Book Title: Nyayakumudchandra Part 2
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 17
________________ प्राकथन 15 माश अगर कार्यसाधक है तो सर्वप्रथम अध्यापकोंके लिए। जैन हो या जैनेतर, सच्चा जिज्ञासु इसमें से बहुत कुछ पा सकता है। अध्यापकोंकी दृष्टि एक बार साफ हुई, उनका अवलोकन प्रदेश एक बार विस्तृत हुआ, फिर वह सुवास विद्यार्थियोंमें तथा अपद अनुयायियोंमें भी अपने श्राप फैलने लगती है / इस भावी लाभकी निश्चित आशासे देखा जाय तो मुझको यह कहने में लेश भी संकोच नहीं होता कि संपादकका टिप्पण तथा प्रस्तावनाविषयक श्रम दार्शनिक अध्ययन क्षेत्रमें सांप्रदायिकताकी संकुचित मनोवृत्ति दूर करनेमें बहुत कारगर सिद्ध होगा। ___भारतवर्षको दर्शनोंकी जन्मस्थलीऔर क्रीडाभूमि माना जाता है। यहाँका अपढ़ जन भी ब्रह्मज्ञान, मोक्ष तथा अनेकान्त जैसे शब्दोंको पद पद पर प्रयुक्त करता है, फिर भी भारतका दर्शनिक पौरुषशून्य क्यों होगया है ? इसका विचार करना जरूरी है / हम देखते हैं कि दर्शनिक प्रदेशमें कुछ ऐसे दोष दाखिल हो गए हैं जिनकी ओर चिन्तकोंका ध्यान अवश्य जाना चाहिए। पहली बात दर्शनोंके पठन-सम्बन्धी उद्देश्यकी है। जिसे दूसरा कोई क्षेत्र न मिले और बुद्धिप्रधान आजीविका करनी हो तो बहुधा वह दर्शनोंकी ओर झुकता है। मानों दार्शनिक अभ्यास का उद्देश्य या तो प्रधानतया आजाविका हो गया है या वादविजय एवं बुद्धिविलास / इसका फल हम सर्वत्र एक ही देखते हैं कि या तो दार्शनिक गुलाम बन जाता है या सुखशील / इस तरह जहाँ दर्शन शाश्वत अमरताकी गाथा तथा अनिवार्य प्रतिक्षण-मृत्युकी गाथा सिखाकर अभयका संकेत करता है वहाँ उसके अभ्यासी हम निरे भीरु बन गए हैं / जहाँ दर्शन हमें सत्य-असत्यका विवेक सिखाता है वहाँ हम उलटे असत्यको समझनेमें भी अससर्थ होरहे हैं, तथा अगर उसे समझ भी लिया, तो उसका परिहार करनेके विचारसे ही काँप उठते हैं / दर्शन जहाँ दिन रात आत्मैक्य या आत्मौपम्य सिखाता है वहाँ हम भेद-प्रभेदोंको और भी विशेषरूपसे पुष्ट करनेमें ही लग जाते हैं / यह सब विपरीत परिणाम देखा जाता है / इसका कारण एक ही है, और वह है दर्शनके अध्ययनके उद्देश्यको ठीक ठीक न समझना / दर्शन पढ़नेका अधिकारी वही हो सकता है और उसेही पढ़ना चाहिए कि जो सत्य-असत्यके विवेकका सामर्थ्य प्राप्त करना चाहता हो और जो सत्यके स्वीकारकी हिम्मतकी अपेक्षा असत्यका परिहार करनेकी हिम्मत या पौरुष सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रमाणमें प्रकट करना चाहता हो / संक्षेपमें दर्शनके अध्ययनका एक मात्र उद्देश्य है जीवनकी बाहरी और भीतरी शुद्धि / इस उद्देश्यको सामने रखकर ही उस का पठन-पाठन जारी रहे तभी वह मानवताका पोषक बन सकता है / दूसरी बात है दार्शनिक प्रदेशमें नये संशोधनोंकी। अभी तक यही देखा जाता है कि प्रत्येक संप्रदायमें जो मान्यताएँ और जो कल्पनाएँ रूढ़ हो गई हैं उन्हें / उस संप्रदायमें सर्वज्ञप्रणीत माना जाता है / ओर आवश्यक नये विचार प्रकाशका उनमें प्रवेश ही नहीं होने पाता / पूर्वपूर्व पुरखोंके द्वारा किए गए और उत्तराधिकारमें दिए गए चिन्तनों तथा श्रारणोंका प्रवाह ही संप्रदाय है। हर एक संपदायका माननेवाला अपने मन्तव्योंके समर्थन में ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकी प्रतिष्ठाका उपयोग तो करना चाहता है, पर इस दृष्टिका उपयोग वह वहाँ तक

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