________________ प्रस्तावना 15 - म०म० गङ्गाधर शास्त्रीने इस 'आचार्याः' पदके नीचे 'तात्पर्यटीकायां वाचस्पतिमिश्राः' यह टिप्पणी की है। यहाँ यह विचारणीय है कि-यह मत वाचस्पति मिश्र का है या अन्य किसी पूर्वाचार्यका / तात्पर्य-टीका (पृ० 148) में तो स्पष्ट ही उभयजज्ञान नहीं मानकर उसे ऐन्द्रियक कहा है। इसलिये वह मत वाचस्पतिका तो नहीं है। व्योमवती* टीका (पृ० 555) में उभयजज्ञानका स्पष्ट समर्थन है. अतः यह मत व्योमशिवाचार्यका हो सकता है। व्योमवतीमें न केवल उभयजज्ञानका समर्थन ही है किन्तु उसका व्यवच्छेद भी अव्यपदेश्य पदसे किया है। हाँ, उसपर जो व्याख्याकार की अनुपपत्ति है वह कदाचित वाचस्पतिकी तरफ लग सकती है। सो भी ठीक नहीं; क्योंकि वाचस्पतिने अपने गुरुकी जिस गाथाके अनसार उभयजज्ञानको ऐन्द्रियक माना है, उससे साफ मालूम होता है कि वाचस्पतिके गुरुके सामने उभयजज्ञानको माननेवाले आचार्य (संभवतः व्योमशिवाचार्य) की परम्परा थी, जिसका खण्डन वाचस्पतिके गुरुने किया। और जिस खण्डनको वाचस्पतिने अपने गुरुकी गाथाका प्रमाण देकर तात्पर्य-टीकामें स्थान दिया है। इसी तरह तात्पर्य-टीकामें (पृ० 102) 'यदा ज्ञानं तदा हानोपावानोपेक्षाबुद्धयः फलम्' इस भाष्यका व्याख्यान करते हुए वाचस्पति मिश्रने उपादेयताज्ञानको 'उपादान' पदसे लिया है और उसका क्रम भी 'तोयालोचन, तोयविकल्प, दृष्टतज्जातीयसंस्कारोबोध, स्मरण, 'तज्जातीयञ्चेदम्' इत्याकारकपरामर्श, .. इत्यादि बताया है। __ न्यायमंजरी ( पृ० 66 ) में इसी प्रकरणमें शङ्का की है कि-'प्रथम आलोचन ज्ञानका फल उपादानादिबद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें कई क्षणोंका व्यवधान पड़ जाता हैं ? इसका उत्तर देते हुए मंजरीकारने 'आचार्याः' शब्द लिखकर 'उपादेयताज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं' इस मतका उल्लेख किया है। इस 'आचार्याः' पद पर भी म०म० गङ्गाधर शास्त्रीने 'न्यायवात्तिक-तात्पर्यटीकायां वाचस्पतिमिश्राः' ऐसा टिप्पण किया है / न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके संपादक पं० सूर्यनारायणजी न्यायाचार्यने भी उन्हींका अनुसरण करके उसे बड़े टाइपमें हेडिंग देकर छपाया है। मंजरीकारने इस मतके बाद भी एक व्याख्याताका मत दिया है जो इस परामर्शात्मक उपादेयता ज्ञानको नहीं मानता। यहाँ भी यह विचारणीय है कि-यह मत स्वयं वाचस्पतिका है या उनके पूर्ववर्ती उनके गुरुका ? यद्यपि यहाँ उन्होंने अपने गुरु का नाम नहीं लिया है, तथापि जब व्योमवती जैसी प्रशस्तपादकी प्राचीन टीका (पृ० 561) मे इसका स्पष्ट समर्थन है, तब इस मतकी परम्परा भी प्राचीन ही मानना होगी। और 'आचार्याः' पदसे वाचस्पति न लिए जाकर व्योमशिव जैसे कोई प्राचीन आचार्य लेना होंगे। मालूम होता है म०म० ङ्गाधर शास्त्रीने "जातञ्च सम्बद्धञ्चेत्येकः कालः' इस वचनको वाचस्पतिका माननेके कारण ही उक्त दो स्थलों में 'आचार्याः' पद पर 'वाचस्पतिमिश्राः' ऐसी टिप्पणी कर दी है, जिसकी परम्परा चलती रही। हाँ, म० म० गोपीनाथ कविराजने अवश्य ही उसे सन्देह कोटिमें रखा है। भद्र जयन्तकी समयावधि-जयन्त मंजरीमें धर्मकीतिके मतकी समालोचनाके साथ ही साथ उनके टीकाकार धर्मोत्तरकी आदिवाक्यकी चर्चाको स्थान देते हैं। तथा प्रज्ञाकरगुप्तके 'एकमेवेदं हर्षविषाद * 'न, इन्द्रियसहकारिणा शब्देन यज्जन्यते तस्य व्यवच्छेदार्थत्वात्, तथा ह्यकृतसमयो रूपं पश्यन्नपि चक्षुषा रूपमिति न जानीते रूपमितिशब्दोच्चारणानन्तरं प्रतिपद्यत इत्युभयजं ज्ञानम् ; ननु च शब्देन्द्रिययोरेकस्मिन् काले व्यापाराऽसम्भवादयुक्तमेतत् / तथाहि-मनसाऽधिष्ठितं न श्रोत्रं शब्दं गृह्णाति पुनः क्रियाक्रमेण चक्षुषा सम्बन्धे सति रूपग्रहणम् / न च शब्दज्ञानस्यैतावत्कालमवस्थानं सम्भवतीति कथमुभयजं ज्ञानम् ? अत्रैका श्रोत्रसम्बद्धे मनसि क्रियोत्पन्ना विभागमारभते. 'ततः स्वज्ञानसहायशब्दसहकारिणा चक्षुषा रूपज्ञानमुत्पद्यते इत्युभयजं ज्ञानम् / यदि वा. 'भवत्येवोभयजं ज्ञानम् ."-प्रश० व्यो० पृ० 555 / "द्रव्यादिजातीयस्य पूर्व सुखदुःखसाधनत्वोपलब्धः तज्ज्ञानानन्तरं यद्यत् द्रव्यादिजातीयं तत्तत्सुखसाधनमित्यविनाभावस्मरणम, तथा चेदं द्रव्यादिजातीयमिति परामर्शज्ञानम्, तस्मात् सुखसाधन मिति विनिश्चयः तत उपादेयज्ञानम् .."-प्रश० व्यो० पृ० 561 /