________________ न्यायकुमुदचन्द्र स्तोत्रं तीर्थोपमानं पृथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत् विद्यानन्दैः स्वशक्तथा कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धथै // 123 // " अर्थात् तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रसे दीप्तरत्नोंके उद्भवके प्रोत्थानारम्भकाल-प्रारम्भिक समयमें, शास्त्रकारने, पापोंका नाश करनेके लिए, मोक्षके पथको बतानेवाला तीर्थस्वरूप जो स्तवन किया था और जिस स्तवन की खामीने मीमांसा की है, उसीका विद्यानन्दने अपनी खल्पशक्तिके अनुसार सत्यवाक्य और सत्यार्थकी सिद्धिके लिए विवेचन किया है / वे इस रलोकमें स्पष्ट सूचित करते हैं कि स्वामी समन्तभद्रने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मंगलश्लोकमें वर्णित जिस प्राप्तकी मीमांसा की है उसी प्राप्तकी मैंने परीक्षा की है। वह मंगलस्तोत्र तत्त्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रसे दीप्त रत्नोंके उद्भवके प्रारम्भिक समयमें शास्त्रकारने बनाया था। यह तत्त्वार्थशास्त्र यदि तत्त्वार्थसूत्र है तो उसका मथन करके रत्नोंके निकालनेवाले आचार्य पूज्यपाद हैं / यह 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोक स्वयं सूत्रकारका तो नहीं मालूम होता; क्योंकि भट्टाकलङ्कदेव और विद्यानन्दने अपने राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकमें इसका व्याख्यान नहीं किया। है / यदि विद्यानन्द इसे सूत्रकारकृत ही मानते होते तो वे अवश्य ही श्लोकवार्तिकमें उसका व्याख्यान करते / इस श्लोकमें विद्यानन्दने ‘मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोकको उस शास्त्रकारका बताया है, जिसने तत्त्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रका मथन करके दीप्तरत्न निकाले थे। वे इस श्लोकको मूलसूत्रकारका नहीं मानते / परन्तु यही विद्यानन्द प्राप्तपरीक्षा ( पृ० 3) के प्रारम्भमें इसी श्लोकको सूत्रकारकृत भी लिखते हैं / यथा"किं पुनस्तत्परमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते-मोक्षमार्गस्य नेतारं...." इस पंक्तिमें यही श्लोक सूत्रकारकृत कहा गया है। किन्तु विद्यानन्दकी शैलीका ध्यानसे समीक्षण करने पर यह स्पष्टरूपसे विदित हो जाता है कि वे अपने ग्रन्थों में किसी भी पूर्वाचार्यको सूत्रकार और किसी भी पूर्वग्रन्थको सूत्र लिखते हैं / तत्त्वार्थरलोकवार्तिक ( पृ० 184 ) में वे अकलङ्कदेवका सूत्रकार शब्दसे तथा राजवार्तिकका सूत्र शब्दसे उल्लेख करते हैं-"तेन. 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणम्' इत्येतत्सूत्रोपात्तमुक्तं भवति / ततः, प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा / द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् // 4 // सूत्रकारा इति ज्ञेयमाकलङ्कावबोधने / " इस अवतरणमें 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष' वाक्य राजवार्तिक पृ०३८) का है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं' श्लोक न्यायविनिश्चय (श्लो० 3 ) का है / अतः मात्र सूत्रकारके नामसे 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोकको उद्धृत करनेके कारण हम ‘विद्यानन्दका झुकाव इसे मूल सूत्रकारकृत माननेकी ओर है' यह नहीं समझ सकते / अन्यथा वे इसका व्याख्यान श्लोकवार्तिकमें अवश्य करते / अतः इस पंक्तिमें सूत्रकार शब्दसे भी इद्धरत्नोंके उद्भवकर्ता आचार्यका ही ग्रहण करना चाहिए। 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' श्लोक वस्तुतः सर्वार्थसिद्धिका ही मंगलश्लोक है। और यदि समन्तभद्रने इसी श्लोकके ऊपर अपनी प्राप्तमीमांसा बनाई है, जैसा कि विद्यानन्दका उल्लेख है, तो समन्तभद्र पूज्यपादके उत्तरकालीन सिद्ध होते हैं / पं० सुखलालजी का यह तर्क कि-"यदि समन्तभद्र