवों इन्द्रियोंरूपी हाथियोंको उसने अपने वशमें कर लिया था। उसके शरीरका जैसे रक्त और मांससे सम्बन्ध ही नहीं रह गया था। यहाँ तक कि लोगोंको उसके जीवन में शंका होने लगी । शरीरके नाम पर हड़ियोंका ढाँचा और नसोका जाल रह गया था। रूखीसूखी उसकी चमड़ी थी और सब ओरसे भयावनी लगती थी। इस प्रकार घोर धीर तप साधते हुए उसने बासठ साल बिता दिये । फिर तैतीस दिनोंकी समाधि लगाकर उसने इन्द्रका इन्द्रत्वं पा लिया। सोरहवें स्वर्ग में जाकर बह सूर्यप्रभ नामक विशाल विमानमें उत्पन्न हुई। उसके शिखर स्वर्गगिरिके शिखरके समान थे। उसमें जड़ित नाना रत्नोंकी आभासे दिशाएँ आलोकित थीं। वासुदेव और उनकी पत्नीके सिवाय
और भी जो दूसरे लोग दीक्षा ग्रहण करेंगे वे स्वर्ग और मोनके सुखोंको स्वयं भोगेगे ।।१-१२।। इस प्रकार महाकवि स्वयंभूरंच द्वारा अवशिष्ट पद्मपरितके शेषमागमें त्रिभुवन स्वयंभू द्वारा रचित 'सीता संन्यास
और प्रयध्या' नामक प्रसंग समाप्त हुआ। चंदइके भानित महाकवि स्वयंभूके छोटे पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू नारा रचित, शेष-भागमे यह पचासीवी सन्धि समाप्त हुई।