Book Title: Panna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 8
________________ प्रकाशकीय धर्म, अध्यात्म एवं दर्शन का सही अर्थ है-जीव, जगत् और परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को समझना और धर्म को जीवन-व्यवहार में उतारना। धर्म, सिर्फ उपासना, पूजा की ही एक पद्धति नहीं है, प्रत्युत वह आत्मा का सहज-स्वभाव है, जो जीवन की प्रत्येक क्रिया के साथ अनुस्यूत रहना चाहिए। उपासकदशांग सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर ने दस प्रमुख श्रावकों के जीवन का वर्णन किया है, उसमें यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण है--उनके जीवन का कण-कण धर्म से ओत-प्रोत था। उनका सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध आदि के समय का जीवन ही नहीं, प्रत्युत उनका आजीविका अर्थात् व्यापार, खेती-बाड़ी, घर एवं अन्य सामाजिक-राष्ट्रिय व्यवहार भी धर्ममय थे । इसका अर्थ है, उनके जीवन का हर क्षण धर्म की ज्योति से ज्योतिर्मय था। और, यह ज्योति, ज्योतित होती है, प्रज्ञा से, ज्ञान से। इसलिए भगवान् महावीर ने प्रज्ञा को, ज्ञान को महत्त्व दिया है। जो कुछ करो, वह प्रज्ञा के, ज्ञान के, विवेक के आलोक में करो, वही धर्म है। धर्म, किसी क्रिया एवं कार्य विशेष में नहीं, वह तो प्रज्ञा---ज्ञान में है। सम्यक्-ज्ञान पूर्वक की गई क्रिया में पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता। यदि क्रिया, चाहे कितनी ही उत्कृष्ट क्यों न हो, उसके साथ ज्ञान नहीं है, विवेक नहीं है, तो उससे पापकर्म का ही बन्ध होगा। प्रस्तुत ग्रन्थ-पन्ना समिक्खए धम्म' में जीवन के इसी चिरन्तन सत्य को उजागर किया है। धर्म की समीक्षा किसी क्रिया-काण्ड से नहीं, प्रज्ञा से करनी चाहिए। प्रज्ञा से ही दृष्टि स्वच्छ, निर्मल एवं पवित्र होती है और जीवन-यात्रा का पथ प्रशस्त होता है । अतः गुरुदेव की यह दिव्य-वाणी जीवन अभ्युदय के लिए महत्त्वपूर्ण है.---"कर्म करो, अनासक्त रह कर करो। उसके कर्ता होने के अहंकार से मुक्त रहो। कर्तव्य भाव से सहज रूप से, क्रिया जाने वाला कर्म ही धर्ममय कर्म है। उसमें साधक कर्म करते हुए भी अकर्म रहता है।" प्रस्तुत ग्रन्थ दार्शनिक, धार्मिक-आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक, तीन खण्डों में सम्पन्न हुआ है। पूज्य गुरुदेव ने समग्र जीवन-पथ पर अपने विचारों का आलोक दिया है। जीवन-व्यवहार का कोई भी क्षेत्र अस्पशित नहीं रहा है। अतः सर्वतोमुखी विकास के लिए यह ग्रन्थ अत्युपयोगी है। प्रस्तुत विशाल ग्रन्थ पर श्रीमाँ प्राचार्य चन्दनाश्रीजी की पुरोवाचा ग्रन्थ के महत्त्व को उजागर करती है। इस ग्रन्थ की प्रेस कापी करने, प्रूफ संशोधन एवं मेक-अप आदि में मुनि श्री समदर्शीजी एवं महासती श्री यशाजी का महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा है। साथ में अन्य साध्वियों ने समयसमय पर सहयोग दिया है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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