Book Title: Nyayakumudchandra Part 2
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 12
________________ 10 न्यायकुमुदचन्द्र होते हुए भी उसके विषयमें तत्तदवस्थाभेदके कारण दृष्टिभेद संभव है। इस सिद्धान्तकी / मौलिकतामें किसको सन्देह हो सकता है। क्या हम "श्रुतयो विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं न मिन्नम् / " [महाभारत] “यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् // " [ केनोपनिषत् 2 / 3 ] इत्यादि वचनोंको मूलमें अनेकान्तवादका ही प्रतिपादक नहीं कह सकते ? दर्शनशब्द ही स्वतः दृष्टिभेदके अर्थको प्रकट करता है। इस अभिप्रायसे जैनाचार्योंने अनेकान्तवादके द्वारा दार्शनिक आधार पर विभिन्न दर्शनोंमें विरोध भावनाको हटाकर परस्पर समन्वय स्थापित करनेका एक सत्प्रयत्न किया है। अनेक अवस्थाओंसे बद्ध, सदैव विभिन्न दृष्टिकोणोंसे पदार्थोंको देखनेका अभ्यासी मनुष्य, किसी पदार्थके अखण्ड सकल-स्वरूपको कैसे जान सकता है ? उस अखण्ड मूलस्वरूपको हम सच्चे अर्थमें "गुहाहितं गहरेष्ठं पुराणम्" कह सकते हैं / “पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यां वृतं दिवि” [यजुर्वेद पुरुषसूक्त ] इस वैदिकश्रुतिका मी वास्तविक तात्पर्य यही है। इसमें सन्देह नहीं कि जैनदर्शनमें प्रतिपादित अनेकान्तवादके इस मौलिक अभिप्रायको समझनेसे दार्शनिक जगत्में परस्पर विरोध तथा कलहकी भावनाओंके नाशसे परस्पर सौमनस्य और शान्तिका साम्राज्य स्थापित हो सकता है। जैनधर्मकी भारतीय संस्कृतिको बड़ी भारी देन अहिंसावाद है। जो कि वास्तवमें दार्शनिकभित्तिपर स्थापित अनेकान्तवादका ही नैतिकशास्त्रकी दृष्टि से अनुवाद कहा जा सकता है। धार्मिकदृष्टि से यदि अहिंसावादको ही जैनधर्ममें सर्वप्रथम स्थान देना आवश्यक हो तो हम अनेकान्तवादको ही उसका दार्शनिकदृष्टिसे अनुवाद कह सकते हैं। अहिंसा शब्दका अर्थ भी मानवीय सभ्यताके उत्कर्षानुत्कर्षकी दृष्टि से भिन्न भिन्न किया जा सकता है। एक साधारण मनुष्य के स्थूल विचारोंकी दृष्टिसे हिंसा किसीकी जान लेनेमें ही हो सकती है। किसीके भावोंको आघात पहुंचानेको वह हिंसा नहीं कहेगा। परन्तु एक सभ्य मनुष्य तो विरुद्ध विचारोंकी असहिष्णुताको भी हिंसा ही कहेगा / उसका सिद्धान्त तो यही होता है कि "अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता / सैव दुर्भाषिता राजन् अनायोपपद्यते // वाक्सायका वदनानिष्पतन्ति पैराहताः शोचति राज्यहानि / परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान् पण्डितो नावसृजेत् परेभ्यः // " [विदुरनीति 2 / 77,80] सभ्य जगत्का आदर्श विचार स्वातन्त्र्य है / इस आदर्शकी रक्षा अहिंसावाद ( हिंसा-असहिष्णुता ) के द्वारा ही हो सकती है। विचारोंकी सङ्कीर्णता या असहिष्णुता

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