Book Title: Nyayakumudchandra Part 2
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 18
________________ 16 न्यायकुमुदचन्द्र ही करता है जहाँ उसे कुछ भी परिवर्तन न करना पड़े। परिवर्तन और संशोधनके नामसे या तो सम्प्रदाय घबड़ाता है या अपनेमें पहलेसे ही सब कुछ होनेकी डीग हाँकता है। इसलिए भारतका दार्शनिक पीछे पड़ गया है। जहाँ जहाँ वैज्ञानिक प्रमेयोंके द्वारा या वैज्ञानिक पद्धतिके द्वारा दाशनिक विषयोंमें संशोधन करनेकी गुंजाइश हो वहाँ सर्वत्र उसका उपयोग अगर न किया जायगा तो यह सनातन दार्शनिकविद्या केवल पुराणोंकी ही वस्तु रह जायगी। अत एव दार्शनिक क्षेत्रमें संशोधन करनेकी प्रवृत्तिकी ओर भी झुकाव होना जरूरी है। दर्शन सम्बन्धी इतनी सामान्य चर्चा कर लेनेके बाद कुछ ऐतिहासिक प्रश्नों पर भी लिखना आवश्यक है / पहला प्रश्न है अकलंकके समयका। पं० महेन्द्रकुमारजीने "अकलङ्कग्रन्थत्रय" की प्रस्तावनामें धर्मकीर्ति और उसके शिष्यों आदिके ग्रन्थोंकी तुलनाके आधार पर अकलङ्कका समय निश्चित करते समय जो विक्रमार्कीय शकसंवत् का अर्थ विक्रमीयसंवत् न लेकर श कसंवत् लेनेकी ओर संकेत किया है वह मुझको भी विशेष साधार मालूम पड़ता है / इस विषयमें पंडितजीने जो धवलाटीकागत उल्लेख तथा प्रो० हीरालालजीके कथनका उल्लेख प्रस्तावना (पृ. 5) में किया है वह उनकी अकलङ्कग्रन्थत्रयमें स्थापित विचारसरणीका ही पोषक है / इस बारेमें सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० जयचन्द्र विद्यालङ्कारजीका विचार भी पं० महेन्द्रकुमारजीकी धारणाका ही पोषक है / मैं तो पहिलेसे ही मानता आया हूँ कि अकलंकका समय विक्रमकी आठवीं 19 स . __ वे भारतीय इतिहासको रूपरेखा (पृ० 824-29 ) में लिखते हैं कि-"महमूद गजनवीके समकालीन प्रसिद्ध विद्वान यात्री अल्बेरूनीने अपने भारत विषयक ग्रन्थमें शकराजा और दूसरे विक्रमादित्य के युद्धकी बात इस प्रकार लिखी है-"शकसंवत् अथवा शककालका आरम्भ विक्रमादित्यके संवत्से 135 वर्ष पीछे पड़ा है। प्रस्तुत शकने उन ( हिदुओं ) के देश पर सिन्ध नदी और समद्रके बीच, आर्यावर्तके उस राज्यको अपना निवास स्थान बनाने के बाद बड़े अत्याचार किए। कइयों का कहना है, वह अलमन्सूरा नगरीका शूद्र था, दूसरे कहते हैं वह हिन्दू था ही नहीं और भारतमें पश्चिम से आया था। हिन्दुओंको उससे बहत कष्ट सहने पड़े / अन्त में उन्हे पूरब से सहायता मिली जब कि विक्रमादित्यने उस पर चढ़ाईकी, उसे भगा दिया, और मुलतान तथा लोनीके कोटलेके बीच करूर प्रदेशमें उसे मार डाला। तब यह तिथि प्रसिद्ध हो गई, क्योंकि लोग उस प्रजा पीड़ककी मौतकी खबरसे बहुत खुश हुए, और उस तिथि में एक संवत् शुरू हुआ जिसे ज्योतिषी विशेषरूपसे वर्तने लगे। . . . . किन्तु विक्रमादित्य संवत् कहे जानेवाले संवत् के आरम्भ और शकके मारे जाने के बीच बड़ा अन्तर है, इससे मैं समझता हूं कि उस संवत् का नाम जिस विक्रमादित्य के नामसे पड़ा है, वही शकको मारनेवाला विक्रमादित्य नहीं है, केवल दोनोंका नाम एक है।" पृ० ( 824-25 ) "इस पर एक शंका उपस्थित होती है शालिवाहनवाली अनुश्रुतिके कारण। अल्बेरूनी स्पष्ट कहता है कि 78 ई० का संवत् राजा विक्रमादित्य ( सातवाहन ) ने शकको मारने की यादगारमें चलाया। वैसी बात ज्योतिषी भट्टोत्पल (966 ई०) और ब्रह्मगुप्त ( 628 ई०) ने भी लिखी है / वह संवत् अब भी पञ्चाङ्गोंमें शालिवाहन-शक अर्थात् शालिवाहनाब्द कहलाता है / . . ." (पृ. 836 ) / इन दो अवतरणोंसे इतनी बात निर्विवाद सिद्ध है कि विक्रमादित्य (सातवाहन) ने शकराजाको मारकर अपनी शकविजयके उपलक्ष्यमें एक संवत् चलाया था। जो सातवीं शताब्दी ( ब्रह्मगुप्त ) से ही शालिवाहनाब्द माना जाता है। धवलाटीका आदिमें जिस 'विक्रमार्कशक संवत्' का उल्लेख आता है वह यही 'शालिवाहनशक' होना चाहिए / उसका 'विक्रमार्कशक' नाम शकविजयके उपलक्ष्यमें विक्रमादित्य द्वारा चलाए गए शकसंवत् का स्पष्ट सूचन कर रहा है।

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